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बात पुरानी है. वो 15 अगस्त की एक सुबह थी. स्वतंत्रता दिवस पर हर जिले में मंत्रिमंडल के सदस्य झंडावंदन करते
शकील खान, फिल्म और कला समीक्षक।
बात पुरानी है. वो 15 अगस्त की एक सुबह थी. स्वतंत्रता दिवस पर हर जिले में मंत्रिमंडल के सदस्य झंडावंदन करते थे. भोपाल से जनसंपर्क की एक टीम झंडा वंदन के कवरेज के लिए झाबुआ गई थी, जहां प्रदेश के एक मंत्री को झंडा फहराना था. आदिवासी बहुल जिला झाबुआ भोपाल से लगभग 350 किलोमीटर की दूरी पर मध्यप्रदेश-गुजरात की बाउंड्री पर स्थित है. झाबुआ से भोपाल (Bhopal) के बीच इंदौर (Indore) पड़ता है. उन दिनों बायपास नहीं होने के कारण पूरा इंदौर शहर क्रॉस करना पड़ता था. घनी आबादी वाले इंदौर को पार करने में लगभग डेढ़ घंटा लग जाता था. उन दिनों न्यूज़ चैनल नहीं थे. प्रदेश के नेताओं के लिए अपनी खबर और विजुअल्स प्रसारित करने का दूरदर्शन एकमात्र माध्यम था. भोपाल दूरदर्शन पर न्यूज बुलेटिन शाम सात बजे प्रसारित होता था.
भोपाल के आसपास के जिले के वीडियो कैसेट तो समय पर, यानि साढ़े पांच बजे के आसपास भोपाल पहुंच जाते थे. लेकिन दूरदराज के कैसेट समय पर नहीं पहुंच पाते थे सो यहां के मंत्रियों के चेहरे दूरदर्शन पर नहीं दिख पाते थे. झाबुआ से भी भोपाल कैसेट पहुंचना लगभग असंभव होता था. उस जमाने में न तो सड़कें चौड़ी थीं, ना ही बायपास थे. झाबुआ से भोपाल पहुंचने में दस घंटे तक लग जाते थे. उसमें से लगभग डेढ़ घंटे का समय तो अकेला इंदौर ही खा जाता था. जनसंपर्क की टीम दस बजे झाबुआ से कैसेट लेकर भोपाल के लिए निकली. तब उन्हें बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी के वो समय पर पहुंचेंगे. लेकिन फिर भी चूंकि मंत्रीजी का कोशिश करने का आदेश था, सो ड्राइवर यथा संभव तेज गाड़ी चला रहा था. लेकिन इंदौर में देरी लगने का डर था. गाड़ी इंदौर में दाखिल हुई. यह क्या ? यहां तो मरघट सा सन्नाटा था. लगा कर्फ्यु वगैरा लग गया है. पूछने पर पता चला कर्फ्यु तो नहीं है, लेकिन मामला कुछ और है.
बहरहाल इंदौर क्रॉस करने में महज पंद्रह मिनिट लगे. फिर तो उत्साहित ड्राइवर ने ऐसी गाड़ी भगाई कि छ: बजे के पहले भोपाल के जनसंपर्क कार्यालय पहुंच गए. एडिटिंग हुई, समय पर केसेट न्यूज़ रूम पहुंच गया और न्यूज़ विज़अल्स के साथ लग गई. आपको मालूम है वो मामला क्या था ? जिसने इंदौर की सड़कों पर अघोषित कर्फ्यु लगा रखा था. उस दिन ये हालत सिर्फ इंदौर के नहीं थे. बहुत सारे बड़े शहरों के भी यही हाल थे. दरअसल उस दिन दूरदर्शन पर पहली बार 'शोले' दिखाई जा रही थी. सबसे लंबे समय तक थिएटर में चलने का रिकार्ड बनाने के बाद 'शोले' दूरदर्शन पर आई थी. अधिकांश लोग इसे देख चुके थे, फिर भी शोले का ऐसा क्रेज कि सड़के सूनी हो गईं. ये था शोले का जलवा, शोले का जादू, सचमुच में सिर पर चढ़कर बोलने वाला जादू.
