सम्पादकीय

एटनबरो और गांधी: कालजयी फिल्म गांधी को आज चालीस वर्ष पूरे

Neha Dani
5 Dec 2022 3:21 AM GMT
एटनबरो और गांधी: कालजयी फिल्म गांधी को आज चालीस वर्ष पूरे
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लेकिन देखने योग्य- रिचर्ड एटनबरो की गांधी के बारे में यह इंदिरा गांधी का आकलन था। और सचमुच ऐसा ही था।
इस हफ्ते रिचर्ड एटनबरो की कालजयी फिल्म गांधी को आए चालीस वर्ष पूरे हो गए। एटनबरो के दस्तावेज लंदन से ट्रेन से घंटे भर की दूरी पर स्थित एक अभिलेखागार में सुरक्षित रखे हुए हैं। हाल ही में अपने प्रवास के दौरान मुझे इस निर्देशक द्वारा बनाई गई इस सबसे महत्वपूर्ण फिल्म की समीक्षाओं से संबंधित अनेक फाइल्स मिलीं। इनमें द टेलीग्राफ में प्रकाशित युवा तवलीन सिंह का आकलन भी था, जिन्होंने एटनबरो की इस कृति के बारे में लिखा, 'अपनी जिंदगी में मैंने जो तीन या चार महान फिल्में देखी हैं, उनमें से एक, और निश्चित रूप से सर्वाधिक प्रभावित करने वाली फिल्मों में से एक।' विदेशियों में इस बात को लेकर कुड़कुड़ाहट थी कि इस फिल्म की फंडिंग भारत सरकार ने की थी। सिंह ने ऐसी आलोचनाओं को खारिज किया और लिखा, 'गांधी को देखने के बाद, मैं यह विश्वास कर सकती हूं कि पैसे सही जगह खर्च किए गए। एटनबरो ने गांधी पर सबसे बड़ी संभावित फिल्म बनाई है। भारत उनके प्रति कृतज्ञता का ऋणी है।'
उसी पीढ़ी की एक अन्य महिला समीक्षक कुछ कम उत्साहित थीं। यह थीं, अमृता अब्राहम और उन्होंने संडे ऑब्जर्वर में लिखा था। बेन किंग्सले के अभिनय की तारीफ करने के साथ ही उन्होंने टिप्पणी की कि 'गांधी के अलावा अन्य भारतीय पात्रों को वैकल्पिक विचारों या रणनीतियों के गंभीर नायकों के रूप में प्रस्तुत करने के बजाय साधारण पुरुषों के रूप में प्रस्तुत किया गया।' गांधी पर अनथक ध्यान केंद्रित कर फिल्म ने अनेक पक्षीय स्वतंत्रता आंदोलन का मौलिक रूप से सरलीकृत संस्करण प्रस्तुत किया है। न ही इसने मुख्य किरदार के नैतिक दृष्टिकोण के साथ न्याय किया है। अब्राहम ने लिखा, 'तीन घंटे की फिल्म में गांधी के प्रमुख विचारों को अनिवार्य रूप से जगह दी गई : स्वदेशी, भौतिकतावादी चीजों का त्याग, नैतिक और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सांकेतिक कार्रवाई, नागरिक अवज्ञा और अहिंसक लेकिन सक्रिय प्रतिक्रिया। लेकिन निजी कृत्यों और राजनीतिक परिणामों को एकीकृत करने वाली एकल, केंद्रीय दृष्टि के रूप में गांधीवाद, व्यक्तिगत विवेक को हिंदू विश्वास की कसौटी बनाता है, समय-समय पर विभाजित होता है और विचार कभी-भी पूरी दृष्टि में एक साथ नहीं आते हैं।'
एटनबरो के दस्तावेज में कई और आलोचनात्मक समीक्षाएं हैं और न्यूयॉर्क के साप्ताहिक, विलेज वॉयस में छपी एंड्र्यू सैरीस की समीक्षा सबसे तीखी है। सैरिस ने टिप्पणी की, 'गांधी से आशय एक व्यक्ति नहीं, बल्कि कुछ चीजों से है; वास्तव में बहुत-सी चीजों से हैः भारतीय स्वतंत्रता, अहिंसा, करिश्माई वैराग्य, नस्लीय और धार्मिक भेदभाव, उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, शोषण और कहने की जरूरत नहीं कि इतिहास से। वास्तव में, फिल्म का संभावित विषय इतना विशाल है कि 188 मिनट का यह सुपर-प्रोडक्शन अधूरा और अविकसित लगता है। निर्देशक एटनबरो और उनके पटकथा लेखक जॉन ब्रेली को अनंत और संभावनाओं की अनंतता से कुछ दृश्य और कुछ घटनाओं का चयन करने के लिए मजबूर किया गया है।'
यह स्वीकार करते हुए, कि कई ऐसे क्षण आते हैं, जब फिल्म जीवंत लगती है, अमेरिकी समीक्षक ने अपनी आमतौर पर नकारात्मक समीक्षा का अंत इस तरह से किया, 'एटनबरो की गांधी की अवधारणा की सबसे बड़ी खामी यही है कि एक जटिल इतिहास को कमतर कर एक आकर्षक कहानी में बदल दिया गया।'
कुछ अंग्रेजों ने भी आलोचनात्मक टिप्पणियां की हैं। न्यू म्यूजिकल एक्सप्रेस में रिचर्ड कूक ने लिखा, 'कुछ शानदार अभिनय के बावजूद अंत में फिल्म ऐतिहासिक पुतलों की परेड जैसी हो जाती है।' कूक की समीक्षा का अंतिम वाक्य दिलचस्प हैः 'मुझे सत्यजीत रे की गांधी देखने में दिलचस्पी होगी।' स्वाभाविक रूप से रिचर्ड एटनबरो को सकारात्मक समीक्षाएं भी मिलीं। इनमें श्रीलंकाई पत्रकार तार्जेइ विट्टाची की एशिया वीक में छपी भावपूर्ण समीक्षा शामिल थी। विट्टाची उन 49 मेहमानों में शामिल थे, जिन्हें विशेष रूप से फिल्म के पूर्वावलोकन के लिए न्यूयॉर्क आमंत्रित किया गया था। उन्होंने एटनबरो की गांधी के बारे में लिखा, 'सिनेमा की मेरी पचास साल पुरानी लत के दौरान यह सर्वाधिक प्रभावित करने वाली फिल्म मैंने देखी। उत्साह से भरपूर होकर हम स्क्रीनिंग रूम से निकले, हर कोई एक तरह की आध्यात्मिक उदारता से प्रभावित था और इस रहस्योद्घाटन से विस्मय के भाव से भरा हुआ था कि असली सत्ता बंदूक की नली से नहीं निकलती।'
अपने जीवन काल में, गांधी एक बहुत ही विवादास्पद व्यक्ति थे, व्यापक रूप से और ईमानदारी से उनकी जितनी प्रशंसा की गई, उतनी ही उनकी जमकर निंदा की गई। इसलिए यह अचंभित करने वाली बात नहीं थी कि उनकी मृत्यु के साढ़े तीन दशक बाद उनके बारे में बनी एक बड़े बजट की बहुत चर्चित फिल्म इतनी जोरदार और अलग-अलग प्रतिक्रियाओं को आकर्षित करेगी। मैंने पहली बार इसे प्रदर्शित होने पर सिनेमा हॉल में देखा था, और तब से इसे कई बार देखा है, आमतौर पर गांधी की विरासत पर एक पाठ्यक्रम में छात्रों के साथ जिसे मैंने वर्षों से पढ़ाया है।
मुख्य भूमिका में बेन किंग्सले शानदार थे। सांप्रदायिक सद्भावना के लिए गांधी के अंतिम उपवासों का चित्रण संवेदनशील और मार्मिक ढंग से किया गया है। दूसरी ओर, अधिकांश अन्य पात्रों को कम दृढ़ विश्वास के साथ निभाया गया था, जबकि गांधी के कुछ सबसे उल्लेखनीय समकालीन और प्रतिद्वंद्वियों, जैसे कि भीमराव आंबेडकर और सुभाष चंद्र बोस, रहस्यमय रूप से फिल्म में बिल्कुल भी शामिल नहीं थे।
मैं इस 'समीक्षाओं की समीक्षा' को उस शख्स की प्रतिक्रिया के बारे में बताकर समाप्त करना चाहता हूं, जिसने फिल्म के लिए भारत सरकार के वित्त पोषण की हरी झंडी दी, अर्थात्, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी। विनोद मेहता के साथ एक साक्षात्कार में, एटनबरो ने दावा किया कि जब उन्होंने प्रधानमंत्री को फिल्म दिखाई थी, तो उन्होंने केवल दो सुझाव दिए: 'उन्होंने कहा, चूंकि आप बापू के जीवन को तीन घंटों में समेटने की कोशिश कर रहे हैं, मैं आपसे आग्रह करती हूं कि फिल्म की शुरुआत में इस आशय का एक बयान दें। उन्होंने जो दूसरी टिप्पणी की, वह यह थी कि बा का संवाद, जो कि विशेष रूप से शुरुआती वर्षों की समकालीनता से जुड़ा था। उन्होंने कहा कि 90 साल पहले महिलाएं अपने पति से बेहद औपचारिक तरीके से बात करती थीं। उन्होंने सुझाव दिया कि मैं इसे फिर से देखूं। मैंने उनके दोनों सुझावों का पालन किया।'
दो अक्तूबर, 1982 को इंदिरा गांधी ने अपने अमेरिकी दोस्त डोरोथी नॉर्मन को लिखा, 'गांधी फिल्म की शुरुआत शानदार ढंग से हुई है। यह प्रभावशाली है। यह अच्छा है कि दुनिया गांधी जी के विचार से अवगत हो। फिर भी, उन लोगों के लिए जिन्होंने वह दौर देखा था, फिल्म दर्शनीय है, भव्य और शक्तिशाली है, हालांकि इसमें भारत की भावना में निहित कुछ अच्छी बातों का अभाव भी है। त्रासदी यह है कि कोई भी भारतीय फिल्म निर्माता उस शानदार जन आंदोलन की महानता या उसे नेतृत्व देने वाले उन उल्लेखनीय पुरुषों और महिलाओं (लगभग हर जिले में इसके नायक और नायिकाएं हैं) से प्रभावित नहीं हुआ है। गांधी जी उसके शिखर थे। फिल्म उन्हें एक नाटकीय 'सुपर स्टार' जैसा मसीहा बनाती है - वह जितना थे, उससे अधिक नहीं, बल्कि अन्य कारकों को कम करने की वजह से थोड़ा कमतर। सतही, लेकिन देखने योग्य- रिचर्ड एटनबरो की गांधी के बारे में यह इंदिरा गांधी का आकलन था। और सचमुच ऐसा ही था।

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सोर्स: अमर उजाला

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