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श्री कृष्ण जन्माष्टमी कोई आम त्योहार नहीं है। भारत और भारतीयता में श्रीकृष्ण रचे-बसे हैं
सोनल मानसिंह,
श्री कृष्ण जन्माष्टमी कोई आम त्योहार नहीं है। भारत और भारतीयता में श्रीकृष्ण रचे-बसे हैं, इसलिए यह लोकजीवन से जुड़ा पर्व है। हम कलाकारों के लिए भारत का अर्थ भाव, राग और ताल भी है। इसमें भाव केवल नृत्य से नहीं, बल्कि जीवन से जुड़ा है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हम नौ रस से गुजरते हैं। इसी तरह, राग का अर्थ भी मात्र संगीत नहीं है। इसका मतलब है प्रेम। हम कहते भी हैं कि ईश्वर प्रेमस्वरूप है। और, ताल महज लय नहीं है, बल्कि इसका एक अर्थ माप अथवा दूरी है। यानी, जीवन जीने की कला जो भारत ने विश्व गुरु के रूप में दुनिया को दी है, उसका एक सांकेतिक नाम श्रीकृष्ण है।
श्रीकृष्ण स्वयं नारायण विष्णु हैं। मानव देह के रूप में अवतरित होकर उन्होंने दिखाया है कि इंसान की क्षमता कितनी है और वह कहां तक पहुंच सकता है। श्रीकृष्ण नटनागर भी हैं और पार्थसारथी भी। वह श्रीमद्भागवत के उद्गाता भी हैं और सबसे बड़े राजनीतिज्ञ भी। श्रीकृष्ण योगेश्वर भी हैं और भोगेश्वर भी। जीवन में संतुलन किस तरह बनाकर रखना है, इसके वह प्रतीक हैं। उन्होंने किसी चीज को नहीं छोड़ा, सबको अपनाया है। उन्होंने जीवन के सभी रंगों को ओढ़ा है, जिसका संकेत उनके शीश पर मयूरपिच्छ का होना है। उन्होंने मधुर-मधुर बांसुरी की धुन पर सबको नचाया है। उन्होंने सबको जकड़ा है। सबकी देह में प्राण फूंके हैं।
माधुर्य अवतार है उनका। मगर जीवन का वह क्षण, जब हम सबको जूझना पड़ता है, तब श्रीकृष्ण संदेश देते हैं- उठो, और अपना कर्म करो। कर्मयोगी हैं वह। आगे कहते हैं, कर्म करो, लेकिन फल की चिंता किए बिना कर्म करो। जब आप फल की उम्मीद करते हुए कर्म करेंगे, तब आपको निराशा भी मिल सकती है। यानी, जो भारत का दर्शन है, उसके एकमात्र प्रतीक हैं वह। वह निराकार भी हैं और साकार भी। निर्गुण भी हैं और सगुण भी। सभी द्वंद्व, जिस बिंदु पर आकर खत्म हो जाते हैं या एकाकार हो जाते हैं अथवा घुल-मिल जाते हैं, वही श्रीकृष्ण हैं।
हम कलाकारों के लिए श्रीकृष्ण का विशेष महत्व है। माधुर्य मानव जीवन की पराकाष्ठा है और उसके अवतार श्रीकृष्ण हैं, इसलिए कला जगत में श्रीकृष्ण खासतौर से याद किए जाते हैं। उनमें सभी भाव, राग और ताल दृश्यमान होते हैं। अपने देश में ही नहीं, विदेश में भी श्रीकृष्ण पूजे जाते हैं। उनको समर्पित गीत-संगीत, कजरी, ठुमरी, पद आदि खूब गाए और नृत्य द्वारा अंकित किए जाते हैं। श्रीकृष्ण जनजीवन में किस कदर बसे हैं, इसका अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि शिल्प, बुनाई, चित्रकला, मंदिर आदि सभी जगहों में श्रीमद्भागवत के प्रसंगों को उकेरा गया है और श्रीकृष्ण की कहानी पेश की गई है। भरतनाट्यम् हो या ओडिसी, सभी में कृष्ण से जुडे़ पदों की प्रस्तुति होती है। मैं तो एक अनूठा प्रयोग भी कर रही हूं। मैंने 2009 से श्रीकृष्ण पर नाट्यकथा की शुरुआत की है। इसमें श्रीकृष्ण के जीवन के हरेक पहलू को दिखाया जाता है। हर प्रस्तुति में कुछ न कुछ नया प्रसंग पेश किया जाता है।
