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क्या आपको पता है कि निजीकरण के खिलाफ़ बैंक कर्मियों ने हड़ताल करने के लिए दो दिन की सैलरी कटाई है
रवीश कुमार, क्या आपको पता है कि निजीकरण के खिलाफ़ बैंक कर्मियों ने हड़ताल करने के लिए दो दिन की सैलरी कटाई है. बैंकरों ने एक दिन की तीन-तीन हज़ार की सैलरी कटाई है. सभी कर्मचारियों ने दो दिनों की हड़ताल के लिए कितनी सैलरी कटाई है, हमें कुल राशि का हिसाब नहीं मिल सका लेकिन कुछ लोगों ने अनुमान के आधार पर बताया कि कम से कम एक हज़ार करोड़ तो दो दिन के कट ही जाएंगे. इसके पहले भी दो दिनों की हड़ताल में सैलरी कटी थी. तो क्या चार दिनों की हड़ताल के लिए बैंकरों ने दो हज़ार करोड़ का वेतन कटाया?
कमाल का कमिटमेंट है. हज़ारों करोड़ रुपए की सैलरी कटा कर बैंकर हड़ताल कर रहे हैं और उम्मीद है जिन चैनलों को देखते हैं उन पर खूब कवरेज भी हुआ होगा. लेकिन मेरा बैंकरों से एक सवाल है. पिछले सात साल में बैंकरों के व्हाट्सऐप ग्रुप में हिन्दू मुस्लिम नफरत वाली मीम को लेकर कितने मैसेज साझा किए गए. मॉब लिंचिंग और नफरत से जुड़े कितने मैसेजों को मैनेजर स्तर से ऊपर के अफसरों से साझा करते हुए सही ठहराया. गोदी मीडिया के कार्यक्रमों को मैनेजर स्तर से ऊपर के कितने अधिकारी देखते हैं और साझा करते हैं. मैनेजर स्तर से ऊपर के कितने कर्मचारी किसान आंदोलन के समय उन्हें आतंकी बताने वाले पोस्ट शेयर कर रहे थे.
सांप्रदायिकता नागिरकता की जड़ में मट्ठा डाल देती है. नफरत से भरा नागरिक निजीकरण का विरोध नहीं कर सकता है. यह सवाल मैंने बैंकरों से इसलिए पूछा क्योंकि यही सवाल किसानों से पूछा था कि गांवों में उनके रहते हिन्दू मुस्लिम दंगे हुए. किसानों ने इसका जवाब भी दिया और भरे मंच से इसके लिए माफी मांगी.
कई बैंकरों ने कहा कि उनके व्हाट्सऐप ग्रुप में नफरती मैसेज फार्वर्ड नहीं होते हैं. मुश्किल है इसे स्वीकार करना फिर भी इसमें कोई शक नहीं कि दो दिन के छह हज़ार कटा कर हड़ताल में आना मामूली बात नहीं है. इसका मतलब है कि बैंकरों ने निजीकरण को लेकर काफी विचार विर्मश किया है. ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कंफेडरेशन AIBOC ने 19 पन्नों की की एक रिपोर्ट तैयार की है जिसमें हर बात का संदर्भ दिया गया है कि सरकार ने ऐसा कहा है या रिज़र्व बैंक और CAG की रिपोर्ट में ऐसा कहा गया है. इसके आधार पर बात रखी गई है कि कैसे सरकार उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाने के लिए बैंकों को घाटे की तरफ धकेलती चली गई. अब बैंकिंग लॉ अमेंडमेंट बिल 2021 के ज़रिए अपनी हिस्सेदारी 50 फीसदी से कम करने जा रही है ताकि ये बैंक उन्हीं निजी लोगों के हवाले कर दिए जाएं जिन्होंने इन बैंकों को खोखला कर दिया है. हाल ही में प्रधानमंत्री ने कहा था कि सरकारी बैंकों के पांच लाख करोड़ वसूले भी गए हैं जिसकी चर्चा कम होती है. इसके बारे में ऑल इंडिया बैंक आफिसर्स कंफेडरेशन AIBOC ने विस्तार से जवाब दिया है. बताया है कि 2014-15 से 2020-21 के बीच बैंको का NPA नॉन परफार्मिंग असेट 25 लाख 24 हज़ार करोड़ का हो गया है. इसमें से 19 लाख 4 हज़ार करोड़ NPA सरकारी बैंकों का है. 8 लाख करोड़ write off किया गया है. इसके कारण सरकारी बैंकों का घाटा बहुत बढ़ गया. 4 लाख 48 हज़ार करोड़ ही वसूले गए हैं वो भी सात साल में.
