सम्पादकीय

सत्तावादी लोकतंत्र : सर्वोच्च नेताओं की छवि और लोकतंत्र में राजनीतिक विरोधियों से आलोचना सुनने की क्षमता

Neha Dani
19 Jun 2022 1:49 AM GMT
सत्तावादी लोकतंत्र : सर्वोच्च नेताओं की छवि और लोकतंत्र में राजनीतिक विरोधियों से आलोचना सुनने की क्षमता
x
प्रेस की स्वतंत्रता का सम्मान कर सकते हैं और जो राजनीतिक विपक्ष के साथ रचनात्मक बातचीत कर सकते हैं।

स्वतंत्रता प्राप्ति की औपचारिक घोषणा से एक दशक पहले 1937 में भारतीयों को स्वशासन का एक अंदाजा मिला था, जब राज के अधीन विभिन्न प्रांतों में सीमित मताधिकार के आधार पर चुनी हुईं सरकारें बनी थीं। इसे पूर्ण प्रतिनिधि सरकार की ओर एक कदम की तरह देखा गया। मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस सरकार के शपथ ग्रहण करने के थोड़े समय बाद एक तमिल विद्वान ने नेतृत्व के बारे में शानदार भाषण दिया, जिनके विचार आश्चर्यजनक रूप से भारत की आज की राजनीतिक संस्कृति के साथ प्रतिध्वनित होते हैं।

