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भारतीय हिंदी रंगमंच को देशज और लोक की खुश्बू से सराबोर करने वाले रंगऋषि बाबूकोडी वेंकटरण्मण कारंत (BV Karanth) के थिएटर में योगदान की बात करें तो पूरा महाकाव्य लिखा
शकील खान। भारतीय हिंदी रंगमंच को देशज और लोक की खुश्बू से सराबोर करने वाले रंगऋषि बाबूकोडी वेंकटरण्मण कारंत (BV Karanth) के थिएटर में योगदान की बात करें तो पूरा महाकाव्य लिखा जाए. पहले एनएसडी (नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा) में अध्ययन फिर वही निर्देशक बने कारंत ने पहले तो एनएसडी का पश्चिमी फ्लेवर बदला फिर भोपाल पहुंच कर भारत भवन और रंगमंडल को एक अलग पहचान मुहैया कराई. आज भी मुंबई फिल्म इंडस्ट्री (Bollywood) में एनएसडी के बाद अगर आज किसी कलाकार की बखत है तो वो रंगमंडल के कलाकार ही हैं. और उन्हें ये रूतबा कारंत की ही बदौलत प्राप्त है. तो आईए कारंत के शिष्यों की ज़ुबानी सुनते हैं उनके गुरू बाबा की कहानी.
बहुत संक्षेप में उनका परिचय. जन्म 19 सितंबर 1929 को तथा निधन 01 सितंबर 2002 को. रंगकर्मी, निर्देशक, अभिनेता, लेखक, फिल्म निर्देशक और संगीतकार. पद्मश्री, कालिदास सम्मान (मध्यप्रदेश), संगीत नाटक अकादेमी सम्मान, गुब्बी नारयण सम्मान (कर्नाटक) आदि सम्मान उनके खाते मे. 1976 में सर्वश्रेष्ठ फिल्म सम्मान और सर्वश्रेष्ठ फिल्म संगीत 1978 मे. उन्होंने अलग-अलग भाषाओं में थिएटर किया, लगभग पच्चीस. उनके शिष्यों आलोक चटर्जी, जयंत देशमुख, संजय मेहता और उमेश तरकसवार से उनके बारे में जानते हैं. चारों नाम थिएटर और फिल्म की दुनिया में जाने पहचाने हैं. वैसे उनके योग्य शिष्य पूरे भारत में फैले हुए हैं और अलग पहचान के साथ काम कर रहे हैं.
एनएसडी के गोल्ड मेडलिस्ट रहे आलोक इन दिनों मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय, भोपाल के निदेशक हैं. 'विश्व रंगमंच के परिप्रेक्ष्य में कारंतजी और उनका रंगकर्म' पर बात करते हुए आलोक कहते हैं 'वे न सिर्फ देशज बल्कि खांटी भारतीय रंगकर्मी थे. मेरे हिसाब से भारतीय रंगमंच की खोज के तीन सूत्रधार थे हबीब तनवीर, ब.व.कारंत और कावलम नारायण पणिक्कर मेरी नज़र में ये भारतीय रंगमंच के ब्रह्मा, विष्णु महेश थे. इसमें हबीब साहब को जो कांट्रीब्युशन है अंतर्राष्ट्रीय पटल पर है. उसमें उन्होंने छत्तीसगढ़ की जो नाचा शैली है उसमें विश्व के सभी प्रसिद्ध नाटकों को किया और वहीं के स्थानीय अभिनेताओं के साथ किया जो मूलत: आदिवासी, मजदूर और जनजातीय कलाकार थे.
कावलम नारायण पणिक्कर ने जो अंतर्राष्ट्रीय पटल पर थिएटर पहुंचाया उसके लिए उन्होंने भरत मुनि के नाट्य शास्त्र को आधार बनाया. सामवेद की नाट्य शास्त्र की शैली में संस्कृत के रूपकों का मंचन किया, जैसे शाकुंतलम्. बात कारंत जी की, तो मैं उन्हें ब्रह्मा, विष्णु महेश में महेश मानता हूं. इब्राहिम अलका जी के बाद कारंत एनएसडी के हेड बने तो वो पहले आदमी थे जिन्होंने दिल्ली में ये खोज करना शुरू की कि भारतीय रंगमंच क्या होता है ? भारतीय शैली का रंगमंच क्या होगा जो पश्चिमी शैली ओर दूसरी चीजों से मुक्त होगा. तो उन्होंने एनएसडी का डायरेक्टर बनने के तुरंत बाद विद्यासुंदर और अंधेर नगरी, भारतेंदू के दो नाटकों का मंचन किया, इसमें उन्होंने उत्तर भारत के लोक संगीत को आधार बनाया.
