सम्पादकीय

नॉन वेज ठेलों पर पाबंदी: क्या ये फूड डेमोक्रेसी को कंट्रोल करने की शुरुआत है?

Rani Sahu
17 Nov 2021 9:37 AM GMT
नॉन वेज ठेलों पर पाबंदी: क्या ये फूड डेमोक्रेसी को कंट्रोल करने की शुरुआत है?
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लोगों की नजरों से नॉन वेज ठेलों को हटा कर उनकी फूड हैबिट को नियंत्रित करने की कोशिश करने वाले गुजरात के चौथे शहर अहमदाबाद से आने वाली ये खबर बेहद निंदनीय है

अजय झा लोगों की नजरों से नॉन वेज ठेलों को हटा कर उनकी फूड हैबिट को नियंत्रित करने की कोशिश करने वाले गुजरात के चौथे शहर अहमदाबाद से आने वाली ये खबर बेहद निंदनीय है. इससे प्रश्न ये भी उठता है कि क्या भारत में हम प्रजातंत्र को नियंत्रित किए जाने की दिशा में बढ़ रहे हैं? नियंत्रित या निर्देशित लोकतंत्र कोई नई अवधारणा नहीं है. मगर अब खुद को जनता का सेवक की जगह मालिक मानने वाले निर्वाचित प्रतिनिधि भारतीयों को इसके छोटे-छोटे डोज देने लगे हैं.

