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बाबा विनोबा की संत के नाते धूम थी, उनके ‘भूदान आंदोलन’ को लोग चकित से देख रहे थे
उनकी वह बात भी ध्यान देने योग्य है जो पहली पंचवर्षीय योजना के प्रारूप देखकर उन्होंने कही थी। उनकी राय जानने नेहरूजी ने पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज उनके पास भेजा था, उन्होंने इसे 'भीख मांगने की चिरंतन योजना कहा था।' योजना बनाने वालों से उन्होंने कहा कि संविधान ने सभी नागरिकों को रोजी-रोटी देने का वादा किया है, इसे आप लोग भूल चुके हैं…
'जनसत्ता' में डिप्टी न्यूज़ एडीटरी करते हुए एक दिन फाइनेंशियल एक्सप्रेस की एक बड़ी-सी स्टोरी पर ठिठक गया…यह विनोबा पर थी…विनोबा के प्रति दिल कुछ नरम रहा है, तो उसे पढ़ने लगा, थोड़ी पढ़ी पर मन शुरुआत में अटका रहा। उस रपट के शुरुआती शब्द थे…मैग्सेसे अवार्ड विनर विनोबा…मैं यह पढ़कर चकित, सोचने लगा कि विनोबा महज़ एक मैग्सेसे पुरस्कृत नाम है क्या…क्या रवीन्द्रनाथ एक नोबेल विजेता का नाम भर है! साठ के दशक तक विनोबा की लोकप्रियता बेशुमार थी…उनका भूदान आंदोलन ज़ोरों पर था, जिसको लेकर कौतूहल, जिज्ञासा और संदेह भरपूर थे। राजनीतिक मुहावरेबाज़ी में पारंगत और उससे आक्रांत मीडिया को देसी और आध्यात्मिक भाव-भंगिमा वाले बाबा हमेशा अटपटे लगे। राजनीति को पूरी तरह कुलच्छी होने में देर थी…अपने पराक्रम से हार-थककर विपक्ष के दल एक-दूसरे के साथ सबसे निस्संग को भी कोसने लगते…मसलन, विनोबा को। उन्हें लगता कि ये विनोबा उनके पक्ष में क्यों नहीं आता। चिढ़कर सब उन्हें 'सरकारी संत' कहने लगे थे। शायद यह सरकारी कारनामा था जिसने संत को ग्रस लिया था।
तब बाबा विनोबा की संत के नाते धूम थी, उनके 'भूदान आंदोलन' को लोग चकित से देख रहे थे…वे देश को पैदल नाप रहे थे…इस पदयात्री को देखने भीड़ उमड़ती थी। सरकार और कांग्रेस को संतत्व की इस लोकप्रियता से अपने लिए सहानुभूति सोखनी थी, इसलिए बाबा कहीं आते-जाते तो वह उनके दलबल के लिए कुछ सुविधा जुटा देती। विनोबा ने न कोई सुविधा मांगी और न विरोध किया… वे अविरोध वाले व्यक्ति थे। मीडिया उनसे बेपरवाह था कि वे उस तरह 'ख़बरदार' व्यक्ति नहीं थे। उनका लेना-देना भी शहरों से नहीं गांव-ज़मीन से था, बोली-बानी सीधी पर अटपटी कि राजनीति के पोथी-निष्ठ पत्रकार उसे पकड़ने में बेबस थे। उनकी लोकछवि बड़ी और स्वयं अर्जित थी, गांधीजी ने उस पर मोहर लगाई थी…विनोबा की श्रम साधना, सेवा, अध्ययन-मनन-शिक्षण, स्वावलंबन, अनासक्ति से गांधी गहरे प्रभावित थे। सीएफ एंड्रूज से विनोबा के बारे में गांधीजी ने कहा था, 'ये हमारे आश्रम के उन रत्नों में हैं जो यहां आशीर्वाद लेने