एनएसडी के लॉन में ही अंधेरनगरी खेला गया जिसमें अलग-अलग दूकानें लगाई गईं, मेला लगाया गया और उसके बीच में ग्रूप आता है और गाता है 'अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा'. इस प्रस्तुति से ऐसा लगा कि अलकाजी के वेस्टर्न से रूपांतरित होकर एनएसडी भारतीय हो गया.
इसके पहले जब कारंतजी एनएसडी पास करने के बाद दिल्ली में थे तब उन्होंने दिशांतर ग्रूप बनाया था, जिसमें ओम शिवपुरी, रामगोपाल बजाज, सुधा शिवपुरी, प्रेमाजी कारंतजी (मिसेसे कारंत) आदि थे. ये सब इसके फाउंडर मेंबर थे. ये हिंदी का पहला ऐसा नाट्य ग्रूप था जिसने मोहन राकेश के आधे-अधूरे के 99 शो किए. कारंतजी ने बताया था 'सौवां शो इसलिए नहीं किया क्योंकि 100 वीं प्रस्तुति से टैक्स लगना शुरू हो जाता है.' दिशांतर नाट्य ग्रूप की जगह नाट्य आंदोलन माना जाता था. इसका सबसे मेजर प्रोडक्शन जो भारतीय रंगमंच का नया सूत्रपात माना जाता है वो था, हिंदी में ह्यवदन. गिरीश कर्नार्ड का नाटक.
रोचक बात ये है कि इसका कन्नड़ प्रोडक्शन कारंत जी ने बाद में किया. पहले हिंदी में 1971 में किया. अनुवाद कारंतजी ने खुद किया. इसमें देवदत्त की भूमिका रामगोपाल बजाज और काली की भूमिका प्रेमाजी (प्रेमा कारंत) ने की. श्याम कामथ ने कपिल किया था. ह्यवदन का प्रदर्शन आस्ट्रेलिया में भी किया. कुछ परिवर्तन और प्रयोग के साथ मास्को में किया. उसके बाद श्रीलंका और ब्रिटेन में संस्कृत रूपकों के छोटे-छोटे वर्कशाप करवाए. इस तरह उन्होंने भारतीय रंगमंच का फैलाव विश्वपटल पर कर दिया. फिर अमेरिका गए और वहां एक महीने का लंबा वर्कशॉप किया और न्युयार्क में ग्रीक नाटक किया. उसके बाद वो फ्रांस गए जहां पेरिस में उन्होंने भारतीय रंगसंगीत पर तीन दिन की कार्यशाला की.
उन्होंने किलों के इतिहास पर लाइट एण्ड साउंड प्रोजेक्ट बनाए. जिसमें ग्वालियर का किला, अंडमान निकोबार का सेलुलर जैल है. इसके अलावा उन्होंने गांधी जी के वर्धा और साबरमती आश्रम पर भी प्रोग्राम बनाए. साबरमती आश्रम के लाइट एण्ड साउंड प्रोग्राम के अंग्रेजी वर्जन मे वाइस नसीरूद्दीन शाह की तथा हिंदी में आवाज़ ओमपुरी की थी.ग्वालियर फोर्ट में अमिताभ और जया बच्चन की आवाजें हैं. अंडमान फोर्ट में मनोहर सिंह की. उन्होंने सिनेमा में भी भारतीयता की गंध फैलाई. पहली फिल्म् डायरेक्ट की चौमुनागुडी, जो कान फिल्म फेस्टीवल में बेस्ट फिल्म और बेस्ट डायरेक्टर का अवार्ड लेकर आई. इस तरह पहली फिल्म से ही उन्होंने इंटरनेशनल डायरेक्टर का तमगा हासिल कर लिया. उन्होंने अनेक फिल्मों में संगीत भी दिया.
कारंत जी कहते थे सिनेमा तो आसान है, इसमें कोई चुनौती नहीं. नाटक में डर लगता है, फ्लॅाप न हो जाए. इसके बाद उन्होंने दो फिल्में और बनाईं संस्कार ओर वंश वृक्षम. फिर मृच्छकटिकम किया. कारंत जिस प्रांत में गए वहां की शैली को अपना बनाया उन्होंने. यूपी गए तो नौटंकी, एमपी आए तो बुंदेलखंडी में मालविकाग्निमित्र किया. हैदराबाद गए तो तेलगु में भैरवी किया. कन्नड़ में नागमंडलम किया.