'शोले' के बारे में मशहूर फिल्मकार शेखर कपूर कहते हैं, हिंदी सिनेमा के इतिहास को दो भागों में विभाजित कीजिए – शोले के पहले बीसी, शोले के बाद एडी. किसी फिल्म की तारीफ के लिए इससे बेहतर कुछ नहीं कहा जा सकता. बहरहाल, सीधे मुद्दे पर आते हैं और जानते हैं कि 'शोले' क्योंकर क्लासिक और शताब्दी की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कहलाई. ओपनिंग शॉट क्रेन शॉट है. कैमरे की जद में सूने प्लेटफार्म पर एक अकेला खड़ा, बूढ़ा है, ट्रेन आती है, कोयले के एंजिन और सीटी की आवाज़ फिल्म की पृष्ठभूमि, स्थान और समयावधि की चुगली कर रही है. ट्रेन रूकती है, वर्दीधारी पुलिस वाला उतरता है. छोटा सा संवाद. दौनों स्टेशन की बिल्डिंग में प्रवेश करते है.
क्रेन पर टंगा कैमरा पैन होकर बिल्डिंग की बाहरी दीवार को फालो करते हुए ऑब्जेक्ट को बाहर जाकर पकड़ता है. बूढ़ा और पुलिसवाला घोड़े पर बैठते हैं, घोड़े आगे बढ़ते हैं. स्क्रीन पर एक नाम उभरता है 'शोले' घोड़ों की रफ्तार बढ़ती है. अब जाकर डायरेक्टर रमेश सिप्पी पहला कट बोलते हैं. ये एक लंबा, खूबसूरत और अनकट शॉट है, जो दर्शकों को चेताता है – "सीट से चिपककर बैठ जाईए परदे पर कुछ अलग रचा जाने वाला है". दुनिया भर की टॉप टेन फिल्मों में जगह बनाने वाली इस फिल्म की बात अगर निर्देशक रमेश सिप्पी से शुरू होगी तो सलीम जावेद के बिना अधूरी रहेगी। इस फिल्म ने और इस लेखक जोड़ी ने बालीवुड को पहली बार लेखक की हैसियत का एहसास कराया. सिनेमेटोग्राफर द्वारका दिवेचा का जिक्र भी जरूरी है.
पहले शॉट पर आते हैं. द्वारका दिवेचा तो इस शॉट में अपना असर छोड़ते ही हैं. एडीटर एमएस शिंदे भी अपनी हाजि़री दर्ज कराते हैं. साउंड रिकार्डिस्ट मंगेश देसाई का बारीक काम भी यहां दिखता है. ट्रेन की आवाज के साथ संवाद की मिक्सिंग परफेक्ट है. यह खूबी ट्रेन के दूसरे सीन में ज्यादा मुखर होकर सामने आती है, संजीव, धर्मेंद्र और अमिताभ की बातचीत के दौरान. ट्रेन के साउंड और डायलाग्स, दौनों में क्लेरिटी है. इस सीन में केमरा वर्क भी कमाल का है, आपको लगेगा कोई मंहगी हालीवुड मूवी देख रहे है. बालीवुड में स्टीरियो फोनिक साउंड का उपयोग इसी फिल्म से शुरू हुआ.
शुरुआती दिनों में बॉक्स आफिस पर धड़ाम से गिरने वाली और समीक्षकों का प्रकोप झेलने वाली इस फिल्म में ऐसा क्या था कि बाद में इसे बालीवुड की शताब्दी की श्रेष्ठ फिल्म का दर्जा मिला. ये ऐसी पहली फिल्म थी जिसके बाद फिल्मकारों ने माउथ पब्लिसिटी की ताकत को स्वीकार किया और जनता जनार्दन को सर्वोपरि माना. बताते चलें कि उस दौर के सबसे प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवार्ड में शोले को सिर्फ फिल्म संपादन के लिए एडीटर शिंदे को अवार्ड मिला. जबकि फिल्म का नामिनेशन नौ पुरस्कारों के लिए हुआ था. बाद में फिल्म फेयर ने इसे 50 साल की बेहतरीन फिल्म माना.
