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- कृषि कानून पर "बैकफुट"...
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ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अचानक तीनों कृषि सुधार कानून वापस लेने का निर्णय करना पड़ा
निशिकांत ठाकुर ऐसा क्या हो गया कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अचानक तीनों कृषि सुधार कानून वापस लेने का निर्णय करना पड़ा? निश्चित रूप से उन्होंने माहौल को भांपने के लिए किसी एजेंसी का सहारा लिया होगा और उसके नेगेटिव फीडबैक ने उन्हें उनके इस कदम पर चौंकाया होगा कि उन्हें इन तीनो कृषि सुधार कानून को वापस लेने पर मजबूर होना पड़ा होगा। नेगेटिव फीडबैक भी ऐसा—वैसा नहीं, बल्कि कई राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में करारी हार के साथ सत्ता से बेदखल होने का होगा। तभी खुद चौंकने के साथ उन्होंने 'जनहित' में यह 'कल्याणकारी' निर्णय लेकर लोगों को चौंकाया है। पिछले दिनों मैंने अपने एक लेख में इन तीनों कृषि सुधार कानूनों के गुण—दोषों पर अपनी समझ के अनुसार पाठको के सामने एक विचार पेश किया था, लेकिन इस पर बड़ी असहनीय प्रतिक्रियाएं आईं।
मेरे लेख का लब्बो-लुआब महज इतना था कि इस कानून को बनाते समय किसान हित की उपेक्षा इसलिए की गई, क्योंकि कानून बनानेवालों में से कोई किसान या किसानों का हितचिंतक नहीं था। इसलिए वातानुकूलित कमरे में बैठकर जिन लोगों ने इन कानूनों को बनाया, वह अन्नदाताओं को इसलिए भी मान्य नहीं है। इसके बाद किसानों के साथ कृषि मंत्री की 11 दौर की जो बैठकें हुई, वह भी इसलिए बेनतीजा रही, क्योंकि जिन मंत्रियों ने उन बैठकों मे सरकार की ओर से भाग लिया, उनका खेती—किसानी से दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। ऐसे में वे वही चीज रटते रहे जो उन्हें उनके 'सर' ने रटवाया था और नए कृषि कानून की किताब में जो बातें कही गई थीं, उसी पटरी पर चलते रहे। सरकार को कुछ लोगों ने बरगलाया और उसे इस मुगालते में डाल दिया कि धरना—प्रदर्शन में बैठे लोग किसान नहीं, बल्कि पाकिस्तान समर्थक, आतंकवादी, दलाल और भी न जाने कितने अलंकरणों विभूषित तथाकथित 'कुख्यात'लोग हैं।
सरकार को बार—बार बतााने की कोशिश की गई कि किसान वह होते हैं, जो मैले—कुचैले रहकर खेतों में काम करते हैं, जो मोटी रोटियां – नमक और कच्चा प्याज खाकर खेत में बैठकर अपने फसलों की रक्षा करते हैं। इसलिए दिल्ली की सरहदों पर तंबुओं में डेरा जमाए, पिज्जा—बर्गर खाने वाले किसान नहीं, बल्कि देशद्रोही हैं। फिलहाल विवादास्पद इस कृषि कानून को रद्द करने का विधेयक लोकसभा में सूचीबद्ध कर लिया गया है और इस बात की पूरी संभावना है कि 29 नवंबर से शुरु होने वाले संसद सत्र के पहले ही दिन यह विधेयक पेश किया जाए ।
