- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- पर्वतीय क्षेत्रों में...
उत्तराखंड में आई आपदा में फंसे लोगों को बचाने के लिए जिस तरह मरीन कमांडों को मोर्चा संभालना पड़ा, उससे यही पता चलता है कि राहत और बचाव का काम कितना दुष्कर है। उम्मीद की जाती है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी संकट मोचक बल जल विद्युत परियोजना की सुरंग में फंसे लोगों को बचाने में समर्थ होंगे, लेकिन आवश्यक केवल यह नहीं है कि इन लोगों को बचाने में कोई कसर न उठा रखी जाए, बल्कि यह भी है कि उन कारणों की तह तक वास्तव में जाया जाए, जिनके चलते यह आपदा आई। यह आपदा यही इंगित करती है कि 2013 में केदारनाथ की उस भीषण त्रासदी से जरूरी सबक नहीं लिए गए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। कायदे से तभी इसका पता लगाया जाना चाहिए था कि ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हो रहे हैं या नहीं? यह ठीक नहीं कि ग्लेशियरों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए जो पहल हुई थी, वह आगे नहीं बढ़ सकी। कम से कम अब तो इस पहल को आगे बढ़ाया ही जाना चाहिए, ताकि ग्लेशियरों की गतिविधियों का सटीक आकलन किया जा सके। इसके साथ ही इसका भी आकलन किया जाना चाहिए कि उत्तराखंड में चल रही विभिन्न जल विद्युत परियोजनाएं चमोली सरीखी अनहोनी का सामना करने में कितनी समर्थ हैं? यह हैरान करता है कि यह समझने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि यदि ग्लेशियर टूटने अथवा हिमस्खलन होने से नदियों में बेहिसाब पानी आता है तो फिर उनके तट पर स्थापित जल विद्युत परियोजनाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाएगी?