सम्पादकीय

बघेल : पिता के लिए भी कानून

Subhi
7 Sep 2021 3:37 AM GMT
बघेल : पिता के लिए भी कानून
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आज की आपा-धापी और घनघोर निजी स्वार्थों की राजनीति में जब कहीं किसी कोने से निःस्वार्थ और न्याय के प्रति समर्पित और लोक कल्याण की मर्यादा को निजी प्रतिष्ठा के ऊपर बलिदान करने की आवाज सुनाई पड़ती है

आदित्य नारायण चोपड़ा: आज की आपा-धापी और घनघोर निजी स्वार्थों की राजनीति में जब कहीं किसी कोने से निःस्वार्थ और न्याय के प्रति समर्पित और लोक कल्याण की मर्यादा को निजी प्रतिष्ठा के ऊपर बलिदान करने की आवाज सुनाई पड़ती है तो ऐसा आभास होता है कि कहीं भीषण गर्मी की चलती लहर के बीच ठंढी हवा का झोंका पूरे तन में ताजगी भर कर चला गया है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री श्री भूपेश बघेल ने जिस तरह अपने पिता के ब्राह्मण समुदाय के बारे में दिये गये वक्तव्य से मतभेद प्रकट करते हुए उनके खिलाफ छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा दायर एफआईआर पर यह टिप्पणी की है ​कि वह अपने पिता के साथ किसी प्रकार की रियायत नहीं कर सकते हैं और कानून सबके लिए बराबर है, सिद्ध करता है कि भारत में अभी भी स्वतन्त्रता से पूर्व काल की शुचिता व सदाकत से भरी राजनीति के जागृत अवशेष बाकी हैं। राज्य की राजधानी रायपुर की डीडी नगर पुलिस ने विगत शनिवार की रात्रि को श्री बघेल के 86 वर्षीय पिता श्री नन्द कुमार बघेल के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 153(ए) और 505(1)(बी) के तहत विभिन्न समुदायों के बीच दुश्मनी व रंजिश पैदा करने व सामाजिक एवं सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने व खौफ पैदा करने के आरोप में मुकदमा दायर किया है। सर्व ब्राह्मण समाज द्वारा की गई शिकायत में कहा गया है कि श्री नन्द कुमार ने हाल ही में ब्राह्मणों को 'विदेशी' बताते हुए उनका बहिष्कार करने की अपील की और लोगों से उन्हें गांव में न घुसने देने का आह्वान किया। नन्द कुमार जी पर पहले भी भगवान राम के बारे में अपशब्द कहे जाने की बात एफआईआर में लिखी गई है। श्री नन्द कुमार का सम्बन्ध किसी भी राजनैतिक दल से नहीं है मगर वह खुद को पिछड़े वर्गों (ओबीसी) का नेता बताते हैं और खुद को इस वर्ग तथा किसानों की आवाज बुलन्द करने वाला सिपाही कहते हैं। वह कथित सवर्ण जातियों के खिलाफ भी पूर्व में बोलते रहे हैं। श्री नन्द कुमार ने एक पुस्तक 'ब्राह्मण कुमार रावण को मत मारो' भी लिखी है जिस पर राज्य की पिछली कांग्रेस सरकार ने ही 2001 में प्रतिबन्ध लगा दिया था। श्री नन्द कुमार इस बात के लिए भी चर्चा में रहे हैं कि वह अपने पुत्र मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल की नीतियों की कड़ी आलोचना करने से भी नहीं चूके। इसके समानान्तर श्री बघेल ने पहले भी अपने पिता के बयानों पर माफी मांगी। श्री नन्द कुमार दशहरे के अवसर पर रावण का पुतला फूंकने के खिलाफ भी मुहीम चलाते रहे हैं और कथित सवर्ण जातियों के नेताओं की भी कटु आलोचना करते रहे हैं परन्तु वर्तमान सन्दर्भ में मुख्यमन्त्री ने जिस तरह अपने पिता के खिलाफ मुकदमे से यह कह कर अपना पल्ला झाड़ा है कि कानून सबके लिए बराबर है और उनके अपने पिता के साथ विचारों मे मतैक्य नहीं है, वह स्वतन्त्र भारत में राजनीति के उज्ज्वल पक्ष को उजागर करता है। मुख्यमन्त्री का यह कहना कि कानून से ऊपर कोई नहीं है, वर्तमान राजनीति में भारतीय लोकतान्त्रिक प्रणाली की प्रतिष्ठा को निष्पक्ष रूप में प्रतिष्ठापित करता है और निर्देशित करता है कि सार्वजनिक जीवन में संविधान की कसम लेकर बैठे हुए नेता के समक्ष किसी गरीब या रईस व्यक्ति के बाप और अपने बाप में कोई अन्तर नहीं होता है।