जयंत देशमुख फिल्म इंडस्ट्री के जाने-माने आर्ट डायरेक्टर हैं. बड़े बैनर और बड़े नामों के साथ अनेक फिल्में की हैं. ढेर सारा टेलीविज़न किया है, वेब सीरीज़ की हैं. जयंत का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं. कहते हैं. मैं दो बाबाओं को जानता हूं एक बाबा नागार्जुन और एक बाबा कारंत. जिन्हें हम आदर से बाबा कहते थे, ऐसा बाबा मुझे नहीं लगता दुनिया में दूसरा कोई होगा, पता नहीं पर अभी तक तो मुझे नहीं दिखा. मैं जिस जगह पर काम करता हूं व्यावासायिक जगह है सिनेमा, टेलीविज़न, और थिएटर भी करता हूं. मुझे बाबा की एक बात बहुत अच्छे से याद है वो कहते थे थिएटर जब इंजेक्ट कर दो लोगों में, लोगों में थिएटर का इंजेक्सन लगा दो तो वो उम्र भर उसी में घूमता रहेगा. वो ही इंजेक्शन मेरे में लगा हुआ है. मैं जो कुछ भी हूं मेरी जो कुछ भी समझ है, जो कुछ मैं जानता हूं वो सब कुछ बाबा का दिया हुआ है और किसी का दिया हुआ नहीं है, ये पक्की बात है.
मैंने जितने प्ले उनके साथ किए हैं मुझे लगता है वैसा विज़न भारतीय रंगमंच में और नहीं मिलता. वो भारतीय रंगमंच के पुरोधा हैं, हबीब साहब भी हैं. जिस भारतीय रंगमंच की बात परिकल्पना की दुनिया के हिंदोस्तान के सारे बड़े निर्देशक करते हैं वो भारतीय रंगमंच क्या है ? मुझे लगता है बाबा जो काम करते थे वो ही भारतीय रंगमंच है. जब तक देशज नहीं होगा, स्थानीय नहीं होगा तो कैसे ग्लोबल होगा. लोकल होगा तो ही ग्लोबल होगा. इस बारे में सबसे बड़ा काम करने वाले बाबा हैं. जिसे हम रंग संगीत कहते हैं
बाबा के लिए संगीत नाटक की भाषा थी. जैसे संवाद लिखा जाता है वैसे ही उनका संगीत भी. इसे अलग से सुनने का अपना अलग ही मज़ा है. जब आप उनका संगीत देखेंगे, हां मैं देखना कहूंगा, तो आपको लगेगा कि उनका संगीत नाटक की आत्मा के साथ बहता हुआ प्रवाह है. जितने नाटकों में हमने काम किया उनके साथ, एक नाटक का संगीत दूसरे से नहीं मिलता, दूसरे का तीसरे से, किसी का किसी से नहीं मिलता. सामान्य रूप से ऐसा होता है कि संगीतकार चीजों को रिपीट करते हैं. जितना मैं उन्हें जानता हूं, पहचानता हूं एक ऐसा व्यक्ति जिसे स्वर्ण पदक मिला फिल्मों में संगीत देने के लिए. उन्होंने गिरीश कर्नार्ड के साथ फिल्म डायरेक्ट भी की; फिर फिल्म् छोड़कर थिएटर में आ गए और पूरी जि़ंदगी उन्होंने थिएटर में लगा दी.
अपनी बॉयोग्राफी में वो लिखते हैं शीर्षक भी है, 'मैं यहां रह नहीं सकता और वहां जा नहीं सकता.' कई लोग इसको दूसरे अर्थों में लेते हैं. वो एक जगह पर रहते थे शुरू करते थे और लोगों पर छोड़ देते थे कहते थे अब इसे तुम लोग आगे बढ़ाओ मैं दूसरी जगह जाउंगा, ऐसा यायावर मुझे तो कोई दूसरा दिखा नहीं. ऐसा नहीं कि बाकी निर्देशक कमतर हैं बाबा से, ऐसा मैं बिलकुल नहीं मानता हूं. ऐसे व्यक्ति थे वो जिसने 150 नाटक किए, बीस-पच्चीस भाषाओं में किए, कहीं भी जाकर वो नाटक करने को तैयार रहते थे. ऐसा व्यक्ति जिसका भारत भवन में जबकि वो निदेशक थे रंगमंडल के, ट्रस्टी भी रहे, उनका कोई ऑफिस ही नहीं था यार, एक स्पेस नहीं थी उनके पास. कहीं भी बैठकर नाटक बना देते थे.