नियंत्रित लोकतंत्र का मतलब सत्तावादी या निरंकुश सरकार का चुनाव है. इस प्रणाली ने भले ही कुछ छोटे या कपटी राष्ट्रों की मदद की हो, लेकिन भारत जैसे परिपक्व लोकतंत्र के लिए यह अवांछनीय है. 2014 में केंद्र में बीजेपी की जीत को कई हिंदू कट्टरपंथियों ने भारतीय समाज के भगवाकरण की अनुमति के रूप में लिया. उन लोगों ने युवा जोड़ों को वैलेंटाइन डे मनाने से रोकने और बीफ की खरीद-बिक्री रोकने जैसे कदमों से शुरुआत की. साथ ही इसे ऐसा गंभीर अपराध माना जिसमें लिंचिंग तक किया जाने लगा. उत्तर प्रदेश सरकार ने कुछ महीने पहले ही मथुरा, वृंदावन और बरसाना वाले बृज क्षेत्र में शराब और मांसाहारी भोजन के सेवन पर प्रतिबंध लगाने का विकल्प चुना है. अब गुजरात में नगर निकायों के कुछ निर्वाचित प्रतिनिधियों ने मांसाहारी भोजन को लोगों की नजरों से दूर रख कर बेचने का फरमान जारी किया है.
महात्मा गांधी की हत्या के बाद पहली शुरुआत बॉम्बे राज्य ने की
भारत में नियंत्रित लोकतंत्र की कोशिश आजादी के तुरंत बाद से ही शुरू हो गई थी जब चुनी हुई सरकारों ने ये तय करना शुरू कर दिया कि लोग क्या खाएं या पीएं. इसकी पहल बॉम्बे राज्य ने की. महात्मा गांधी की गोली मार कर हत्या किये जाने के तुरंत बाद बॉम्बे के कांग्रेस नेता और मुख्यमंत्री बी जी खेर ने उन्हें राज्य पुत्र मानते हुए पूरे राज्य में शराबबंदी की घोषणा कर दी. उन दिनों बॉम्बे राज्य में वर्तमान महाराष्ट्र और गुजरात दोनों शामिल थे.
यह सच है कि महात्मा गांधी शराब, मांसाहारी भोजन और तंबाकू जैसी बुराइयों के खिलाफ थे. उन्होंने अपने निजी जीवन में इसका पालन किया मगर कभी अपनी इच्छा दूसरों पर नहीं थोपी. अगर वो अपनी इच्छा दूसरों पर थोपते तो उनके सबसे करीबी राजनेता जवाहरलाल नेहरू को शराब या सिगरेट पीते नहीं देखा जाता. उसी वक्त कई राज्यों ने आंशिक सफलता और विफलता के साथ शराबबंदी की कोशिश शुरू की. इस वक्त भारत के पांच राज्यों में शराबबंदी है. इनमें बिहार भी शामिल है जहां से आये दिन जहरीली शराब पीने से लोगों की मौत की खबर आती है. हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बहुल इलाकों में खाप पंचायतों के जींस पर प्रतिबंध लगाकर लड़कियों के लिए ड्रेस कोड तय करने के मामले सामने आते रहे हैं. उनका तर्क हास्यास्पद है कि जींस और टी-शर्ट में लड़की शोहदों को अपना यौन उत्पीड़न या बलात्कार करने के लिए आमंत्रित करती हैं.
सरकारें गौवंश की रक्षा के नाम पर किसी की पीट कर हत्या की स्वीकृति नहीं दे सकतीं लेकिन नॉन वेज ठेलों को लोगों की नजर से बचा कर लगाने वाले निर्णय पर गुजरात सरकार को ये साफ करना चाहिए कि इसके लिए उसकी स्वीकृति नहीं है. मगर सच्चाई यही है कि बहुसंख्यकों की आस्था के नाम पर ये बीमारी तेजी से फैल रही है.
हमारा समाज पीछे लौटने की दिशा पकड़ चुका है?
सवाल उठता है कि भारत आगे बढ़ रहा है या हमारा समाज पीछे लौटने की दिशा पकड़ चुका है? ये निर्णय किसने लिया कि आदिम भारतीय उस वक्त दूसरे देशों में मौजूद लोगों से अलग थे और खाने के लिए शिकार नहीं करते थे या ताड़ के पेड़ से निकलने वाले मादक पदार्थ का सेवन नहीं करते थे? यही बात भांग और गांजा जैसे प्राकृतिक उत्पादों पर भी लागू होती है. मांसाहारी भोजन या किसी प्रकार के नशीले पदार्थों का सेवन भारतीय परंपरा का हिस्सा रहा है. ऐसी चीजों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश और लोगों के खाने-पीने जैसी जरूरतों को नियंत्रित करने का प्रयास निश्चित रूप से कानून की अवमानना है.
सरकार का काम शासन करना है किसी के निजी जीवन में दखल का नहीं, जब तक कि वे दूसरों के लिए परेशानी का सबब न बन जाएं. शराब पीने पर प्रतिबंध न लगाया जाए लेकिन सार्वजनिक स्थानों पर शराब का सेवन करना या शराब पीकर झगड़ा करने पर दंड दिया जाना चाहिए. हालांकि अकसर तर्कसंगतता शासक वर्ग के पास नहीं होती. वोट लेने के लिए अंधे होकर वे इस तरह के लोकलुभावन निर्णय लेते हैं जो अक्सर उनकी शासन में कमी को भी छुपाने के काम आता है.
दुर्भाग्य से स्थिति इतनी गंभीर हो गई है कि बीफ खाने पर प्रतिबंध लगाने की मांग पर अंडा और मछली खाने पर भी प्रतिबंध लगाया जा रहा है. स्थिति धीरे-धीरे एक खतरनाक रूप लेती जा रही है जिसे एक सामाजिक बुराई का रूप लेने से पहले ठीक करने की आवश्यकता है. चूंकि भारत में हम प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए जीते और मरते हैं, सबसे बेहतर समाधान दूसरों पर अपनी आस्था नहीं थोपने का है. अब समय आ गया है कि नॉन वेज ठेले लोगों की नजरों के सामने रहे या दूर इस तरह के प्रश्नों के जवाब सरकारें लोगों से राय-मशविरा कर तय करें न कि खुद ही वादी, वकील और न्यायाधीश बन कर.
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