ये वो दौर था जब हॉलीवुड के जेम्स बॉण्ड का दुनियाभर में क्रेज था. ये केरेक्टर हिंदुस्तान में भी बहुत पापुलर था. जेम्स बॉण्ड दुनिया का सबसे बड़ा और आधुनिक सुविधाओं से लैस ऐसा जासूस था, जो अपने दुश्मनों के गढ़ों में सेंध लगाने के लिए नए-नए गज़ेट के इस्तेमाल किया करता था. अब हम शोले के एक केरेक्टर की बात करते हैं. क्या आप हरीराम नाई को जानते हैं ? ये जेम्स बॉण्ड का भारतीय रूपांतरण है. जो दाढ़ी पर महज़ उस्तरा चलाकर और चुगलखोरी के सहारे बड़े-बड़े जासूसों को मात देता है. हिंदी मूवी का यह छोटा सा किरदार आज चुगलखोरी (जासूसी) करने वालों का पर्याय बन गया है.
उदाहरण काफी है ये बताने के लिए कि केरेक्टराईज़ेशन के मामले में क्यों शोले की स्क्रिप्ट लाजवाब है. सांभा और कालिया कितने सीन में आए हैं ? और कितने पापुलर हैं ? जवाब आप ही दें. सांभा ने फिल्म में महज दो संवाद बोले हैं और कालिया को आप ऐसे संवाद के लिए याद रखते हैं जो उसने बोला नहीं था, उसे संबोधित कर बोला गया था ' तेरा क्या होगा रे कालिया. धन्नो, लो आपको तो घोड़ी भी याद है तो बसंती को कैसे भूलेंगे. बसंती तो बातूनी औरतों का पयार्य बन चुकी है. सच्ची दोस्ती की मिसाल देनी हो तो उन्हें जय वीरू कहा जाता है. कोई सिनेमाई चरित्र समाज और भाषा की शब्दावली में इस तरह दाखिल हो जाएं, ऐसा कभी नहीं देखा गया है. भूले तो आप हाथ पर रेंगते कीड़े को भी नहीं होंगे ?
क्या आपमें हिम्मत है कि अंग्रेजों के जमाने के जेलर असरानी और सूरमा भोपाली – जगदीप को भूल जाएं ? इतना सन्नाटा क्यों हैं बोलने वाले एके हंगल भी आज तक दिलो दिमाग पर छाए हुए हैं. सलीम-जावेद की कलम ने सचमुच कमाल किया था. यहां यह बताना मौजूं होगा कि सूरमा का किरदार भोपाल के नाहर सिहं बघेल से लिया गया था, जिसे जावेद अख्तर जानते थे. इसी तरह वीरू और जय लेखक सलीम के कालेज के दोस्त थे जिनके नाम थे वीरेन्द्र सिंह व्यास और जयसिंह राव. गब्बर के हाथ पर रेंगता कीड़ा, उसके सामने अहमद (सचिन) की पेशी, रामगढ़ का नाम सुनते ही गब्बर का कीड़े को मसल देना. ये एक छोटा सा उदाहरण भर है जो निर्देशक रमेश सिप्पी की बारीक कल्पनाशक्ति को दिखाता है.
कलाकारों की बात करें तो शुरूआत संजीव कुमार से करना न्यायोचित होगा. धर्मेंन्द्र, अमिताभ और हेमा का जि़क्र तो जरूरी है ही. लेकिन गब्बर और अमज़द खान के बिना सब कुछ अधूरा है. पहली ही फिल्म और महज 15 संवादों से अगर कोई कलाकार आवाम के दिल में इतनी गहरी जगह बना ले कि लोग उसे भूलना चाहकर भी ना भूल पाएं तो उसे और क्या चाहिए. अभिनय में कोई किसी से कम नहीं, सभी लाजवाब.आरडी बर्मन के संगीत की तारीफ के बिना शोले की बात, बेमानी है. सिगनेचर ट्यून सहित उन्होंने अदभुत संगीत रचा. शोले वह फिल्म है जिस पर किताब भी लिखी गई है. जिसके संवाद गली गली में गूंजे और पूरी फिल्म् का आडियो कैसेट ना सिर्फ जारी किया गया बल्कि खूब सुना भी गया. उस ज़माने में कस्बों और गांवों के मेलों में इस कैसेट का बजना अनिवार्य उपक्रम बन गया था.