अपने 700 साथियों की शहादत देकर भी किसान शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन अंदर से सुलगती उनकी ज्वाला शांत नहीं हुई थी कि लखीमपुर खीरी प्रकरण ने उसमें घी का काम कर दिया। देश के गृह राज्यमंत्री का बेटा तीन अक्टूबर को शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन कर रहे किसानों पर अपनी गाड़ी चढ़ाकर चार प्रदर्शकारियों की जान ले ली। उसके बाद दुर्घटना से उत्तेजित किसानों ने चार और लोगों को पीट—पीट कर मार डाला जिनमे एक स्थानीय पत्रकार भी शामिल था। आज गृह राज्यमंत्री का बेटा एवं हादसे का मुख्य आरोपी जेल में बंद रहकर अपनी जमानत का इंतजार कर रहा है। इससे विपक्षी दलों को बिन मांगे सियासत करने अवसर मिल गया। प्रमुख विपक्षी दल में कांग्रेस की प्रियंका गांधी और सपा के अखिलेश यादव ने किसानों की भावनाओं को कुरेदना शुरू कर दिया। जब तक हिंसा की आग ठंडी नहीं हुई, विपक्ष के नेताओं के दौरे होते रहे।
प्रियंका गांधी ने पीड़ित किसानों के परिवार से मुलाकात की। वहीं, भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को भी नया मुद्दा मिल गया। अखिलेश यादव संवेदनाओं के आधार पर योगी आदित्यनाथ सरकार को घेरते रहे। इसके बाद यूपी का कोई भी मुद्दा हो, जैसे आगरा में सफाईकर्मी की मौत, ललितपुर में खाद की लाइन में लगे किसान का मरना, सभी मुद्दों पर विपक्ष हावी होता दिखाई दिया। लखीमपुर खीरी में मंत्री के बेटे की जीप से कुचलने पर किसानों की मौत के बाद हिंसा भड़क उठी। सरकार के खिलाफ आवाज बुलंद होने लगी। किसानों की नाराजगी और बढ़ गई, इससे सरकार सोचने पर मजबूर हो गई। प्रियंका गांधी लगातार सरकार पर हमलावर रहीं। यहां तक कि उन्होंने अमित शाह के साथ केंद्रीय गृह राज्यमंत्री की फोटो तक शेयर की फिर क्या था इसके बाद सरकार ने डैमेज कंट्रोल शुरू कर दिया।
योगी सरकार भी किसी तरह लखीमपुर खीरी हिंसा मामले में डैमेज कंट्रोल करने में जुटी थी। इसके लिए बाकायदा जांच होने लगी, लेकिन इसमें देरी हो रही थी। विपक्ष इसे मंत्री के बेटे को बचाने से जोड़कर देखने लगा। लगातार हो रही देरी और पीड़ित किसान परिवारों की पीड़ा को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश के योगी सरकार को कड़ी फटकार लगाई। कहा, कि सब कुछ हम करेंगे तो आप क्या करेंगे। साथ ही एसआईटी की जांच के लिए एक रिटायर्ड जज की नियुक्ति कर दी गई। इससे सरकार असहज हुई। भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत के आंसुओं ने किसान आंदोलन को और उग्र कर दिया।
दरअसल, 26 जनवरी 2021 तक किसान आंदोलन का असर पश्चिम उत्तर प्रदेश में कुछ खास नहीं दिख रहा था। लाल किले पर कुछ सिख युवकों की ओर से की गई चढ़ाई, यानी ध्वज बदलने वाली घटना ने पूरे आंदोलन को कमजोर कर दिया था। इसके बाद यूपी के गाजीपुर बॉर्डर पर धरने पर बैठे किसान नेता राकेश टिकैत को जब यूपी पुलिस ने हटाने की कोशिश की तो माहौल बदलना शुरू हो गया। राकेश टिकैत के आंसुओं ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों को हिला दिया, उन पर गहरा असर डाला। जाट समुदाय के साथ हर वर्ग का किसान उनके साथ खड़ा हो गया। उत्तर प्रदेश में ज्वलंत मुद्दों को लगातार बढ़ता देख भाजपा संगठन की चिंताएं बढ़ती जा रहीं थीं। ऐसे में पिछले पच्चीस दिनों में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा, रक्षा मंत्री अमित शाह और खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूपी का दौरा कर यहां की नब्ज टटोली, जिसमें कहीं—न—कहीं जमीनी स्तर पर भाजपा कुछ कमजोर होती दिखाई दी।