श्रीकृष्ण की एक और विशेषता है। उनको जितना बुरा-भला कहा गया है, शायद ही किसी अन्य देवता को कहा गया होगा। वह अकेले ऐसे प्रतीक हैं, जिन्हें जन्म से लेकर अंत तक छलिया, निर्मोही, माखनचोर जैसे शब्द कहे गए। उन्होंने सबको आनंद से स्वीकार किया। होली-जन्माष्टमी जैसा त्योहार हो या दैनिक जीवन का कोई क्षण, हम श्रीकृष्ण से जुड़े शब्द बोलते ही रहते हैं। गांधारी के भयानक श्राप को भी उन्होंने सहर्ष शिरोधार्य कर लिया। इसके ठीक उलट, सुदामा के साथ अपनी मित्रता से जो संदेश उन्होंने दिया, वह जीवन-दर्शन के लिए बहुत अहम है। जीवन के जितने आयाम होते हैं, सभी को श्रीकृष्ण से जुड़े नृत्य-संगीत में हम देख सकते हैं। मानव देह में अवतरित होकर उन्होंने हमें वह रास्ता दिखाया है, जिस पर यदि हम चलें, तो परम पद पा सकते हैं। वह कभी हाथ नहीं छोड़ते, फिर चाहे उनको लाख उलाहना दें। यानी, वह ऐसे देवता भी हैं, जिनको गलत समझा गया है। उनकी विराटता को समझना मुश्किल है। वह कहां कहते हैं कि मुझे समझो। वह तो कहते हैं, मुझे पकड़कर रखो, मैं तुम्हारा हूं।
श्रीकृष्ण के जीवन की हरेक घटना में हमारे लिए संदेश छिपा है। जैसे, कालिय नाग प्रसंग की ही चर्चा करें। इस नाग को हम प्रदूषण का प्रतीक मान सकते हैं। श्रीकृष्ण ने न सिर्फ कालिय से युद्ध किया, बल्कि उसके सिर पर नृत्य करते हुए उसे हराया भी। शिव का तांडव और काली का तांडव तो प्रसिद्ध है, लेकिन श्रीकृष्ण ने एक बार ही तांडव किया और वह अत्यंत प्रसिद्ध है- तांडव गति मुंडन पर नाचत बनवारी। नरसी मेहता ने तो इस प्रसंग का बहुत खूबसूरत वर्णन किया है। वह लिखते हैं- जलकमलदल छांडि जाने बाला, स्वामी अमारो जागशे, जागशे तने मारशे, मने बाल हत्या लागशे... इन पदों में हास्यरस की पराकाष्ठा भी है। इसमें नागरानी पूछती है कि ए सुंदर बालक, तू कौन है? यहां क्या कर रहा है? क्या तुम्हारी मां को परवाह नहीं कि तू कहां भटक रहा है? श्रीकृष्ण जवाब में कहते हैं, मैं मथुरा में पासा खेल रहा था और तेरे पति का शीश बाजी पर रखा था, मैं वह हार गया, तो अब उसका शीश लेने आया हूं। नागरानी बोलती हैं, कितना उद्दंड बालक है। जा, मेरे आभूषण ले जा और यहां से चला जा। श्रीकृष्ण हंसकर बोलते हैं, क्या तू अपने घर में चोरी करेगी? जा, अपने पति को उठा। इसके बाद कालिय नाग और श्रीकृष्ण में युद्ध होता है, और युद्ध का नतीजा देख नाग रानियां श्रीकृष्ण से अपने पति के प्राण न लेने की प्रार्थना करती हैं। श्रीकृष्ण इसी शर्त पर कालिय को छोड़ते हैं कि वह तत्काल यमुना छोड़कर चला जाए। हम भी यह प्रण ले सकते हैं कि नदियों के प्रदूषण को तत्काल दूर करने का प्रयास करेंगे।
स्पष्ट है, श्रीकृष्ण की गाथा अनुपम है। यहां हमें चैतन्य महाप्रभु याद हो आते हैं। कहा जाता है, जगन्नाथ मंदिर में प्रवेश करते समय वह इतना रोए कि पत्थर तक पिघल गया। आज भी वहां भगवान के पैरों के निशान हैं। चैतन्य महाप्रभु की विनती यही थी- मुझे निर्वाण नहीं चाहिए, मुझे मुक्ति नहीं चाहिए, मुझे तो जन्म-जन्म तक बस तेरी भक्ति चाहिए। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर कुछ ऐसी ही कामना करनी चाहिए।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)
Hindustan Opinion Column
Rani Sahu
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