कहते थे सारी चीजें निकाल दो एक नया स्पेस मिलेगा. नए तरीके से काम करने को मिलेगा. उनके जो शिष्य है, उनके साथ जिन्होंने काम किया है किसी ना किसी रूप में पूरे हिंदुस्तान में फैले हैं और काम कर रहे हैं. बाबा कारंत एक हैं लेकिन पूरे देश में हजारों बाबा कारंत हैं, जो बाबा की डिज़ाइन पर काम कर रहे हैं. उनके संगीत को अपना आधार बनाकर नया संगीत रच रहे हैं. और भारती रंगमंच की जो परिकल्पना है ,ये सारे लोग उसके लिए काम कर रहे हैं.
मैं ये भी कहता हूं कि बाबा को कमतर आंका गया और उनका आकलन ठीक नहीं हुआ. कला की राजनीति ने बाबा कारंत का आकलन कम कर किया. बावजूद इसके उनको पद्मश्री मिला, जिनको कालीदास मिला, जिनको संगीत नाटक भी मिला. वैसे उनके लिए उनका काम ही उनका पुरस्कार है. उनके काम को भुलाया नहीं जा सकता. जो मैं खड़ा हुं अपने दौनों पांव पे तो उसके नीचे जमीन कहीं ना कहीं बाबा की बनाई हुई ही है.
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतने वाली फिल्म फिल्मिस्तान में अभिनय से प्रशंसा पाने वाले संजय मेहता ने हंसल मेहता की उंबरठा और चंद्रप्रकाश द्विवेदी की मोहल्ला अस्सी में भी काम किया है. कहते हैं.
'कारंत जी का जो लोकनाट्य को देखना हो तो उनका नाटक मालविकाग्निमित्र देखना चाहिए. मालविका कालिदास का संस्कृत में लिखा नाटक है उसको जब कारंतजी बुंदेली में करते हैं तो उसकी बनक बिलकुल बदल जाती है वह लोक का नाटक लगने लगता है. यह तभी संभव हो सकता है जब निर्देशक को एक संस्कृत नाटक के साथ-साथ लोक की, और लोक संगीत की भी समझ हो. संस्कृत जब सीधे बुंदेली में ट्रांसक्रिप्ट होती है तो लोक की गहरी समझ रखने वाला वहां की गीत-संगीत परंपरा को समझने वाला दिग्दर्शक या निर्देशक ही उसे संभाल सकता है.
मालविका जब संस्कृत से बुंदेली में आता है तो एक नए रूप में तो दिखाई देता है, साथ ही साथ वो ऐसा भी दिखाई देता है कि मानो वो उसी जमीन से उपजा नाटक है, जबकि है वो संस्कृत का नाटक. हालांकि एक्टर के एंटर-एक्जि़ट के लिए उन्होंने पट्टिकाओं का प्रयोग करते हुए संस्कृत की परंपरा को इसमें जीवित रखा था. रोचक बात ये है कि नाटक अपनी मूल भाषा संस्कृत के मुकाबले बुंदेली में ज्यादा तीव्रता के साथ कम्युनिकेट होता है. कारंतजी को कलाकार की अद्भुत पहचान थी. पोटेंशियल देखने में उनकी नज़रें कमाल करती थीं. संजय के अनुसार जब मैं भारत भवन में नया नया ही था तब उन्होंने मुझे स्कंदगुप्त में मुख्य भूमिका दे दी थी.'
कारंतजी कहते थे जिस तरह जीवन के सांस लेना जरूरी है रंगमंच भी जीवन के लिए जरूरी है. हमारे पूरे एजुकेशन सिस्टम में डाक्टर तो बन गए लेकिन प्रोफेशनल बन गए, प्रोफेशनल होना गलत नहीं है लेकिन हद से ज्यादा प्रोफेशनल होना समाज और देश के लिए घातक हो सकता है. अगर कोई रंगमंच में आएगा तो वह दूसरों के दुख सुख के प्रति ज्यादा संवेदनशील होगा और सेल्फ सेंटर्ड नहीं होगा. जैसे एक पुलिस वाला रंगमंच करेगा तो उसका रवैया उस रवैये से विपरीत रहेगा जैसा उसे प्रचारित किया जाता है. ऐसे ही एक रंगमंच करने वाला डाक्टर बनेगा तो वो एक अलग तरह का डॉक्टर होगा, दूसरे डाक्टर्स से जुदा. कलाकार भी एक्सेस प्रोफेशनल से अछूते नहीं हैं. आर्टिस्ट के नज़रिए में फर्क होना चाहिए उसे सेल्फ सेंटर्ड नहीं होना चहिए, उसे विज़न के स्त्र पर भी काम करना चाहिए. यह तभी संभव हो पाएगा कि जब रंगमंच को पूरी समझ के साथ किया जाए और उसकी दृष्टि को पकड़ा जाए. कलाकार को खुश्बू देने वाली अगरबत्ती की मानिंद होना चाहिए. ये बात मैं इसलिए कह पा रहा हूं क्योंकि मैं कारंतजी के साथ रहा हूं. अगर उनका साथ नहीं होता तो मैं ये बात नहीं कह रहा होता.