2014 से लेकर 2020-21 तक 25 लाख करोड़ का लोन NPA हुआ है. वापस कितना आया है करीब साढ़े चार लाख करोड़. क्या यह इतनी बड़ी उपलब्धि है कि प्रधानमंत्री को लगता है कि इस पर चर्चा नहीं हुई? बैंकरों ने जो प्रेस रिलीज तैयार की है उसमें लिखा है कि 7 दिसंबर को राज्यसभा में वित्त मंत्रालय का जवाब है कि write off करना, एक रुटीन प्रक्रिया है. इससे कर्ज लेने वाले को फायदा नहीं होता है. बैंकर कहते हैं कि दोनों ही बातें गलत है. बैंकरों का कहना है कि सरकार का ही जवाब कहता है कि 2016-17 से 2020-21 के बीच 25 लाख करोड़ के NPA में से सात लाख करोड़ written off किया गया है और इसमें से मात्र 86,986 करोड़ की वसूली हुई है. जाहिर है लोन लेने वाले को फायदा हुआ है.
इन सवालों के जवाब में यूनियन नेता पंकज कपूर कहते हैं, ''आज तक जो भी बैंकों में bad लोन होते हैं उसको NPA में categorise कर दिया जाता है. उससे बैंक को कुछ अर्निंग नहीं हो रही. कोई इंटरेस्ट नहीं आ रहा. रिटेन ऑफ मतलब provisioning. इस एनपीएस के अगेंस्ट बैंक को अपने प्रॉफिट में से जब 31 मार्च को उनको प्रॉफिट आता है उसमें से provisioning करके bad लोन वाले अकाउंट को राइट ऑफ करना होता है. क्रेडिट करना होता है. जब npa अकाउंट एनसीएलटी उसके अंदर जाते हैं जो bankruptcy कोड में जाते हैं जो रिकवर करता है. इस कोड में आजतक क्या हो रहा है, जिस सोच के साथ ये गवर्नमेंट लेकर आई थी उसका बिल्कुल विपरीत हो रहा है. उसमे हेयर कट का नाम लेकर आए. ये कंसल्टेंट का टर्म है. जो मकंजी बोस्टन यूज करते हैं. हेयर कट 85% तक दे दिया जाता है. 95% तक अभी लास्ट केस जो हुआ है दिया गया है हेयर कट. मतलब 95% हेयर कट हो गया.. 5% ही लोन वाले को देना है. मुझे नहीं देना है मेरा कोई दोस्त या रिश्तेदार उसको परचेज कर लेगा 5% पर. ये बहुत बड़ा लूप होल है तभी हम backruptcy कोड का भी विरोध कर रहे हैं. निजीकरण बहुत बड़ा फ्रॉड है पूरे देश के साथ. एंटी नेशनल है. एंटी कंट्री है. एंटी इकोनॉमी है. एंटी पब्लिक है.''
एक धारणा फैलाई गई है कि जब सरकारी बैंकों का लोन डूबने लगता है तो सरकार को जनता के पैसे से बचाना पड़ता है. EPW में इस सवाल को लेकर एक शोधपरक लेख छपा है. इस लेख में इंडियन इस्टिट्यूट ऑफ मैनेजमेंट अहमदाबाद में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर TT राम मोहन के अध्ययन का हवाला दिया गया है. लेख प्रोफेसर राम मोहन का नहीं है मगर उनके काम को कोट किया गया है.
प्रोफेसर राम मोहन का कहना है कि सरकार हमेशा से ही सरकारी बैंकों में पैसा डालती रही है. हर जगह की सरकार सरकारी बैंकों में पैसा डालती है. 2008, 2009 में ब्रिटेन की सरकार ने 4 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये डाले थे ताकि रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड को बचाया जा सके. दो साल में इतना पैसा डालना पड़ा. राम मोहन कहते हैं कि इतना पैसा तो जब से उदारीकरण शुरू हुआ है भारत सरकार ने डाला है. यानी भारत सरकार ने बीस साल में सरकारी बैंकों को बचाने के लिए कुछ खास पैसा नहीं डाला. राम मोहन का तर्क है कि यह धारणा भी गलत है कि प्राइवेट बैंकों के साथ ऐसा नहीं होगा. टैक्सपेयर को अपनी जेब से प्राइवेट बैंकों के लिए भी पैसे देने पड़ेंगे.
