सम्पादकीय

पर्वतीय क्षेत्रों में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए सजगता जरूरी

Neha Dani
10 Feb 2021 2:01 AM GMT
पर्वतीय क्षेत्रों में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए सजगता जरूरी
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उत्तराखंड में आई आपदा में फंसे लोगों को बचाने के लिए जिस तरह मरीन कमांडों को मोर्चा संभालना पड़ा |

उत्तराखंड में आई आपदा में फंसे लोगों को बचाने के लिए जिस तरह मरीन कमांडों को मोर्चा संभालना पड़ा, उससे यही पता चलता है कि राहत और बचाव का काम कितना दुष्कर है। उम्मीद की जाती है कि तमाम मुश्किलों के बाद भी संकट मोचक बल जल विद्युत परियोजना की सुरंग में फंसे लोगों को बचाने में समर्थ होंगे, लेकिन आवश्यक केवल यह नहीं है कि इन लोगों को बचाने में कोई कसर न उठा रखी जाए, बल्कि यह भी है कि उन कारणों की तह तक वास्तव में जाया जाए, जिनके चलते यह आपदा आई। यह आपदा यही इंगित करती है कि 2013 में केदारनाथ की उस भीषण त्रासदी से जरूरी सबक नहीं लिए गए, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए थे। कायदे से तभी इसका पता लगाया जाना चाहिए था कि ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित हो रहे हैं या नहीं? यह ठीक नहीं कि ग्लेशियरों की प्रकृति का अध्ययन करने के लिए जो पहल हुई थी, वह आगे नहीं बढ़ सकी। कम से कम अब तो इस पहल को आगे बढ़ाया ही जाना चाहिए, ताकि ग्लेशियरों की गतिविधियों का सटीक आकलन किया जा सके। इसके साथ ही इसका भी आकलन किया जाना चाहिए कि उत्तराखंड में चल रही विभिन्न जल विद्युत परियोजनाएं चमोली सरीखी अनहोनी का सामना करने में कितनी समर्थ हैं? यह हैरान करता है कि यह समझने की कोशिश क्यों नहीं की गई कि यदि ग्लेशियर टूटने अथवा हिमस्खलन होने से नदियों में बेहिसाब पानी आता है तो फिर उनके तट पर स्थापित जल विद्युत परियोजनाओं की सुरक्षा कैसे सुनिश्चित की जाएगी?

इसकी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि इस बार एक साथ दो जल विद्युत परियोजनाएं आपदा की चपेट में आ गईं। एक तो पूरी तरह तबाह हो गई और दूसरी को अच्छी-खासी क्षति हुई। वास्तव में इसी कारण जान के साथ माल का नुकसान भी बढ़ा। उत्तराखंड में 40 से अधिक जल विद्युत परियोजनाएं हैं। यह तो गनीमत रही कि कुछ प्रस्तावित परियोजनाओं को रद कर दिया गया, अन्यथा वहां ऐसी परियोजनाओं की स्थापना का सिलसिला कायम ही रहता। नि:संदेह यह नहीं हो सकता कि प्राकृतिक संसाधनों का दोहन बिल्कुल ही न किया जाए, लेकिन इस दोहन की कोई सीमा तो होनी ही चाहिए। उत्तराखंड सरीखे नाजुक पारिस्थितिकी तंत्र वाले इलाके में तो इस सीमा रेखा का विशेष ध्यान रखना होगा। बात केवल उत्तराखंड के पारिस्थितिकी तंत्र की ही नहीं, देश के अन्य पर्वतीय इलाकों की भी है। पर्वतीय क्षेत्रों में विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कायम रखने की बातें अर्से से की जा रही हैं, लेकिन यही देखने में आ रहा है कि इसे लेकर अपेक्षित सजगता नहीं दिखाई जा रही है।


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