सम्पादकीय

बाबा साहेब की विरासत

Rani Sahu
8 April 2022 7:09 PM GMT
बाबा साहेब की विरासत
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हर वर्ष 14 अप्रैल को देशभर में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिवस जोश-ओ-खरोश के साथ मनाया जाता है

हर वर्ष 14 अप्रैल को देशभर में बाबा साहब भीमराव अंबेडकर का जन्मदिवस जोश-ओ-खरोश के साथ मनाया जाता है। यह एक महत्वपूर्ण अवसर है जब हम डा. अंबेडकर की विरासत को समझने का प्रयास करें, ताकि एक शोषणविहीन समाज बनाने के उनके मिशन को समझा जा सके और आधुनिक समाज की दिशा में आगे बढ़ते हुए जाति के नाम पर हो रहे भेदभाव को तार्किक तरीके से समाप्त किए जाने हेतु काम को आगे बढ़ाया जा सके। यह इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इस महादेश में तमाम राजनीतिक दल डा. अंबेडकर का गुणगान करने में लगे हुए हैं, लेकिन उनके सर्वोच्च मिशन, जन्म के आधार पर मनुष्यों के मध्य हो रहे भेदभाव को लेकर कोई सकारात्मक पहल करने से बचते रहे हैं। डा. अंबेडकर के बारे में सबसे दुखद बात है कि आमतौर पर उन्हें दलितों और कई बार तो एक खास जातीय समूह का नेता स्वीकार कर लिया जाता है। मजे की बात यह है कि यह केवल उनके विरोधियों की ओर से ही नहीं किया जाता, बल्कि समर्थकों ने भी उनके दायरे को संकुचित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। एक ओर तो उनके विरोधी उनके बारे में 'नकली भगवान की पूजा' जैसी लेखमाला लिखते हैं और दूसरी ओर उनके तथाकथित अनुयायी उनको अपनी जाति के भगवान के तौर पर प्रस्तुत करते हैं।

