सम्पादकीय

आमोद कंठ की 'खाकी इन डस्ट स्टॉर्म' में बेबाकी

Gulabi
22 Dec 2020 12:30 PM GMT
आमोद कंठ की खाकी इन डस्ट स्टॉर्म में बेबाकी
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आमतौर पर हमें अपने देश की पुलिस व उसके अधिकारियों की छवि को लेकर बहुत अजीबो-गरीब स्थिति से गुजरना पड़ता है।

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। आमतौर पर हमें अपने देश की पुलिस व उसके अधिकारियों की छवि को लेकर बहुत अजीबो-गरीब स्थिति से गुजरना पड़ता है। हमें लगता है कि वे लोग तो समाज से पूरी तरह कटे हुए होते हैं। अच्छा पुलिस अफसर वहीं माना जाता है जिसे देखकर लोगों के मन में आतंक व भय पैदा हो। मगर हाल ही में एक आला पूर्व पुलिस अफसर आमोद कंठ की पुस्तक 'खाकी इन डस्ट स्टॉर्म' तमाम भ्रांतियो को दूर कर हमें पुलिस वालो की कार्य प्रणाली और समाज के प्रति उनकी भूमिका के बारे में सोचने के लिए मजबूर कर देती है। आमोद कंठ 1980 से 1990 के दशक में दिल्ली में तैनात रहे जब राजनीति व आतंकवाद की दृष्टि से बहुत उतार चढ़ाव वाला समय था। यह वह समय था जब देश में अभूतपूर्ण घटनाएं व दुर्घटनाएं घटी। इसी दौरान प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हुई व उसके बाद देश में सिख विरोधी दंगे हुए। राजीव गांधी की हत्या हुई। देश को दहलाने वाला ट्रांजिस्टर बम कांड हुआ।


पंजाब के आतंकवाद की गूंज दिल्ली तक में सुनाई देती थी। आईपीएस अधिकारी आमोद कंठ दिल्ली व देश के तमाम अहम पदो पर रहे व उन्होंने अपने अनुभव व यादों को बहुत सुंदर व सिलसिलेवार तरीके से अपनी पुस्तक में संजोया है। उनका कार्यकाल सामाजिक, राजनीतिक व कानून व्यवस्था के बहुत उथल-पुथल वाले वक्त में रहा है। वे अरूणाचल प्रदेश के पुलिस महानिदेशक भी रहें। अनुभवों के अलावा आमोद कंठ ने राजनीति, सामाजिक, राजनीतिक हालात के अपराधों और आतंकवाद पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में भी खुलकर लिखा। वे तीन दशको तक पुलिस में उच्च पदों पर रहे।

आमोद कंठ का मानना है मुठभेड़, स्पेशलिस्ट की शार्टकट की न तो प्रजातंत्र में जरूरत है और न ही इसकी इजाजत है। वे लिखते हैं कि 1950 से भारत के संविधान में न जाने कितने बदलाव आए पर उसी संविधान की मूलभावना को व्यवहार में लाने वाले पुलिस सुधारो का देश आज भी इंतजार कर रहा हैं। अपने 34 साल के पुलिस कैरियर में उन्होंने संभवतः सबसे खतरनाक व चर्चित अपराधिक मामलो को अपनी सूझ-बूझ व बहादुरी के साथ सुलझाया और अपराधियों को सजा दिलवाने में सफलता हासिल की। मगर एक ऐसा मामला भी है जिसकी जांच पड़ताल उन्होंने की व कुछ माह पहले दिल्ली की एक अदालत ने उसके सभी अभियुक्तो को बरी कर दिया।

यह मामला 1985 में दिल्ली में होने वाला ट्रांजिस्टर बम कांड का था। जिसे 1984 के दंगों का बदला लेने के लिए अभियुक्तो ने ट्रांजिस्टर में बम फिट करके उन्हें दिल्ली के तमाम ऐसे इलाको में रख दिया था जहां गरीब तबके के लोग रहते थे व जब वे लालच में आकर इन ट्रांजिस्टरो को उठाकर ले गए थे। कौतहुलवश उन्हें ऑन किया तो भयंकर विस्फोट होने के कारण उनकी व उनके आस-पास के लोगों के प्राण परखचे उड़ गए। मैंने 1984 के दंगों से लेकर ट्रांजिस्टर बम कांड तक की जब रिपोर्टिंग की थी। बाद में पंजाब, सिख राजनीति व आतंकवाद कवर करने के कारण तमाम व्यक्ति मेरे संपर्क में भी आए थे। वे लोग अक्सर यह बताते थे कि उन्होंने बम कांड की साजिश कैसे रची थी पर जब इन सभी लोगों को रिहा कर दिया गया तो मैं आश्चर्यचकित रह गया। मैंने जब यह बात आमोद कंठ से पूछी कि इन लोगों को अदालत द्वारा रिहा कर दिए जाने की क्या वजह रही व उन्होंने कैसे महसूस किया तो उन्होंने बताया वह बहुत चौकाना व आंखे खोल देने वाला था।

