सम्पादकीय

परिणाम से पहले ही चौकसी !

Subhi
10 March 2022 3:37 AM GMT
परिणाम से पहले ही चौकसी !
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पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने से पहले ही एक्जिट पोलों के अन्दाजे पर जिस तरह गोवा व उत्तराखंड में प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस व भाजपा अपनी-अपनी सरकारें बनाने की गरज से अपने-अपने चुनावी प्रत्याशियों के सुरक्षा घेरे को तैयार करने में जुट गये हैं

आदित्य चोपड़ा: पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आने से पहले ही एक्जिट पोलों के अन्दाजे पर जिस तरह गोवा व उत्तराखंड में प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस व भाजपा अपनी-अपनी सरकारें बनाने की गरज से अपने-अपने चुनावी प्रत्याशियों के सुरक्षा घेरे को तैयार करने में जुट गये हैं उससे संसदीय लोकतन्त्र का स्वरूप कहीं न कहीं विपरीत रूप में जरूर उभरता है और चुने हुए प्रतिनिधियों की नैतिकता पर भी सवालिया निशान लगाता है। इससे यह सवाल वाजिब तौर पर खड़ा होता है कि चुनावों में जनता द्वारा दिये गये जनादेश की पवित्रता को किस प्रकार संरक्षित रखा जाये। मगर ऐसी संस्कृति के उपजने का प्रभाव समूचे लोकतन्त्र के चरित्र पर पड़ता है और आम जनता का विश्वास इस व्यवस्था में कहीं न कहीं डमगाता है। लोकतन्त्र में जनता के विश्वास को जमाये रखने की पहली और बड़ी जिम्मेदारी राजनीतिक दलों की ही बनती है क्योंकि इस प्रणाली के बूते पर ही उन्हें सत्ता करने या विरोध में बैठने का जनादेश मिलता है। अतः मतदाताओं द्वारा दिये गये फैसले का सम्मान करना और उसे यथानुरूप लेकर अपनी भूमिका तय करने की जिम्मेदारी राजनीतिक दलों को सहर्ष लेनी चाहिए और इसी के अनुरूप अपने दायित्व का निर्वाह भी करना चाहिए लेकिन हम देख रहे हैं कि गोवा व उत्तराखंड राज्यों में भाजपा व कांग्रेस दोनों ही पार्टियों के सुरक्षा कमांडर इन राज्यों की राजधानियों की तरफ कूच कर रहे हैं जिससे वे 10 मार्च को अपनी पार्टी की तरफ से मोर्चा संभाल कर सरकार बनाने की कसरत पूरी कर सकें और विधानसभा में पूर्ण बहुमत प्राप्त न कर पाने की स्थिति में अन्य दलों के चुने हुए विधायकों को अपने पाले में लेकर विरोधी पाले को कमजोर कर सकें। मगर इसके साथ हमें यह भी देखना होगा कि विधानसभा में किसी भी दल को पूर्ण बहुमत न मिल पाने की स्थिति में राजनीतिक दलों की भूमिका कैसी हो और उनका क्या दायित्व हो? इस बारे में जरा भी गफलत में रहने की जरूरत नहीं है क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र में एेसी परिस्थितियों से निपटने के लिए पर्याप्त साधन मौजूद रहते हैं। चुनाव बाद राजनीतिक दलों का गठबन्धन होना भी लोकतन्त्र की एक प्रक्रिया ही होती है मगर यह कार्य पूरी शुचिता व ईमानदारी के साथ होना चाहिए जिससे राज्य में एक स्थायी सरकार का गठन हो सके। जिस प्रकार चुनावों में प्रत्येक मतदाता को बिना किसी दबाव या लालच अथवा डर के अपना मत देने का अधिकार होता है उसी प्रकार त्रिशंकु विधानसभा के आने पर स्थायी सरकार बनाने हेतु प्रत्येक राजनीतिक दल को भी चुनाव बाद गठबन्धन करने का अधिकार होता है। स्वतन्त्र भारत में न जाने कितने राज्यों में गठबन्धन या साझा सरकारों का गठन हुआ है और उन्होंने अपना दायित्व भी निर्वाह करने का भरसक प्रयत्न किया है परन्तु इस सैद्धान्तिक व स्वाभाविक प्रक्रिया को हम विधायकों की तोड़फोड़ करके पूरा करना चाहते हैं तो आम जनता को संसदीय प्रणाली पर सन्देह पैदा होना शुरू हो जाता है। इस मामले में संसदीय प्रणाली में त्रिशंकु विधानसभा के गठन के बाद सरकार गठित करने के भी स्थापित नियम जिन्हें संविधान सम्मत माना जाता है जिनमें से सबसे पहला यह है कि चुनावों के बाद सबसे बड़े दल के रूप में उभरे या चुनाव बाद राजनीतिक सहयोग करके बने बहुमत के गठबन्धन को सरकार बनाने के लिए राज्यपाल आमन्त्रित करें। इस बारे में संसद से लेकर विधानसभाओं के बहुत से उदाहरण हैं।सवाल यह है कि संसदीय लोकतन्त्र में चुनाव की मार्फत मतदाताओं का जनादेश प्राप्त करने का विधान इसीलिए है जिससे जनमत के बहुमत वाली सरकार का गठन हो सके। इसके साथ राज्यपाल को अपने प्रदेश में संवैधानिक मुखिया होने के नाते यह भी देखना होता है कि सरकार गठन में किसी प्रकार का भी घपला अर्थात अवैध समझे जाने वाले साधनों का इस्तेमाल भी न हो परन्तु दुर्भाग्य से इस सन्दर्भ में कुछ अनुभव कड़वे भी रहे हैं अतः बहुमत के जोश में कुछ ऐसे भी कार्य होते रहे हैं जिनसे लोकतन्त्र में परहेज किया जाना चाहिए क्योंकि लोकतन्त्र लोक-लज्जा से ही चलता है। चुनावों में हार-जीत का अर्थ जन इच्छा से बन्धा होता है जिसके विरुद्ध आचरण करना जन इच्छा के विरुद्ध ही काम करना माना जाता है। जिस प्रकार एक्जिट पोल उत्तराखंड व गोवा में त्रिशंकु विधानसभा की तस्वीर खींच रहे हैं उसे देखते हुए दोनों ही प्रमुख पार्टियां कांग्रेस व भाजपा अपने-अपने मोर्चों पर अपनी-अपनी सेनाओं को तैयार तो रख सकती हैं परन्तु युद्ध के नियमों का उल्लंघन नहीं कर सकतीं। हम जानते हैं कि गोवा व उत्तराखंड में पहले क्या होता रहा है और किस तरह राजनीतिक उथल-पुथल मचती रही है। इसमें नुकसान अन्ततः राजनीतिक दलों का ही होता है क्योंकि लोकतन्त्र पर जनता के विश्वास में कमी आती है। हमारे सामने ऐसे भी उदाहरण हैं जब मात्र एक वोट से (1998 में ) केन्द्र की सरकार गिर जाती है और ऐसे भी उदारण हैं जब चुनावों के बाद बहुमत से केवल दो वोटों की कमी रह जाने पर विरोधी पक्ष के सरकार बनाने में कोई अड़चन पैदा नहीं की जाती।

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