एक मुख्यमन्त्री के रूप में श्री भूपेश बघेल का कर्त्तव्य बनता है कि उनकी नजर में सभी धर्मों व समुदायों की एक समान इज्जत हो। अतः मुख्यमन्त्री का यह कहना बहुत महत्व रखता है कि उनके पिता द्वारा किसी एक समुदाय के लोगों के विरुद्ध की गई टिप्पणियां सामाजिक एकता व भाईचारे के लिए खतरनाक हैं। वास्तव में यह एक मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल का बयान है न कि किसी बेटे का। श्री नन्द कुमार घर में मुख्यमन्त्री के पिता हो सकते हैं मगर वैधानिक दृष्टि से एक मुख्यमन्त्री के लिए वह मात्र एक नागरिक ही हैं। यह सन्देश श्री भूपेश बघेल ने सभी राजनैतिज्ञों को दिया है। आजकल हर पार्टी के भीतर जिस तरह परिवारवाद का बोलबाला है उसे देखते हुए किसी राजनीतिज्ञ द्वारा अपनाया गया यह रुख उन राजनेताओं पर लानत भेजता है जो किसी पद पर पहुंचते ही सबसे पहले अपने परिवार के हित के बारे में सोचते हैं। मगर हमें ध्यान रखना चाहिए कि वंशवाद और परिवारवाद में अन्तर होता है। संपादकीय :ग्लैमर में छिपे स्याह चेहरेअसम में शांति की ओर बड़ा कदमडेंगू से मृत्यु का असली कारण?किस ओर ले जा रहा है फिटनेस और स्ट्रैस का जुनून?तालिबान सरकार और भारतजजों की नियुक्तियां समय की जरूरतलोकतन्त्र में वंशवाद को आम जनता जब मान्यता देती है तो वह उस वंश की प्रतिष्ठा और राष्ट्र के प्रति समर्पण को सर्वोपरि मानती है, जबकि परिवारवाद में राजनैतिक स्वयं अपने परिवार के सदस्यों को लाभार्थी बनाता है। इस सन्दर्भ में स्वतन्त्र भारत की राजनीति में अभी तक स्व. चौधरी चरण सिंह की पाक-साफ और निःस्वार्थ सियासत का दूसरा उदाहरण सामने नहीं आ सका है जब 1984 में लोकसभा चुनावों के दौरान उत्तर प्रदेश के मैनपुरी शहर में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने अपने पुत्र स्व. अजित सिंह को राजनीति में आने के अयोग्य ठहराया था और कहा था कि अजित सिंह एक कम्प्यूटर इंजीनियर होने के नाते इस देश के दलितों, किसानों व मजदूरों की समस्याओं को नहीं समझ सकता। इन चुनावों से पहले चौधरी साहब ने अपनी लोकदल पार्टी के स्थान पर 'दलित-मजदूर- किसान पार्टी' का गठन किया था। कहने का मतलब यह है कि भारत की राजनीति में सब कुछ ही 'ढेर' कभी नहीं हुआ है। समय-समय पर कुछ 'शेर' एेसी दहाड़ मारते रहे हैं जिससे पर्यावरण पूरी तरह अशुद्ध न हो सके। एेसा ही पं. नेहरू ने अपने दामाद फीरोज गांधी द्वारा उनकी सरकार के वित्तमन्त्री टीटी कृष्णमचारी पर लगाये गये भ्रष्टाचार के आरोप के दौरान किया था और कृष्णमचारी से तुरन्त इस्तीफा ले लिया था। 1996 में श्री एच.डी. देवगौड़ा ने भी प्रधानमन्त्री बनने के बाद अपने केबिनेट सचिव को बुला कर अपने पुत्रों की करतूतों से सावधान रहने की सलाह दी थी।


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