इन दोनों तरह की प्रवृत्तियों के चलते इस महामानव के व्यक्तित्व का अवमूल्यन ही होता है। वास्तविकता तो यह है कि डा. अंबेडकर किसी एक जातीय समूह की बजाय पूरे मानव समाज की बेहतरी के लिए प्रयासरत थे। उनके द्वारा संपादित भारतीय संविधान का मसौदा तमाम नव-स्वाधीन देशों में लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को अंगीकार करने की दिशा में एक मिसाल बना है। जाति व्यवस्था को लेकर किया गया उनका काम भी एकांगी नहीं था, बल्कि वह तो सवर्ण और दलित दोनों को मानवीय गरिमा उपलब्ध कराने की दिशा में उठाया गया एक ऐतिहासिक कदम था। किसी भी प्रकार का शोषण शोषित-पीडि़त को तो मानवीय गरिमा से पदच्युत करता ही है, परंतु शोषण की हरकत को अंजाम देते समय स्वयं शोषक भी अपनी स्वाभाविक मानवीय वृत्ति से विचलित होता है। इस मामले में डा. अंबेडकर के दर्शन की तुलना मार्क्स के दर्शन से ही की जा सकती है, जहां वे मालिक और मजदूर दोनों को ही जीवन व विकास के समान अवसर उपलब्ध कराने की बात करते हैं। हमें यह समझने की आवश्यकता है कि जब डा. अंबेडकर के नेतृत्व में 'महाड सत्याग्रह' किया गया, तब उस अवसर पर एक घोषणा पत्र भी जारी किया गया था जो उस वक्त के सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज था।
इस अवसर पर आयोजित सम्मेलन में पारित प्रस्ताव बताते हैं कि डा. अंबेडकर अपने समय के महत्वपूर्ण मुद्दों से किस प्रकार निपट रहे थे। सम्मेलन में अनिवार्य शिक्षा के कानून की मांग को लेकर प्रस्ताव पारित किया गया। इसी प्रकार समाज के वंचित वर्गों को जंगल की जमीन पर खेती करने के अधिकार-पत्र देने की भी मांग की गई। विवाह की न्यूनतम आयु तय करने, बाल विवाह पर रोक लगाने, शराबबंदी और मृत जानवरों के मांस खाने पर पाबंदी लगाने की भी मांग की गई। उपरोक्त मांगों के आधुनिक चरित्र को हम इसी उदाहरण से समझ सकते हैं कि इनमें से अधिकांश को तो हमारे संविधान में ही स्थान प्रदान किया गया और प्रथम दो को तो यूपीए सरकार में अधिकार का स्वरूप प्रदान किया गया। इस अवसर पर डा. अंबेडकर ने कहा था कि समानता के व्यवहार के बिना प्राकृतिक गुणों का विकास नहीं हो पाता, उसी तरह समानता के व्यवहार के बिना इन गुणों का सही इस्तेमाल भी नहीं हो पाता। इस अवसर पर यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि महाड सत्याग्रह के समय ही मनुस्मृति का दहन भी किया गया था। उल्लेखनीय बात यह है कि तत्संबंधी प्रस्ताव एक ब्राह्मण सामाजिक कार्यकर्ता सहस्त्रबुद्धे ने प्रस्तुत किया था, जिनके अनुसार सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक गुलामी को मजबूती देने वाली मनुस्मृति के श्लोकों को देखते हुए…ऐसे जनद्रोही और इनसान विरोधी ग्रंथ को हम आज आग के हवाले कर रहे हैं। इससे यह भी साफ होता है कि जाति व्यवस्था के खिलाफ गुस्सा उस समय भी सिर्फ दलितों में ही नहीं था, बल्कि तार्किक ढंग से समाज व्यवस्था को समझने वाले अन्य लोग भी सामाजिक असमानता के खिलाफ मुखर हो रहे थे। हम यह भी देखते हैं कि जातिवाद के खिलाफ लड़ाई में डा. अंबेडकर और उनके साथी अकेले नहीं थे, बल्कि पंजाब में आर्यसमाज ने, बाकी मुद्दों पर बाद में चाहे जिस प्रकार से कदम बढाए हों पर, बीसवीं सदी के आरंभ में जातिवाद के खिलाफ एक मुहिम का सूत्रपात तो किया ही।
स्वयं गांधीजी ने जाति को मानव समाज पर कलंक बताते हुए इस अत्याचार के खिलाफ संघर्ष को अपने जीवन का बड़ा लक्ष्य घोषित किया था। महाराष्ट्र में ही छत्रपति साहूजी महाराज एवं ज्योतिबा फुले तथा दक्षिण में पेरियार के नेतृत्व में लंबी लड़ाइयां चलाई जा चुकी थीं। डा. अंबेडकर की भिन्नता विचार के स्तर पर है। बाकी सब जमीनी स्तर पर तो सक्रिय थे, पर बाबा साहेब ने मैदानी मुकाबले के साथ ही जाति व्यवस्था का सैद्धांतिक अध्ययन और समाधान प्रस्तुत किया था। उनके पूर्व कार्ल मार्क्स द्वारा शोषण के एक बेहद चर्चित रूप का अन्वेषण किया जा चुका था। उन्होंने कहा था कि अब तक के इतिहास में मानव समाज वर्गों में बंटा रहा है, एक वर्ग शोषक है तथा दूसरा शोषित। इनके आपसी मेल व संघर्ष से ही समाज आगे बढ़ता है। पूंजीवाद के संदर्भ में ये वर्ग पूंजीपति व सर्वहारा हैं। कई विचारकों ने यह कहने का प्रयास किया कि भारत में जाति ही वर्ग है। इस बात का आधार यह था कि सर्वहारा वर्ग में अधिकांश लोग दलित समुदाय से आते हैं, लेकिन डा. अंबेडकर इस मुद्दे पर अपनी अलग राय रखते थे। उनका कहना था कि दोनों की उत्पत्ति पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने कहा कि जातिप्रथा श्रम का नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। यही कारण है कि वे जातिप्रथा के उन्मूलन के लिए राजनीतिक-आर्थिक उपायों के साथ एक अनवरत सामाजिक अभियान चलाने पर जोर देते थे। वे डा. अंबेडकर ही थे जो कहते थे कि जाति के खिलाफ संघर्ष एकांगी ढंग से संचालित नहीं किया जा सकता, वरन शोषण के अन्य प्रकारों के खिलाफ भी अभियान चलाने होंगे, उन पर रोक लगानी होगी।
यही कारण था कि वे इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी की स्थापना करते हैं और कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मोर्चा बनाकर बंबई प्रांत में चल रही 'खोत' (एक तरह की जमींदारी) प्रथा के खिलाफ 25 हजार किसानों व खेत मजदूरों के प्रदर्शन का नेतृत्व करते हैं। इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी अपनी स्थापना के साथ ही तीन महत्वपूर्ण सिद्धांत प्रस्तुत करती है जो उसके राजनीतिक दर्शन को स्पष्ट करते हैं। इनमें से पहला यह है कि दुनिया की सारी संपत्ति किसान-मजदूरों की मेहनत का फल है। दूसरा सिद्धांत वर्ग संघर्ष का है। तीसरे के अनुसार किसान-मजदूरों के हितों की रक्षा तभी हो सकती है जब राजसत्ता उनके हाथों में आ जाए। इसी प्रकार 1938 में मनमाड में रेलवे मजदूरों की एक सभा को संबोधित करते हुए डा. अंबेडकर ने कहा था कि भारतीय मजदूरों के दो ही शत्रु हैं- ब्राम्हणवाद और पूंजीवाद। इसलिए उन्होंने आजादी की लड़ाई के साथ वर्ग की लड़ाई लड़ने का भी आह्वान किया था। दलितों और मजदूरों के साथ ही वे जिस वर्ग के साथ बहुत संवेदना के साथ खडे़ थे, वे थीं देश की स्त्रियां। पता नहीं, नारीवादी आंदोलन इस बात को कितना महत्व देते हैं, लेकिन ये अंबेडकर ही थे जिन्होंने हिंदू कोड बिल के सवाल पर कांग्रेस नेतृत्व के ढुलमुल रवैए के खिलाफ नेहरू केबिनेट से इस्तीफा दे दिया था। औरतों को संपत्ति में बराबरी का अधिकार देने वाले इस बिल का विरोध न केवल हिंदू सांप्रदायिक जमातें कर रही थीं, बल्कि स्वयं सत्ताधारी कांग्रेस में अधिकांश लोग इस ऐतिहासिक और प्रगतिशील कानून के खिलाफ थे। आज जब हम पलटकर डा. अंबेडकर की विरासत की ओर देखते हैं तो हमें अपनी जिम्मेदारियां नजर आती हैं।
सत्यम पांडेय
स्वतंत्र लेखक


Rani Sahu

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