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- बिगड़े नौकरशाह
Written by जनसत्ता; हाल ही में एक घटना सामने आई कि एक आइएएस दंपति दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम को इसलिए खाली करवा देते थे, ताकि उनका कुत्ता और वे वहां शांति के साथ टहल सकें। वहां अभ्यास कर रहे खिलाड़ियों को स्टेडियम से बाहर कर दिया जाता था। यह घटना साबित करती है कि देश की नौकरशाही में सत्ता की कितनी हनक है कि किस तरीके से, जिन्हें हम लोकसेवक कहते हैं, वे अपनी शक्ति का किस हद तक दुरुपयोग कर सकते हैं। हालांकि इस दंपति का तबादला अलग-अलग जगहों पर कर दिया गया, लेकिन हमें एक सवाल यह सोचने पर विवश करता है कि इस मानसिकता के अधिकारियों को लद्दाख और अरुणाचल के लोग बर्दाश्त क्यों करें। क्या इनके लिए सजा का कोई और विकल्प नहीं था?
यह नौकरशाही के खराब व्यवहार का पहला मामला नहीं है। देश में ऐसे कई मामले सामने आते रहे हैं, जिनमें नौकरशाहों ने राष्ट्र को बड़ा नुकसान पहुंचाया है। हाल ही में झारखंड में पूजा सिंघल के यहां अकूत संपत्ति पाई गई। यह पैसा किसी और का नहीं, बल्कि आम जनता का है, जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, सड़क किनारे दुकान लगाते हैं, आटो चलाते हैं, हम और आप कर देते हैं। इसलिए समय आ गया है कि देश की नौकरशाही में व्यापक स्तर पर बदलाव किए जाएं और एक बार फिर सकारात्मक मूल्यांकन किया जाए।
हमारे देश के लोकसेवकों के इस व्यवहार के पीछे कुछ कारण जिम्मेदार हैं। पहला कारण है अत्यधिक संरक्षण। उच्च पदस्थ अधिकारियों के खिलाफ कार्यवाही करना बेहद जटिल है। दूसरा कारण है शक्ति का केंद्रीकरण। तीसरा कारण है जवाबदेही और पारदर्शिता का अभाव। उच्च श्रेणी के अधिकारी जवाबदेह तो हैं, लेकिन जनता के प्रति नहीं, बल्कि राजनीतिक आकाओं के।
चौथा कारण है परंपरागत चयन प्रक्रिया। पांचवा कारण है पदोन्नति की पद्धति। हमारे यहां सरकारी अधिकारियों के प्रमोशन आज भी काम को देखकर कम, बल्कि उसकी पहुंच या उम्र के पैमाने को पूर्ण कर लेने से ज्यादा किए जाते हैं। समय की मांग है कि सरकार इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाए जैसे इन पर कार्रवाई के लिए एक अलग तंत्र विकसित करे। इसके साथ ही इनके चयन से लेकर पदोन्नति तक की व्यवस्था में कुछ जरूरी मूलभूत सुधार किए जाएं।
पिछले कुछ समय से हमारे आसपास हर दिन दिखाई पड़ने वाले मुसलिम भाई सहमे, सिमटे और परेशान-से लग रहे हैं। ऐसा लगता है जैसे कोई दुविधा उन्हें भीतर से कमजोर और मजबूर होने का अहसास करा रही हो। अपने मन की बात वे किसी से कह नहीं पा रहे। उनके निस्तेज चेहरों की बोझिल-सी मुस्कान बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती है। इन लोगों में अधिकांश युवा और किशोर हैं, जो नगर निगम की ओर से गीला-सूखा कचरा बटोरने के लिए कालोनियों में आते हैं और घर के मालिकों द्वारा कूड़ेदानों में बेपरवाही से ठूंसी गंदगी को कचरा गाड़ियों में अपने हाथों से अलग-अलग करके ढो ले जाते हैं।
दरअसल, उन बच्चों के चेहरों पर छाई मायूसी के कारण अलग हैं। उनके मन पर देश में बने माहौल का असर न हो, यह कैसे संभव है? आज से नौ-दस बरस पहले के उस शालीन, हंसमुख चेहरे वाले नौजवान की याद आती है, जो सेरीब्रल पाल्सी से पीड़ित मेरी दिवंगत बिटिया के बाल काटते समय उसके हिंसक प्रहारों को 'कोई बात नहीं' कह कर टालते हुए मुस्कुरा दिया करता था। एक दिन मैंने उससे कहा कि मस्जिद से सुनाई पड़ने वाली अजान की आवाज मुझे इतना सुकून देती है कि मैं काम छोड़ कर उसे तन्मयता से सुनने लगती हंू, तो वह हंस कर बोला, आंटी जी कभी-कभी आवाज मेरी भी होती है। अब भी वह कभी-कभी सैलून के बाहर खड़ा दीख जाता है, पर खोया-खोया सा।
इधर देश के कुछ हिस्सों में बहुसंख्यकों की सोच में एक अभूतपूर्व बदलाव देखने में आया है। अचानक देशभक्ति हिलोरें मारने लगी है। हमारे शक्तिमान लोग बुलडोजर के कमाल दिखाने लगे हैं। एक सरल-सा सवाल हमारे अल्पसंख्यक भाइयोें को परेशान तो अवश्य करता होगा कि आखिर उनका क्या कसूर है?