शोले के बारे में अनेक रोचक बातें आज भी फिज़ाओं में तैर रही हैं. जैसे डैनी ने धर्मात्मा के कारण यह फिल्म छोड़ी. अमिताभ को यह काम सलीम जावेद और धर्मेंन्द्र की सिफारिश के बाद मिला था. रमेश सिप्पी का भरोसा उन पर जम नहीं पा रहा था। अभिताभ सलीम जावेद के साथ जंजीर कर चुके थे पर वो अभी रिलीज़ नहीं हुई थी। दिलीप कुमार जैसे कम बोलने वाले संजीदा अभिनेता ने भी यह स्वीकार किया है कि उन्हें ठाकुर का किरदार छोड़ने का खेद है.
शोले को ना करने का अफसोस सिर्फ कलाकारों तक सीमित नहीं था निर्माता प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई भी इस लिस्ट में शामिल किए जा सकते हैं. वैसे उन्होंने इसे लेकर कभी खेद व्यक्त नहीं किया. एक रिजेक्ट फिल्म् स्क्रिप्ट में बेहतर संभावनाएं तलाशने के लिए जीपी सिप्पी का जि़क्र जरूरी है वो ना होते तो शोले बनती ही नहीं. आर्ट डायरेक्टर राम यादेकर को भी याद किया जाना चाहिए जिन्होंने बंगलोर के पास एक पूरा गांव ही बसा दिया था.
फिल्म में ठाकुर गब्बर को मार देते है लेकिन सेंसर बोर्ड की आपत्ति के कारण क्लाईमेक्स फिर से शूट हुआ और पुलिस ने आकर गब्बर को बचाया. फिल्म् जब शुरूआती दिनों में नहीं चली तो रमेश सिप्पी ने सलीम जावेद को बुलाया। उन्हें अंदेशा था कि जनता को जय के किरदार का मरना पसंद नहीं आया. इसलिए नया सीन लिखा जाए और जय को जिंदा कर सीन को फिर से शूट किया जाए. सलीम जावेद ने कहा कि कुछ दिन देख लेते हैं फिल्म आगे भी नहीं चली तो नया शूट कर लेंगे. लेकिन फिल्म ने बाद में ऐसी रफ्तार पकड़ी कि शूट की नौबत ही नहीं आई.
कुछ ब्लंडर भी. जिस गांव में बिजली नहीं है वहां इतनी बड़ी पानी की टंकी का क्या कर रही है? ट्रेन के शॅाट में लगभग पूरे डाकू "सेम" पोखर पर घोड़े से गिरते हैं, जबकि यह पोखर पहले ही पीछे छूट चुका है. गिरफ्तार वीरू के पास दारू की बोतल कहां से आई जो उसने ट्रेन ड्राइवर को दी. क्लाईमेक्स के सीन में ठाकुर का एक हाथ कुछ क्षण के लिए दिख जाता है यह संपादन की गलती थी। जिस फिल्म को एकमात्र फिल्मफेयर अवार्ड संपादन के लिए मिला हो, वहां शिंदे की ये गलती अखरती है.
शोले के पोस्टर का देखकर लगता है कि यह 70 एमएम पर शूट की गई फिल्म है जबकि ये सच नहीं है. शोले 35 एमएम पर ही शूट की गई थी लेकिन उसे 70 एमएम में ब्लोअप किया गया था, ऐसा बजट को देखते हुए किया गया. उसके बाद भी ये उस दौर की सबसे महंगी मूवी थी. लेकिन इसने पैसा वसूल फिल्म का खिताब तो पाया ही. अगर मुद्रास्फीति को ध्यान में रखें तो शोले को अब तक सबसे ज्यादा कमाई करने वाली फिल्म भी कह सकते है, साफ कर दें ये दावा नहीं है.
कोई भी फिल्म तभी महान और क्लासिक कहलाती है जब वो हर क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ हो. शोले ऐसी ही फिल्म थी. कह सकते हैं, बाबू, ये वो जादू है, जो बार-बार नहीं होता. इसीलिए तो शोले आज भी अपने दर्शकों से खम ठोंक कर कह पा रही है– तेरा क्या होगा रे कालिया!
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जान ता जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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Gulabi
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