यह विद्वान थे के स्वामीनाथन और तब वह प्रेसिडेंसी कॉलेज में लिटरेचर के प्रोफेसर थे। 1938 में उन्होंने अन्नामलाई यूनिवर्सिटी के छात्रों को बताया कि सार रूप में दो तरह के राजनेता होते हैं, एक वे जो खुद को अपरिहार्य समझते हैं, दूसरे वे जो ऐसा नहीं समझते। उन्होंने बाद वाली श्रेणी के लिए एक नाम चुना और कहा, 'गांधी पिछले तीन-चार वर्षों से अपने उत्तराधिकारियों को प्रशिक्षित करने को लेकर बहुत सतर्क और चिंतित रहे हैं। उनकी अंतिम इच्छा खुद को अपरिहार्य बनाने की है।...न तो जवाहरलाल नेहरू, न ही राजेंद्र प्रसाद चाहे जो हों, वैसे नहीं होंगे जैसा गांधी चाहते हैं; और न ही वे केवल यस मैन हैं।'
यह शानदार उदाहरण पेश करने के बाद स्वामीनाथन ने एक चेतावनी भी दी। उन्होंने कहा, लेकिन ऐसे भी नेता हैं, जो अपने अनुयायियों पर भरोसा नहीं करते और वे उन्हें काम करने की किसी तरह की स्वतंत्रता नहीं देते, सैन्य अनुशासन का दबाव बनाते हैं, स्वचालन को तरजीह देते हैं। ऐसे नेता इमली के पेड़ की तरह होते हैं, शायद अपने समय में महान और अपने आप में उपयोगी, लेकिन दूसरों के जीवन और विकास के लिए विनाशकारी। वे कोई मतभेद बर्दाश्त नहीं करते, दोस्ताना आलोचना से भी नाराज हो जाते हैं। वे तुर्क की तरह, सत्ता के करीब किसी को नहीं रखते। और जब जाते हैं, तो अपने पीछे उजाड़ छोड़ जाते हैं।
अन्नामलाई यूनिवर्सिटी के छात्रों से स्वामीनाथन ने कहा, आज हमारे देश को जो जरूरत है और हमारे हॉस्टल्स जो पैदा कर सकते हैं वे हैं, राजनेता, जिनमें से प्रत्येक औसत से कुछ बड़ा हो। मैं नहीं समझता कि हमें किसी ऐसे सुपरमैन की जरूरत है, जो कि अपने साथियों से इतना ऊपर हो कि उनके बीच की खाई कभी पाटी न जा सके। हाल ही में मुझे स्वामीनाथन के लेखन को खंगालते समय उनके उस व्याख्यान को देखने का मौका मिला। इसे पढ़कर मैं चौंक गया, क्योंकि उन्होंने 1938 में जो चेतावनियां दी थीं, वे 2022 के भारत में आज कहीं अधिक प्रासंगिक हैं, जब हमारे पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है, जिसने पार्टी और सरकार के अकूत धन और इनसे बड़ी संख्या में जुड़े लोगों की मदद से अपने इर्द-गिर्द विश्व इतिहास का सबसे बड़ा छवि निर्माण किया है।
मैंने पहले भी नरेंद्र मोदी के छवि निर्माण और उसके खतरनाक परिणामों के बारे में लिखा है। इसलिए मैं उन तर्कों को यहां नहीं दोहराऊंगा। इसके बजाय मैं इस पर गौर करूंगा कि सत्ता के इर्द-गिर्द व्यक्तित्व निर्माण की यह प्रवृत्ति न केवल केंद्र सरकार में, बल्कि कई राज्य सरकारों में भी दिखाई देती है। ममता बनर्जी विधानसभा और संसद के चुनावों के समय नरेंद्र मोदी का भारी विरोध करती हैं, जबकि उनकी खुद की राजनीतिक शैली उनसे उल्लेखनीय रूप से मिलती है। वह अकेले ही तृणमूल कांग्रेस, पश्चिम बंगाल की सरकार और बंगाली लोगों के अतीत, वर्तमान और भविष्य को मूर्त रूप देना चाहती हैं।
अपने राज्य के स्तर पर ममता बनर्जी द्वारा पार्टी, सरकार और लोगों के नेता से सम्मिलन का यह प्रयास देश के स्तर पर नरेंद्र मोदी द्वारा पार्टी, सरकार और लोगों के साथ नेता के सम्मिलन के प्रयास को बारीकी से दर्शाता है। ये समानताएं यहीं खत्म नहीं होतीं। टीएमसी के विधायक और सांसद भय के कारण अपनी मुख्यमंत्री के बारे में उसी तरह से चाटुकारिता भरे शब्दों में बातें करते हैं, जिस तरह से भाजपा सांसद और मंत्री प्रधानमंत्री को लेकर करते हैं। मोदी की तरह ममता भी अपने वफादार और आसानी से काबू में आने वाले नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों के साथ काम करना पसंद करती हैं।
