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- बामुश्किल संसद में बहस...
आदित्य चोपड़ा; संसद के 'सावन' सत्र में आखिरकार दो सप्ताह बाद रिमझिम का सुहाना मौसम बना और लोकसभा में व जीएसटी के मुद्दे पर चर्चा हुई। हालांकि राज्यसभा में भी माहौल पहले के मुकाबले कुछ सुधरा हुआ नजर आया मगर इस सदन में विपक्ष के नेता श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने व्यवस्था के ऐसे मुद्दे उठाये जिनका सम्बन्ध सदन की स्वस्थ परंपराओं से था। इस सदन में भी शोर-शराबे के बीच ही अंटार्कटिका विधेयक पारित हो गया हालांकि संसदीय लोकतन्त्र में इसका निषेध रहना चाहिए क्योंकि विधेयक का मतलब कानून होता है और देश का नया कानून सदन में चल रही अव्यवस्था के दौरान यदि बनता है तो उससे व्यवस्था की अपेक्षा कैसे न्यायसंगत हो सकता है? परन्तु संसद के भीतर चल रहे माहौल को देखते हुए इसे किसी तरह पचाने की कोशिश तो की ही जा सकती है। अब एेसा लगता है कि राज्यसभा में भी मंगलवार से महंगाई पर बहस शुरू हो जायेगी। लेकिन लोकसभा की इस विषय पर चली बहस को देखते हुए कहा जा सकता है कि विपक्ष के तेवर उतने आक्रमणकारी नहीं हो पा रहे हैं जितनी कि उम्मीद की जा रही थी क्योंकि विपक्ष ने सावन सत्र शुरू होते ही इस मुद्दे को अपनी नाक का सवाल बना लिया था। मगर इन दो सप्ताहों के बीच कुछ और नये मुद्दे भी उठ खड़े हुए जिन्हें विपक्ष बीच में ही उठाना चाहता है और संभवतः इसी वजह से वह आपस में बंट भी गया है।इस दौरान राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपत्नी कहने का मामला गरमा गया और इस बहाने देश की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के लोकसभा में नेता 'अधीर रंजन चौधरी' की अक्ल का पर्दाफाश पूरे राष्ट्र के समक्ष बहुत ही फूहड़ तरीके से हुआ, क्योंकि अधीर रंजन अभी तक इतना भी नहीं समझ सके हैं कि उनकी पार्टी की कितनी शानदार विरासत रही है और इस विरासत में उनके ही राज्य बंगाल की कितनी बड़ी भूमिका रही है। यदि हम महंगाई के मुद्दे को लें तो वर्तमान विश्व में भारत दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इस समय विश्व की जो आर्थिक स्थिति है और महंगाई का जो आलम अमेरिका से लेकर ब्रिटेन तक में है, उसे देखते हुए भारत की स्थिति पूरी दुनिया में सर्वोत्तम कही जा सकती है क्योंकि यहां मुद्रास्फीति की दर 7 प्रतिशत के दायरे में ही घूम रही है।कोरोना काल के दो वर्षों ने पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था को निचोड़ कर रख दिया है मगर भारत अकेला एेसा देश है जिसमें विदेशी निवेश की आवक कम नहीं हुई है और इसे अपनी वित्त प्रणाली में नाममात्र के लिए ही ब्याज दरें बढ़ानी पड़ी हैं। यह बात अर्थशास्त्र का कक्षा 12 का छात्र भी जानता है कि जिस देश में ब्याज की दरें कम होंगी उसकी अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और जिस देश में ब्याज दरें जितनी ऊंची होंगी उसकी अर्थव्यवस्था उतनी ही कमजोर होगी। हालांकि कोरोना काल के दौरान वृद्धि दर के नकारात्मक हो जाने पर कई प्रकार के आर्थिक सिद्धान्त तैरे थे मगर मोदी सरकार ने उस समय इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया था और अपने रिजर्व बैंक के गवर्नर और अन्य आर्थिक विशेषज्ञों की राय मानते हुए बाजार के परोक्ष वित्तीय मदद बैंक कर्ज उठाने के रूप में उठा कर पूंजी की सुगमता प्रदान करने के रूप में दी थी। इसके अच्छे परिणाम हमें मिलने शुरू हुए और हमारी औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि होनी शुरू हुई और बाजार में माल की मांग भी बढ़ने लगी। मगर इसके समानान्तर वाणिज्यिक गतिविधियों को हुए घाटे की पूर्ति महंगाई बढ़ने से हुई। चिन्ता का कारण यही हो सकता है वरना अमेरिका जैसे देश को भी अपनी ब्याज दरों में वृद्धि करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। संसद में जब इन महंगाई पर बहस हो रही है तो इन सभी वैश्विक कारणों का भी खुलासा होना चाहिए और इन पर जम कर बहस इस तरह होनी चाहिए कि आम आदमी की समझ में भी यह पेचीदा विषय आ सके।केवल यह कहने से काम नहीं चलेगा कि जीएसटी की दर पैकेट बन्द दूध व दही पर भी बढ़ा दी गई है। इस पर बहस करते हुए हमें भारत की सामाजिक आर्थिक विषमता व विविधता को भी संज्ञान में लेना होगा और सस्ती लोकप्रियता बटोरने से बचना होगा क्योंकि लोकतन्त्र में चुनी हुई सरकार एक सतत प्रक्रिया होती है और हर पांच साल बाद सत्ता में रहने वाली पार्टियां बदल सकती हैं। इसके साथ यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि लोकतन्त्र में सरकार कोई धर्मादा संस्थान (चेरिटेबल ट्रस्ट) नहीं होती है बल्कि वह उन्हीं लोगों से शुल्क वसूलती है जो उसे सत्ता में बैठाते हैं और फिर इस धन का उन्हीं लोगों पर व्यय करती है जो आर्थिक दृष्टि से सबसे ज्यादा योग्य (गरीब) होते हैं। इसे ही कल्याणकारी राज की परिकल्पना कहा जाता है।अतः 'बहुजन सुखाय' के हित में कोई भी लोकतान्त्रिक सरकार अपनी नीति इस प्रकार बनाती है कि वह 'सर्वजन सुखाय' के हित में हो। बढ़ी हुई महंगाई को हमें इस तराजू पर रख कर भी तोलना होगा। लोकतन्त्र का पहला सिद्धान्त यह भी होता है कि सरकार के आर्थिक उपायों से गरीब और अधिक गरीब किसी भी सूरत में न बनने पाये भले ही अमीर आदमी को इसकी कीमत चुकानी पड़े। सम्पत्ति का बराबर बंटवारा इस सिद्धान्त को लागू किये बिना कैसे हो सकता है। गांधीवाद तो यहां तक कहता है कि प्रत्येक अमीर आदमी को अपनी सुख-सुविधाओं की एक सीमा तय कर लेनी चाहिए जिससे सम्पत्ति का संचय चन्द लोगों के बीच में ही होकर न रह जाये। परन्तु खुली बाजार व्यवस्था में यह संभव नहीं है क्योंकि संचित सम्पत्ति ही अन्ततः विभिन्न उत्पादनशील उपकरणों से होते हुए रोजगार वृद्धि में सहायक बनती है।