सरकार को नाम लेकर बताना चाहिए ठीक उसी तरह से जैसे आम लोगों के लोन न चुकाने वाले बैंक वाले चले जाते हैं ताकि मोहल्ले में उसे शर्मिंदा किया जा सके. लोन ज़बरन दिए जाने के कारण डूब रहे हैं. डुबाने वाले को राजनीतिक संरक्षण दिए जाने के कारण लोन डूब रहे हैं इसलिए बैंकों की हालत खराब है.
यह सही है कि सरकारी बैंकों के कारण आम लोगों तक बैंकिंग पहुंचा है और लोन मिला है. जनधन खातों का 97 प्रतिशत हिस्सा सरकारी बैंकों में है. प्राइवेट बैंकों ने क्यों तीन प्रतिशत ही जनधन खाते खोले. 43 करोड़ खातों को खोल देना सामान्य बात नहीं है. आज ही यानी 16 दिसंबर को सरकार ने लोकसभा में बताया है कि प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत स्ट्रीट वेंडर को प्राइवेट बैंकों ने कितने कम लोन दिए हैं. जितना लोन दिया गया है उसका 1.77 प्रतिशत. बैंक कर्मचारियों को नोटबंदी जैसे विचित्र फैसले भी लागू करने पड़े. अचानक इतना नोट आ गया कि गिनने में गलती हुई और कई कैशियरों ने उतना पैसा अपनी जेब से भरा. देश बैंकरों के इस योगदान को भूल गया लेकिन मैं याद दिलाता रहता हूं.
कैशियरों को जो नुकसान हुआ है उसके लिए नेहरू को इस्तीफा देना ही चाहिए लेकिन अच्छी बात है कि नोटबंदी में बैंकरों के योगदान को लेकर प्रधानमंत्री ने प्रशंसाओं में श्रेष्ठ प्रशंसा अर्थात भूरी भूरी प्रशंसा की थी. ये भूरी भूरी प्रशंसा मुझे बहुत पसंद है, क्योंकि आज तक किसी ने मेरी भूरी भूरी प्रशंसा नहीं की है.
नोटबंदी के समय बैंकरों के योगदान की प्रशांसा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था, ''बैंक कर्मचारियों ने इस दौरान दिन-रात एक किए हैं. हजारों महिला बैंक कर्मचारी भी देर रात तक रुककर इस अभियान में शामिल रही हैं. पोस्ट ऑफिस में काम करने वाले लोग, बैंक मित्र, सभी ने सराहनीय काम किया है. इतिहास गवाह है कि हिंदुस्तान के बैंकों के पास एक साथ इतनी बड़ी मात्रा में, इतने कम समय में, धन का भंड़ार पहले कभी नहीं आया था. बैंकों की स्वतंत्रता का आदर करते हुए मेरा आग्रह है कि बैंक अपनी परंपरागत प्राथमिकताओं से बाहर निकलकर अब देश के गरीब, निम्न मध्य वर्ग औऱ मध्यम वर्ग को केंद्र में रखकर अपने कार्य का आयोजन करें."
ठीक यही दलील अपनी जेब से 2000 करोड़ देकर हड़ताल करने वाले बैंकर दे रहे हैं कि सरकारी बैंक ही किसान, गरीब, दलित, महिलाओं को लोन देते हैं. लघु मध्यम स्तर के उद्योगों को लोन देते हैं. इनके पास जो भी लोन है उसका बड़ा हिस्सा सरकारी बैंकों का है. अगर बैंकों का निजीकरण होगा तो गरीब और निम्न मध्यम वर्ग तक लोन की पहुंच नहीं हो पाएगी.
बैंक यूनियनों का कहना है कि सरकारी बैंकों के विलय के कारण उनकी संख्या 27 से घट कर 12 पर आ गई है. इससे नौकरियों की संख्या कम होगी और आरक्षण का लाभ कम होगा. बैंक यूनियन का दावा है कि बैंकों के 80,000 पद कम हो गए हैं. बैंकों के विलय से 3000 से अधिक ब्रांच कम हो गए हैं. क्या बैंकर इन बातों को लेकर मिडिल क्लास को समझा पाएंगे? अगर नहीं तो उनकी हड़ताल से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ेगा. जो मिडिल क्लास इस बात से संतुष्ट है कि मिडिल क्लास के कैपिटल शहर गुरुग्राम में लोग मुसलमानों को नमाज़ पढ़ने से इस तरह रोक रहे हैं वह इस बात से क्यों असंतुष्ट होगा कि सरकार बैंकों का निजीकरण कर रही है? dear bankers, do you get my point.
Rani Sahu
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