रंगमंडल कारंत जी की परिकल्पना का परिणाम था, वो रंगमंडल के सर्वेसर्वा थे, वर्सटाइल निर्देशक और संगीतज्ञ थे उसके बावजूद भी रंगमंडल के कलाकारों को निर्देशित करने के लिए देश-विदेश के ख्यातिनाम निर्देशकों भारत भवन में अपनी आमद दी. रेपेटरी हेड के नाते कारंत चाहते तो केवल अकेले निर्देशन कर सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि वो चाहते थे उनके कलाकार वेरायटी में रंगमंच सीखें. ऐसी सहृदयता मिलना बहुत मुश्किल है.
उन्होंने स्कंदगुप्त किया और इस मिथ को तोड़ा कि जयशंकर प्रसाद के नाटकों का मंचन संभव नहीं है. उनका कहना था प्रसाद के नाटकों को करने के लिए हमारा रंगमंच अनुपयुक्त है उसे करने के लिए हमें उसके अनुकूल होना पड़ेगा. उनके मंचन के बाद प्रसाद के अनेक नाटकों का मंचन हुआ. म्यूजि़क कम्पोज़र उमेश तरकसवार इन दिनों मुख्य रूप से टीवी एड्स और कमर्शियल कर रहे हैं. अमूल का उनका एड पापुलर है. कुछ तो लोग कहेंगे, अफसर बिटिया आदि प्रमुख सीरियल. सोनी, स्टार और जी टीवी पर सक्रिय रहे हैं.
कारंत के संगीत पर बात करते हुए उमेश कहते हैं 'मेरे लिए सौभाग्य की बात है कि मैंने बाबा के (कारंत जी) के साथ संगीत के सहायक के रूप में काम किया है. फिल्म और नाटक दौनों में. बाबा जब नाटक का संगीत रचने के लिए पहले घूम घूमकर नाटक देखते थे और उस दौरान ही धुन गुनगुनाने लगते थे उसे देखने के दौरान ही संगीत का ताना बाना बुन लेते थे उसके बाद वो हारमोनियम लेकर बैठते इस तरह उनकी संगीत रचना आकार लेती.
बाबा के लिए शब्द ही संगीत होते थे. अगर वो अज्ञेय या निराला या किसी और की भी कविता को राग में निबदध करते तो वो उसे नाटक की आवश्यकता जितना ही संगीत में पिरोते थे. क्योंकि कविता का खुद ही अपना संगीत होता है. जब आप किसी कविता को गाकर सुनाते हैं तो वो किसी राग में निबद्ध तो होती ही है. ये अलग बात है कि कवि खुद नहीं जानता कि वो किस राग में निबद्ध है. बाबा का मानना था कि शब्द अपने आप में संगीत होते हैं.
बाबा का संगीत कभी उनके नाटक को डॉमिनेट नहीं करता था. नाटक देखकर अगर कोई ये कहे कि देखो इसका संगीत कितना अच्छा था या ये कहे कि नाटक संगीत से अच्छा था तो ये ड्रामे के लिए ठीक नहीं होगा. क्योंकि संगीत ड्रामे में और ड्रामा संगीत में इतना घुलमिल जाना चाहिए कि एक दूसरे से अलग करके उनका आकलन हीं नहीं किया जा सके. संगीत अलग से आईडेंटिफाई नहीं होना चहिए. जिस तरह अभिनेता एक्टिंग करता है ठीक उसी तरह संगीत भी अभिनय करता है.
बाबा अपने बेसुरे अभिनेता से भी गायन करवा लेते थे. उनका मानना था कि अभिनेता गायकी में भी पूरी तरह ट्रेण्ड हो जरूरी नहीं. लेकिन हां इतना जरूर होना चाहिए कि उसे संगीत की समझ हो और गाना आता है, तो थोड़ा बेसुरा भी चलेगा. वे वाद्य यंत्रों का उपयोग समय के अनुरूप करते थे जैसा दौर वैसा वाद्य. अगर उन्हें फ्लूट की जरूरत हो है तो वे ये नहीं चाहते थे कि बांसुरी वादक क्लासिकल संगीत में निपुण हो.'
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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