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By: divyahimachal
हिमाचल में हर नागरिक का प्रजा बनने से द्वंद्व बढ़ता जा रहा है, जबकि प्रदेश का गठन और फिर विस्तार इस आधार पर हुआ कि हम बतौर नागरिक अपने दायित्व की प्रमुख भूमिका में यहां के इतिहास, संस्कृति, सामाजिक उत्थान और विकास के समान हकदार बनें। आरंभिक दौर में सरकारों ने इसी मूल आधार पर कानून बनाए और पर्वतीय विशिष्टता में नागरिक आधार को स्वतंत्र किया। पंद्रह अप्रैल 1948 को तीस पहाड़ी रियासतों को समाहित करके हम हिमाचल इसलिए बने ताकि लोकतंत्र में न राजा संस्कृति रहे और न ही नागरिक का अस्तित्व प्रजा की प्रजाति में गुम रहे। नागरिक और प्रजा के बीच अंतर कर्मठता और दायित्व के प्रति जिम्मेदार समाज बनाने के लिए हर व्यक्ति को एक पहचान भर का है। प्रजा बनकर समाज नागरिक अवधारणा को भूल सकता है, लेकिन सदियां बदलने के लिए आत्मानुशासन, मनुष्यता का बोध, भविष्य की परिकल्पना में मानव उत्थान तथा सामुदायिक संवेग के लिए नागरिक समाज का गठन अनिवार्य है। हिमाचल में नागरिक खुद में मनुष्यता के अर्थ में शारीरिक, आर्थिक व आधुनिक सुविधाओं से जुड़ी आवश्यकताएं तो समझ रहा है, लेकिन बतौर नागरिक समाज पर्वतीय मूल्य प्रणाली का विकास नहीं कर रहा। यह राज्य के प्रभुत्व को सर्वाधिकार नहीं देता, बल्कि परिवार और राज्य के बीच मध्यस्थ होते हुए भी जनमत बनाता है।
बेशक राजनीतिक शक्ति के रूप में हिमाचल में एक नागरिक समाज बनता हुआ दिखाई देता है, लेकिन यह नैतिक जिम्मेदारी से विमुख खड़ा होना भी चाहता है। कभी गांधी जी ने कहा था कि हमारे अधिकारों का सही स्रोत हमारे कत्र्तव्य होते हैं और यदि हम अपने कत्र्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन करेंगे, तो हमें अधिकार मांगने की आवश्यकता नहीं होगी। गांधी जी का यह सिद्धांत सामाजिक आचरण की बुनियाद में ऐसा नागरिक समाज खड़ा करना चाहता है, जो राज्य के प्रति अपने कर्म को सदैव आगे रखे। हिमाचल में समाज अपनी ऐच्छिक सुविधाओं में एकल स्वरूप से बहुत कुछ पाना चाहता है, लेकिन सामूहिक गतिविधियों में एकमत या सहमत नहीं होना चाहता है। वह प्रजा बनकर हर चुनाव से ऐसी गारंटी, सुविधा या वादा चुनता है, जो अगले चुनाव तक उसे स्वतंत्र बनाए रखे। प्रजा बनकर वह हर तरह का विकास सरकारी खजाने से चाहता है, लेकिन एक नागरिक के रूप में कर अदा नहीं करना चाहता। प्रदेश की प्रजा ने गांव को कस्बा और कस्बे को शहर बना दिया, लेकिन बतौर नागरिक हिमाचल का हर शहरी मांग कर दिखेगा कि गृहकर न लगाया जाए। हम प्रजा के स्वरूप में अपनी जाति को इतना विस्तार दे सकते हैं कि चुनावी टिकट आबंटन की प्रक्रिया में उम्मीदवार की सबसे बड़ी योग्यता-उपयोगिता उसकी विशिष्ट जाति से आती है। इसलिए भाईचारे का दोगलापन अब ऐसी नियमावली का शिष्टाचार है, जो हमें घर में सभ्य-संपन्न बनाता है, लेकिन बाहर मोहल्ले या सार्वजनिक व्यवहार में अति दरिद्र घोषित करता है।
यही वजह है कि सियासी चरित्र अब जनता के मुद्दों पर चर्चा न करके एक-दूसरे दल की छीछालेदर करता है या प्रजा के भिखारी स्वरूप को जिंदा रखने के लिए प्रलोभन बांटता है। प्रजा बनी हुई हिमाचली जनता को जब तक भीख में गारंटियां, सरकारी नौकरी के आश्वासन, मुफ्त के राशन और मुफ्त की सुविधाओं की आदत रहेगी, प्रदेश में नागरिक वफादारी का माहौल केवल सत्ता के दुरुपयोग में अवसरों की खोज करता रहेगा। समाज को नागरिक प्रलोभन से बचाने के लिए क्या कभी राजनीतिक ढांचा पहल करेगा या हम हिमाचली इन नेताओं के आगे प्रजा बनकर खुशफहमी में ही रहना चाहेंगे। हम हिमाचली कला, संगीत, लोक नृत्य को प्रजा बनकर नहीं, बल्कि नागरिक बनकर ही सहेज पाएंगे। जिस राज्य ने विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र यानी मलाणा को नागरिक समाज का अति जवाबदेह व अग्रणी चेहरा बनाया, वहां फिर से सशक्त नागरिक अवधारणा की आवश्यकता है।

Rani Sahu
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