सम्पादकीय

बेबुनियाद हंगामा

Subhi
16 Oct 2022 6:15 AM GMT
बेबुनियाद हंगामा
x
सच पूछिए तो मैंने इतनी गालियां खाई हैं हिजाब का सख्त विरोध करके कि मैं इस पर लिखना बंद कर देती, लेकिन ईरान में जिस बहादुरी से वहां की महिलाएं लड़ रही हैं हिजाब के खिलाफ, उसका जिक्र दुनिया में बहुत हो रहा है, लेकिन भारत में बहुत कम, इसलिए मैं अपना फर्ज मानती हूं अपनी आवाज उठाना। मासाह अमीनी नाम की बाईस साल की लड़की की मौत के बाद जो गुस्सा दिख रहा है ईरान के शहरों में और जिस तरह औरतें अपने हिजाब जला रही हैं सरेआम, उससे लगता है कि उस देश में एक नया इंकलाब शुरू हो चुका है।

तवलीन सिंह; सच पूछिए तो मैंने इतनी गालियां खाई हैं हिजाब का सख्त विरोध करके कि मैं इस पर लिखना बंद कर देती, लेकिन ईरान में जिस बहादुरी से वहां की महिलाएं लड़ रही हैं हिजाब के खिलाफ, उसका जिक्र दुनिया में बहुत हो रहा है, लेकिन भारत में बहुत कम, इसलिए मैं अपना फर्ज मानती हूं अपनी आवाज उठाना। मासाह अमीनी नाम की बाईस साल की लड़की की मौत के बाद जो गुस्सा दिख रहा है ईरान के शहरों में और जिस तरह औरतें अपने हिजाब जला रही हैं सरेआम, उससे लगता है कि उस देश में एक नया इंकलाब शुरू हो चुका है।

भारत में इसका कम जिक्र इसलिए हो रहा है, क्योंकि एक तरफ हैं वे लोग, जो चुप हैं मुसलमानों की भावनाओं को ठेस न पहुंचाने की खातिर और दूसरी तरफ हैं वे लोग, जो मजा ले रहे हैं कि एक कट्टरपंथी इस्लामी मुल्क में इस्लामी परंपराओं के खिलाफ जंग छिड़ गई है।

मुझे निजी तौर पर सबसे ज्यादा गालियां सुनने को मिली हैं दो किस्म के लोगों से। एक हैं, कुछ मुसलिम 'बुद्धिजीवी', जो जज साहब की तरह मानते हैं कि मुद्दा हिजाब का नहीं है, मुसलिम लड़कियों की शिक्षा का है। सो, अगर वे पर्दे में रह कर पढ़ना पसंद करती हैं तो उनका अधिकार है। दूसरा हमला मुझ पर हुआ है सोशल मीडिया पर और टीवी चर्चाओं में, उन वामपंथी लोगों द्वारा, जिनका अजीब रिश्ता है जिहादी इस्लाम से। इनका कहना है कि हिजाब की लड़ाई भारत में वही है, जो ईरान में लड़ी जा रही है। ईरान में महिलाएं न पहनने का अधिकार मांग रही हैं और भारत की मुसलिम महिलाएं हिजाब पहनने का हक मांग रही हैं।

मेरी राय में ये दोनों दलीलें झूठी हैं। झगड़ा किताब और हिजाब के बीच हो ही नहीं सकता है, इसलिए कि जिन लड़कियों को पर्दे में रहना पसंद है वे घर में रह कर आनलाइन शिक्षा प्राप्त कर सकती हैं, जैसे कोविड के दौर में सबको करना पड़ा था। जो कहती हैं कि उनकी इच्छा है अच्छे कालेज में पढ़ने की, तो उनको उस कालेज के नियम मानने पड़ेंगे। इनके पीछे जिहादी संस्थाओं का हाथ न होता तो यह हंगामा होता ही नहीं। साबित हो गया है अब कि जिन पांच-छह लड़कियों ने कर्नाटक में हिजाब की मुहिम शुरू की थी, उनका सीधा रिश्ता है पाप्युलर फ्रंट आफ इंडिया से।

रही बात औरतों को अपना लिबास चुनने के अधिकार की, तो समझना मुश्किल है कि किस तरह इसको समर्थन मिल रहा है ऐसी महिलाओं से, जो अपने आप को तरक्कीपसंद और वामपंथी विचारधारा से जुड़ी हुई मानती हैं। क्या इनको दिखता नहीं है कि जब किसी छोटी बच्ची को सिखाया जाता है कि अल्लाह का हुक्म है कि उसको पर्दे में रहना है, तो अल्लाह की मर्जी की मुखालफत कैसे करेंगी। सच तो यह है कि यह सारा झगड़ा बेबुनियाद है। न मामला औरतों की शिक्षा का है और न औरतों की 'पसंद' का। फिजूल में उठाया गया है यह मुद्दा, ताकि हिंदुत्व के इस माहौल में महिलाओं की यह मांग उठा कर 'इस्लाम खतरे में है' के नारे को ताकत मिले।

समस्या यह है कि इस मुद्दे को उठा कर उन अति-महत्त्वपूर्ण मुद्दों को नजरंदाज किया जा रहा है, जिनको लेकर बहुत हल्ला मचना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के सांसदों और विधायकों द्वारा दिए गए नफरत भरे भाषणों का मुद्दा। मुसलमानों के बहिष्कार का मुद्दा। मुसलमानों के घरों को बुल्डोजर से गिराए जाने का मुद्दा। पिछले सप्ताह एनडीटीवी का एक सर्वेक्षण सामने आया, जिसका कहना है कि नरेंद्र मोदी के आने के बाद वीआइपी श्रेणी में आने वाले लोगों द्वारा भड़काऊ भाषणों में एक सौ तेईस फीसद इजाफा हुआ है। पिछले सप्ताह एक और डरावनी खबर मिली विश्व बैंक से कि 2020 में पांच करोड़ से ज्यादा भारतीय गरीबी रेखा के नीचे धकेल दिए गए। इनमें मुसलमानों की तादाद ज्यादा होगी, इसलिए कि इस देश में मुसलमानों में गुरबत ज्यादा है।

विनम्रता से कहना चाहती हूं मुसलमानों के पहरेदारों से कि महिलाओं को गुमराह कर रहे हैं आप और वह भी ऐसे समय जब, कई इस्लामी मुल्कों में पुरानी, मजहबी बेड़ियां तोड़ी जा रही हैं मर्दों की मर्जी लिए बिना। यह ऐसा समय है जब भारत की हर पढ़ी-लिखी महिला को ईरान की औरतों की आवाज में अपनी आवाज जोड़नी चाहिए। ऐसा सारी दुनिया में हो रहा है, लेकिन भारत में नहीं। किसी ने हिसाब लगाया है कि दुनिया के कौन-कौन से शहरों में ईरानी महिलाओं के समर्थन में जलसे-जुलूस निकले हैं।

दुनिया के तमाम गैर-इस्लामी देशों के शहरों के नाम आते हैं इस सूची में, लेकिन भारत के एक भी शहर का नाम नहीं है। शर्म की बात है यह। यह हो रहा है इसलिए नहीं कि भारतीय मुसलिम महिलाओं को गुमराह कर रहे हैं दो किस्म के लोग। दकियानूसी सोच वाले मर्द और तथाकथित रौशन-खयाल वाली पढ़ी-लिखी औरतें। जिन चीजों को लेकर इनकी आवाज बुलंद होनी चाहिए, उसको भूल कर लग गए हैं हिजाब और किताब की बेबुनियाद लड़ाई लड़ने में।


Next Story