सम्पादकीय

जवाबदेही से दूर

Subhi
13 Jun 2022 5:44 AM GMT
जवाबदेही से दूर
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आजकल सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया किसी भी मसले पर अपनी समांतर अदालतें चला रहे हैं, जहां कुछ पार्टी प्रवक्ता, कुछ धर्मगुरुओं और कुछ विशेषज्ञों को किसी विषय पर बहस के लिए आमंत्रित किया जाता है

Written by जनसत्ता: आजकल सोशल और इलेक्ट्रानिक मीडिया किसी भी मसले पर अपनी समांतर अदालतें चला रहे हैं, जहां कुछ पार्टी प्रवक्ता, कुछ धर्मगुरुओं और कुछ विशेषज्ञों को किसी विषय पर बहस के लिए आमंत्रित किया जाता है और बहस का मुद्दा होता है कोई ज्वलंत विषय। पिछले दिनों ज्ञानवापी सुर्खियों में थी। सभी टीवी चैनल इसी विषय पर अपनी अदालतें लगाए बैठे थे। अब पैगंबर पर एक प्रवक्ता द्वारा की गई टिपण्णी पर बहस जारी है। हालांकि उस प्रवक्ता ने अफसोस जाहिर कर लिया, पार्टी ने उनके खिलाफ कार्रवाई कर दी है, पुलिस भी अपनी कार्रवाई कर रही है। अब यह मुद्दा कानूनी रूप ले चुका है, तो उस पर फैसले का अधिकार भी न्यायालय के पास ही होना चाहिए न कि टीवी चैनलों के पास।

सोशल मीडिया और टीवी चैनलों पर चलने वाली बहसें कहीं न कहीं लोगों में असंतोष पैदा करती है। टीवी चैनलों के एंकर मुद्दे को और ज्वलनशील बनाने का भरसक प्रयास करते हैं, ताकि प्रवक्ता जोश में कुछ ऐसा बयान दे दें, जो आगे चल कर एक नई बहस का मुद्दा बन पाए। प्रिंट मीडिया की इस विषय में प्रशंसा करनी होगी कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों से समझौता नहींं किया है। जबकि इलेक्ट्रानिक मीडिया प्रतिस्पर्धा की दौड़ में कहीं न कहीं अपनी जिम्मेदारियों से दूर होता दिख रहा है। जरूरत एक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की है। हमारा मानना है कि न्यायालय में विचाराधीन मामलों पर टीवी चैनलों को अपनी अलग से अदालत या बहस नहींं बैठानी चाहिए। हमें कोर्ट के निर्णय का इंतजार करना चाहिए।

कई बार यह बहस इतनी बढ़ जाती है कि बोलने वाले भूल जाते हैं कि वे किसी दल या संस्था के आधिकारिक प्रवक्ता हैं और उनके द्वारा कहे गए शब्द एक विशेष स्थान रखते हैं। बहस की आंधी में वे अर्थ का अनर्थ कर बैठते हैं। अगर हम चाहते हैं कि भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सभी धर्मों के लोग अमन-चैन से रह सकें तो टीवी चैनलों पर चलने वाली ऐसी बहसों पर कुछ अंकुश तो जरूर लगना चाहिए।

फिर से पूरे देश में दंगल जैसा माहौल नजर आ रहा है। उत्तर प्रदेश, दिल्ली, महाराष्ट्र आदि कई प्रदेशों में जुम्मे की नमाज के बाद प्रदर्शन हुए। प्रदर्शन करना अलग विषय है, पर हिंसा करना तो बिलकुल उचित नहींं। लगता है कुछ फिरकापरस्त लोग बार-बार बुझती आग में घी डालने का काम कर रहे हैं। देश की जनता सकते में है। सरकार पर अनावश्यक दबाव बनाते लोगों की मंशा आखिर है क्या? इतनी हिंसक घटनाएं संयोग मात्र तो हो नहींं सकती। इस मर्ज की दवा जल्दी नहीं ढूंढ़ी गई, तो भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति होती रहेगी।

देश में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी होती जा रही है। आम जनता जैसे भ्रष्टाचार को अपनी नियति मान चुकी है। सार्वजनिक क्षेत्र, पुलिस और न्यायिक विभागों में व्याप्त भ्रष्टाचार समाज के लिए एक चुनौती बन चुका है। सरकारें गरीबी उन्मूलन के लिए योजनाएं बनाती हैं, लेकिन उनका लाभ आम जनता तक पहुंचने के पहले ही नेता और नौकरशाह हड़प लेते हैं। भ्रष्टाचार को रोकने के लिए मबजूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, दूरगामी और वास्तविक उपायों को लागू करना होगा।


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