उनका कहना था कि इस मामले में न्याय नहीं हुआ। मैंने तो महज तीन दिन के अंदर ही मामले को सुलझाते हुए तमाम 50 लोगों को गिरफ्तार कर लिया था। पूरा मुकदमा अच्छी तरह से तैयार किया गया। तमाम साक्ष्य जुटाए पर मुकदमा अदालत में बहुत लंबा चला व इस दौरान तमाम साक्ष्य व दस्तावेज अदालत से चोरी हो गए। मामले का ट्रायल अच्छी तरह से चलने के बावजूद तमाम सबूत कैसे चोरी हो गए, यह आज तक उनके लिए बहुत बड़ा प्रश्न बना हुआ हैं। एक जज ने तो खुद को इन दस्तावेजो व साक्ष्यो के गायब होने पर बहुत आश्चर्य जताया था।

'खाकी इन डस्ट स्टॉर्म' का 19 दिसंबर को दिल्ली में विमोचन हुआ। इसमें ललित माकन व अर्जुनदास की आतंकवादियों द्वारा की गई हत्या का प्रसंग भी है। वे बताते हैं कि इन सब मामले में शामिल शातिर और खुंखार राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अपराधियों से उन्होंने बिना थर्ड डिग्री पूछताछ के तरीको का इस्तेमाल किए हुए सजा दिलवाई। वे मानते हैं कि आजाद भारत में पुलिस की कार्य प्रणाली में सुधार ही बहुत जरूरत है।

वे लिखते हैं कि देश में जब तक पुलिस 1961 में बने इंडियन पुलिस एक्ट को निकाल बाहर नहीं फेंकेंगे तब तक इतने बड़े देश में आम आदमी को न्याय नहीं मिल पाएगा। यह बड़ा अजीब विरोधाभास है कि जहां हमारे संविधान में साफ लिखा है कि राज्य का दायित्व है कि लोग देश के सबसे कमजोर वर्ग को न्याय दिलाए पर अधिकतर पुलिसकर्मी अपनी पूरी जिदंगी उन लोगों को बचाने में लगे रहते हैं जो संपन्न व ताकतवर होने के साथ-साथ ज्यादातर अत्याचार करते हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे देश में पुलिस सुधार की कोई कोशिश नहीं हुई है।

पूर्व आईपीएस अधिकारी प्रकाश सिंह ने 2006 में तमाम कोशिशों के बाद एक मॉडल पुलिस एक्ट बनाया था। मगर वह आज भी सरकारी दफ्तरों की अलमारियो में पड़ा धूल खा रहा है। हमारे हुक्मरान नियम कानूनो से कैसे निपटते हैं इसका जिक्र करते हुए वे कहते हैं कि जब यह पुलिस एक्ट 2006 में आया तो वे अरूणाचल प्रदेश में तैनात थे। जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने मॉडल पुलिस एक्ट को लागू करने की स्वीकृति दी मैंने इसको अपने प्रदेश में पूरा का पूरा लागू कर दिया। पहले तो उसकी तारीफ हुई। फिर वहां के तमाम आला अफसरो व मुख्यमंत्रियो व नेताओं ने समझाया कि इसे लागू करने के बाद आपके हाथों से सारी ताकत पावर निकल जाएगी। नतीजा यह हुआ कि कुछ दिनों के बाद उनकी अरूणाचल से छुट्टी हो गई।

जिन आमोद कंठ ने अपने जीवन के 34 साल पुलिस में बिताए वे आजकल सामाजिक संस्था 'प्रयास' भी चला रहे हैं जो गरीब, समाज के शोषित ठुकराए गए बच्चो, महिलाओं और समाज के तिरस्कृत और साधनविहीन लोगों के लिए विभिन्न प्रदेशों में काम कर रही है। उनकी जिदंगी का फलसफा है कि आप आपनी शख्सियत को टुकड़ो मं नहीं बांट सकते हैं।


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