नहीं, बल्कि आश्रम को अपने आशीर्वाद से पवित्र करने आए हैं।' वर्ष 1940 में उन्होंने विनोबा को पहला 'व्यक्तिगत सत्याग्रही' बनाया और 'हरिजन' में ख़ुद लिखकर बताया कि ये विनोबा कौन हैं। एक प्रवचन में गांधीजी द्वारा अपना नाम पेश करने पर विनोबा ने कहा कि मेरा नाम नहीं था, कोई बड़ा राजनीतिक काम नहीं था, फिर भी और जो भी गुण उन्होंने देखे हों, एक गुण यह अवश्य देखा कि इसका दिमाग़ रचनात्मक है, विध्वंसक नहीं। इससे स्पष्ट है कि सत्याग्रही के लिए वे रचनात्मक काम आवश्यक मानते थे। विनोबा अपनी तरह से अपने काम में लगे थे…ज़मीन की समस्या का वे समाधान ढ़ूंढ़ रहे थे, वे गांधी की हृदय परिवर्तन की विधि को कारगर मानते थे और घूम-घूमकर लोगों से अपनी भूमि का छठा हिस्सा दान में मांगते थे। दान में विवादित, बंजर ज़मीन दी गई…फजऱ्ी भूदान हुआ पर शायद उस आंदोलन की कुल कहानी इतनी भर नहीं है। विनोबा किसी के प्रतिस्पर्धी नहीं थे, अपनी लोकप्रियता को अपने कामों से इतर कभी भुनाया नहीं… पार्टी नहीं बनाई, सत्ता की कामना कभी की नहीं। गांधी-विनोबा-जयप्रकाश कभी उम्मीदवार नहीं बने। विनोबा निरपेक्ष रहे, सरकार या किसी का अवलम्बन नहीं लिया।
गिला यही है कि राजनीतिक जमातों समेत बड़ा वर्ग इस प्रयोग को हजम नहीं कर पाया, जबकि यह अहिंसक था, लड़ाने-फूट डालने, जनता में विष बोने, उसे विभाजित करने का कोई एजेंडा नहीं, उल्टे लोगों को जोड़ने की भरसक कोशिश। कोई धरना, प्रदर्शन, घेराव, नारे नहीं, प्रचार नहीं, कोई जुमलेबाज़ी नहीं। बाबा और उनके अनूठे प्रयोग से देश उकता गया था। अंतिम दिनों में गांधीजी को अपनी सफलता संदिग्ध लगने लगी थी। सत्तर आते-आते विनोबा और उनका मिशन असंदिग्ध रूप से असफल होता दिख रहा था। पूंजी के लिए बदहवासी के आलम में वंचितों के लिए 'एक पैसा रोज़' वाले विनोबा के दान-पात्र के मटके को फूटना ही था, अनुदान के आगे दान के पैर उखड़ने ही थे, लूट-खसोट के दौर में उनकी बेशक़ीमती बात 'बिन श्रम खावे, चोर कहावे' को धूल ही फांकनी थी। संशय, अविश्वास और नफरत के माहौल में उनके सत्य, प्रेम, करुणा को मुंह छिपाने को घर नहीं मिलने वाला था और जब सब आपस में भिड़े हुए हैं ऐसे में ृजय-जगत की क्या बिसात! विनोबा यह सब ख़ुद समझ रहे थे, इसलिए वे अपने को सीमित करते गए और पवनार में स्थिर हो गए। क्षेत्र सन्यास ले लिया। और देखते ही देखते शेष जगह उन सब चीज़ों से भर गई जिनकी आशंकाएं चमचमा रही थीं। प्रतीक रूप में देखें तो विनोबा के गमन (15 नवंबर 1982) के साथ ही देश की परम्परा, विरासत, विविधता, सद्भाव और लोकतांत्रिक मिज़ाज ने कुम्हलाना शुरू कर दिया था। जेपी आंदोलन पर विभाजित सर्व सेवा संघ के लोगों से उन्होंने मतभेद