इसके बाद ही लगातार योजनाओं का शुभारंभ, पुरानी योजनाओं का लोकार्पण कर माहौल बनाए जाने लगा। जब पूरी रिपोर्ट प्रधानमंत्री के हाथ आई तो उन्होंने यही उचित समझा कि सरकार से इस बिल में कुछ कमी रह गई है जिसके कारण फिर उन्होंने गुरुपूर्णिमा के दिन क्षमा मांगते हुए बिल को वापस करने की घोषणा की। उन्होंने बड़े भावुक मन, या यू कहिए कि अपने वास्तविक 'नाटकीय अंदाज' में मुरझाए चेहरे के साथ कहा कि उनकी तपस्या में शायद कोई कमी रह गई। सच तो यही है कि उनकी तपस्या में कोई कमी नहीं रही, लेकिन हां जिन लोगों ने उनके सलाहकार की भूमिका निभाई थी, उन्होंने प्रधानमंत्री को गलत सलाह देकर राष्ट्र को उनके माध्यम से गुमराह करने का प्रयास किया और किसान आंदोलनकारियों द्वारा सात सौ किसानों की बलि चढ़ाकर तथा केंद्र और राज्य सरकारों की नाक में नकेल डालकर अपने एक वर्ष की तपस्या को पूरा कर लिया।
जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने भूल के लिए अपने खुले हृदय से राष्ट्र से क्षमा मांगी है, उसके बाद सच में देश का माहौल बदलेगा। प्रधानमंत्री ने अपनी सदाशयता में राष्ट्र से क्षमा मांगकर अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय तो दिया ही है, लेकिन उनके नाम का मुखौटा लगाकर उनके पीछे घात लगाने वाले अब भी इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं। उन्होंने एक ऐसा माहौल बना दिया है जिससे लोग आपस मे ही लड़ने लगे हैं। हर कोई अपना अपना तर्क देकर एक अलग ही पहचान बनाने में जुटे हैं। कुछ ऐसे समर्थक भी हैं जो आज भी इस बात को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि उनकी गलत सलाह के कारण राष्ट्र का कितना बड़ा नुकसान हो चुका है और आगे भी होने जा रहा था। ऐसे लोग वही होते हैं जो केवल अपना हित देखते हैं। राष्ट्र हित से उनका कोई लेना—देना नहीं होता। कुछ लोगों का कहना है कि प्रधानमंत्री ने पांच राज्यों में होने वाले अगले साल के विधानसभा चुनावों में अपनी हार और गिरती छवि को बचाने का मास्टर स्टोक मारा है।
कुछ विचारकों का यह भी कहना है कि प्रधानमंत्री ने एक हाथ से तीन कृषि सुधार कानून को वापस लेने का जो तरीका खोजा है, वह इससे सुंदर और क्या हो सकता है, क्योंकि इसके बदले में वह दूसरे हाथ से क्या चीज जनता से छीन लेंगे, कोई नहीं जानता। जो भी हो, किसान अभी भी धरने पर बैठे हैं और इस शर्त पर डटे हैं कि संसद के दोनों सदनों से यह कानून जब तक वापस नहीं होगा, उनका विरोध जारी रहेगा। उनकी मांग यह भी है कि एमएसपी पर कानून बने। फिलहाल अभी तो आमजन को दोनों स्थिति को देखना है- पहला यह कि आगामी संसद सत्र में इस कानून को दोनों सदनों से पास कराकर इसे रद्द कब और कैसे किया जाता है और दूसरा आगामी विधानसभा चुनाव पर इसका प्रभाव क्या पड़ता है। बस, थोड़ा इंतजार कीजिए। दूध का दूध और पानी का पानी, जनता खुद कर देगी।
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