मोदी की तरह ही वह प्रेस की स्वतंत्रता और संस्थाओं की स्वायत्तता को लेकर जुबानी जमा खर्च करती हैं, लेकिन जब उनके शासन को चुनौती मिले, तो वह इस स्वतंत्रता को कुचलने और स्वायत्तता से इनकार करने में देर नहीं करतीं। ममता बनर्जी जो पश्चिम बंगाल में करना चाहती हैं, वही अरविंद केजरीवाल दिल्ली में, पिनरायी विजयन केरल में, आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश में, जगन मोहन रेड्डी आंध्र प्रदेश में, के चंद्रशेखर राव तेलंगाना में और अशोक गहलोत राजस्थान में करना चाहते हैं। भारत के विभिन्न हिस्सों में शासन कर रहे ये सातों मुख्यमंत्री सात विभिन्न दलों से संबंधित हैं और ये सभी शासन की अपनी शैली और प्रवृत्ति में सत्तावादी हैं। (मेरी सूची उदाहरणार्थ है, संपूर्ण नहीं- ऐसे कई अन्य मुख्यमंत्री हैं, जो अपने राज्य की पहचान को खुद से जोड़ना चाहते हैं और अपने साथियों से बहुत ऊपर उठना चाहते हैं।)
यदि प्रोफेसर स्वामीनाथन इन मुख्यमंत्रियों को देखने के लिए मौजूद होते, तो शायद उन्होंने इन नेताओं के बारे में कहा होता कि वे कोई मतभेद बर्दाश्त नहीं करते और दोस्ताना आलोचना से भी नाराज हैं। कि वे सक्षम उत्तराधिकारियों को प्रशिक्षित करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाते हुए खुद को अपरिहार्य बनाना चाहते हैं। कि वे खुद को अपने साथियों से इतना ऊपर समझते हैं कि सुपरमैन (या सुपरवुमन) और वे नागरिक जिनके प्रति वे जवाबदेह हैं, के बीच एक गहरी और अगम्य खाई बनी हुई है।
इससे पहले कि मुझ पर समानता का आरोप लगाया जाए, मैं यह बता दूं कि मैं मानता हूं कि ये विभिन्न प्रकार के सत्तावाद हैं, जिनका विभिन्न तरह का प्रभाव है। राष्ट्रीय स्तर पर मोदी और भारत के सबसे बड़े राज्य में आदित्यनाथ, इन दोनों का सत्तावाद बहुसंख्यकवाद है, जो कि धार्मिक अल्पसंख्यकों को कलंकित और उत्पीड़ित करता है। मोदी और आदित्यनाथ मीडिया को दबाने और राजनीतिक विरोधियों को जेल में डालने में सत्ता का कहीं अधिक मनमाना इस्तेमाल करते हैं। यह कहने में शायद ही विवाद हो कि ममता, केजरीवाल और उन जैसों की राजनीति भी उसी तरह से सत्ता और सार्वजनिक धन के दुरुपयोग से सत्ता के इर्द-गिर्द उनकी छवि निर्माण से जुड़ी है।
सर्वोच्च नेताओं का छवि निर्माण आमतौर पर अधिनायकवादी शासनों में फला-फूला है, चाहे वह सैन्य तानाशाही हो, फासीवादी राज्य या कम्युनिस्ट शासन। यह कल्पना कि एक व्यक्ति, यहां तक कि, विशेष रूप से, यदि वह सर्वोच्च राजनीतिक पद पर आसीन है, सभी नागरिकों की इच्छा को मूर्त रूप दे सकता है, प्रतिनिधित्व कर सकता है और निर्देशित कर सकता है, लोकतंत्र के विचार के एकदम उलट है। जब हम अपनी स्वतंत्रता के पचहत्तरवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं, हम तेजी से एक ऐसा लोकतंत्र बनते जा रहे हैं, जो सत्तावादी और यहां तक कि निरंकुश प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों द्वारा शासित होता है।
यह हमारी सोच के लिए बुरा है, यह उसे खुला और मुक्त के बजाय जंजीर से जकड़ना और अनियंत्रित बनाना है, और यह हमारे जीवन के लिए भी बुरा है। सत्ता और आत्म-प्रचार से ग्रस्त नेता विकास और शासन की रोजमर्रा की जिम्मेदारियों की उपेक्षा ही करेंगे। निर्णय लेने के सारे अधिकार खुद तक केंद्रित करने वाले तथा मंत्रियों और सार्वजनिक सेवकों पर भरोसा न करने वाले नेता भारत की बात तो छोड़ें, बड़ी आबादी और विविधता से भरे पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में प्रभावी प्रशासन के लिए उपयुक्त नहीं हो सकते।
जो नेता बंद घेरे में अपने चमचों से खुद की अंतहीन प्रशंसा सुनते हैं, वे उन नेताओं की तुलना में कहीं अधिक खराब प्रधानमंत्री (या मुख्यमंत्री) साबित होंगे, जिनके पास सक्रिय फीडबैक लूप है, जो राजनीतिक सहयोगियों, राजनीतिक विरोधियों और स्वतंत्र मीडिया की आलोचना को सुनते हैं और उसका जवाब देते हैं। भारत के साथ-साथ भारतीयों की, ऐसे नेता कहीं बेहतर सेवा कर सकते हैं, जो विशेषज्ञों और व्यापक रूप में नागरिक समाज को सुन सकते हैं और उनसे सीख सकते हैं, जो अपने मंत्रियों को अधिकार सौंप सकते हैं (जहां जरूरी हो वहां उन्हें श्रेय देते हैं), जो सार्वजनिक संस्थानों की स्वायत्तता और प्रेस की स्वतंत्रता का सम्मान कर सकते हैं और जो राजनीतिक विपक्ष के साथ रचनात्मक बातचीत कर सकते हैं।

सोर्स: अमर उजाला

Next Story