हों, पर मनभेद न होने की बात कही थी। विनोबा 24 दिसंबर 1974 को एक वर्ष का मौन ले चुके थे। कांग्रेसी नेता वसंत साठे उनसे जाकर मिले, विनोबा ने उन्हें महाभारत का अनुशासन पर्व दिखाया। उन्होंने प्रचारित किया कि आपातकाल को विनोबा अनुशासन पर्व मानते हैं। उन्हें और ज़ोर-शोर से सरकारी संत कहा जाने लगा। जबलपुर सेंट्रल जेल में जनसंघियों ने शौचालय के दरवाज़े पर उनकी फोटो लगा दी थी और उस पर चप्पल भी मारते थे। 25 दिसंबर 1975 को विनोबा का मौन खुलना था, उत्सुकता थी कि वे क्या बोलेंगे? विनोबा ने अपने कथन का अर्थ अपनी शैली में खोला, निराशा ही हुई। वैसे अनुशासन पर्व पर जो बाद में मौन तोड़ते समय उन्होंने कहा था वह महाभारत में वर्णित आचार्यों के अनुशासन की बात थी, 'जो असली अनुशासन होता है, सरकार का तो सिर्फ शासन होता है।' अब विचार करता हूं तो पाता हूं कि उनके प्रति आकर्षण हमेशा बना रहा।
घर में उनके आश्रम की 'मैत्री' पत्रिका आती थी, बहुत कम उम्र से उसके सबसे पीछे के पन्नों में प्रकाशित स्तम्भ 'विनोबा निवास से' पढ़ता रहा हूं…लोगों के प्रश्नों पर उनके उत्तर अद्भुत होते थे। किसी ने पूछा निस्वार्थ कैसे बने…जवाब मिला, बहुत आसान है अपना स्वार्थ फैलाते रहिए, उसे व्यापक करिए, अपने से सब तक उसे ले जाइए…किसी ने पूछा आप कौन से ब्राह्मण, देशस्थ कि कोंकणस्थ… बाबा ने कहा, दोनों नहीं, मैं अपनी काया में स्थित हूं, इसलिए कायस्थ… फिर थोड़ा रुककर बोले कि इससे भी आगे मैं अपने 'स्व' में स्थित हूं इसलिए 'स्वस्थ।' विनोबा लोकनीति की बात करते थे। उनका कहना था व्यापक अर्थ में यह राजनीति ही है… वे मानते थे कि आज अप्रत्यक्ष लोकतंत्र चल रहा है, सर्वोदय लोगों की भागीदारी वाला लोकतंत्र चाहता है। लोकनीति है, जनता को जाग्रत करना और राज्य शक्ति को क्षीण करते जाना। गांधीजी के शिक्षणों में वे सत्याग्रह को शिरोमणि मानते थे, पर वे मानते थे कि आज 'सत्याग्रह का व्यायाम' चल रहा है। सत्य कम हो गया है, आग्रह ज़्यादा है। उनकी वह बात भी ध्यान देने योग्य है जो पहली पंचवर्षीय योजना के प्रारूप देखकर उन्होंने कही थी। उनकी राय जानने नेहरूजी ने पंचवर्षीय योजना का दस्तावेज उनके पास भेजा था, उन्होंने इसे 'भीख मांगने की चिरंतन योजना कहा था।' योजना बनाने वालों से उन्होंने कहा कि संविधान ने सभी नागरिकों को रोजी-रोटी देने का वादा किया है, इसे आप लोग भूल चुके हैं। जिनके कंधों पर यह काम पूरा करने की जि़म्मेदारी है, अगर उन्हें यह काम असंभव लगता है तो फिर उन्हें पद छोड़ देना चाहिए। विनोबा इस तरह के खरे राजनीतिक बयान देते रहते थे।
मनोहर नायक, स्वतंत्र लेखक
Gulabi
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