- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- देशद्रोह को फिर समझने...
x
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) में उन प्रावधानों का जिक्र है
पवन दुग्गल
भारतीय दंड संहिता की धारा 124 (ए) में उन प्रावधानों का जिक्र है, जिनसे किसी शख्स को देशद्रोही साबित किया जाता है। यदि आप ऐसा कोई काम करते हैं, जो अपने शब्दों (चाहे वे लिखित हों या मौखिक) से या परिणामों से भारत सरकार के प्रति विरोध जताता है या लोगों को भारत सरकार के खिलाफ करने की कोशिश करता है, तो वह देशद्रोह कानून के दायरे में आता है। इसमें कैद (जो आजीवन भी हो सकती है), जुर्माना या दोनों तरह की सजा के प्रावधान हैं। अगर इस कानून के तहत कोई दोषी साबित हो गया, तो उसे कम से कम तीन साल की कैद या जुर्माना या फिर दोनों तरह की सजा मिलेगी ही।
यह औपनिवेशिक काल का कानून है, जिसका इस्तेमाल ब्रिटिश साम्राज्य में होता था। स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज इससे कुचली जाती थी और उनके आंदोलन को विफल करने के प्रयास होते थे। मगर आज हमारा राजनीतिक और सामाजिक परिवेश पूरी तरह से बदल चुका है। देश अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह मनाने जा रहा है। ऐसे में, इस कानून का भला क्या औचित्य है? यह सवाल विभिन्न प्रकार की जनहित याचिकाओं में सर्वोच्च अदालत के सामने उठाए गए हैं। इसकी वजह थी पिछले कई वर्षों से इस कानून का हो रहा दुरुपयोग। न सिर्फ राजनीतिक विरोधियों को निशाना बनाने और उनको परेशान करने के लिए, बल्कि आलोचना के स्वर को शांत करने के लिए भी इसका जमकर इस्तेमाल हो रहा है। आलम यह है कि अगर कोई व्यक्ति हनुमान चालीसा का पाठ करने जा रहा हो, तो उसके ऊपर भी देशद्रोह कानून लगा दिया जाता है, जिसका न कोई औचित्य है और न धारा 124 (ए) का कोई प्रावधान उस पर लागू होता है।
सुप्रीम कोर्ट इस कानून के दुरुपयोग को लेकर ही चिंतित था। 2021 में भी उसने एक सुनवाई के दौरान सरकार से इसको निरस्त करने को कहा था। उसके तर्क थे कि इनमें जिन प्रावधानों का जिक्र है, वे औपनिवेशिक युग के हैं, जो स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ इस्तेमाल होते थे। आज माहौल बदल चुका है और कोविड-19 के बाद ज्यादातर भारतीय इंटरनेट पर हैं। चूंकि भारत इंटरनेट की दुनिया में सबसे बड़े बाजार के रूप में उभर रहा है, इसलिए इस कानून के दायरे को या तो छोटा करना चाहिए या फिर इनमें संशोधन होना चाहिए। शायद सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मूड को अब जाकर पढ़ा है, क्योंकि हाल-फिलहाल तक वह इस कानून का समर्थन कर रही थी। माना जा रहा है कि सरकार के अचानक यू-टर्न की वजह तीन जजों की खंडपीठ का वह कथन है, जिसमें उसने 10 मई, 2022 को इस पर बहस सुनने की बात कही थी कि यह मामला पांच जजों की पीठ के पास जाना चाहिए अथवा नहीं? सरकार को जब लगा कि यह मामला सांविधानिक पीठ के हवाले किया जा सकता है, जिससे उसके सामने असहज परिस्थिति पैदा हो सकती है, तो उसने इस कानून की तत्काल समीक्षा करने की बात कही। शीर्ष अदालत ने भी सरकार की दलील को मान लिया है।
जब इस कानून की समीक्षा की बात होती है, तो तीन तरह की सोच सामने दिखती है। पहली, इस तरह के कानूनी प्रावधान खत्म कर देने चाहिए, क्योंकि इनकी अब कोई प्रासंगिकता नहीं बची। दूसरी, इस कानून को बनाए रखना चाहिए, क्योंकि देश को इसकी सख्त जरूरत है, खासकर राष्ट्रविरोधी ताकतों को देखते हुए। और तीसरी सोच उन लोगों की है, जो मानते हैं कि यह कानून तो कायम रहना चाहिए, लेकिन इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए इसके इस्तेमाल पर कुछ वाजिब अंकुश लगाया जाना चाहिए। इस सोच के समर्थक मानते हैं कि अगर कानूनी किताब से इसे पूरी तरह से हटा दिया जाएगा, तो देश की संप्रभुता, सुरक्षा और अखंडता को नुकसान पहुंच सकता है।
जाहिर है, सरकार इनमें से तीसरे विकल्प को चुन सकती है, क्योंकि हर हुकूमत इस तरह के कानून की हिमायती दिखती है। उसका मानना है कि अगर कोई व्यक्ति भारत के हितों के खिलाफ काम करता है, तो उसके ऊपर कानूनी कार्रवाई होनी ही चाहिए। मगर हां, इस कानून के पंख जरूर काटे जा सकते हैं। संभव है कि इसमें 'चेक ऐंड बैलेंस' का भी प्रावधान बने। सरकारों को यह समझना होगा कि उनकी आलोचना देशद्रोह के दायरे में नहीं आती। इसके अलावा, उन सीमित परिस्थितियों को भी परिभाषित किया जाना चाहिए, जिनमें इस कानून के इस्तेमाल की अनुमति हो सकती है। फिर, ऐसा भी नहीं होना चाहिए कि सरकार अपनी मनमानी करे। अगर सरकारों को देशद्रोह निर्धारित करने का पूरा अधिकार दे दिया जाएगा, तो उनके तमाम आलोचक देशद्रोही ठहरा दिए जा सकते हैं। इसलिए, जिस तरह से संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत मिले स्वतंत्र अभिव्यक्ति संबंधी मौलिक अधिकार पर कुछ बंदिशें हैं, उसी तरह से देशद्रोह कानून को आयद किए जाने संबंधी परिस्थितियों पर भी कुछ अंकुश जरूर लगने चाहिए।
साफ है, इस कानून के औचित्य पर किंतु-परंतु का कोई सवाल नहीं है। वैसे भी, देश के अंदर और बाहर इतने 'नॉन-स्टेट एक्टर्स' काम कर रहे हैं कि भारत की स्थिरता को हमेशा खतरा बना रहता है। ऐसे में, इस कानून की जरूरत हमें हर वक्त पड़ेगी। मगर हां, हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निर्दोष नागरिकों के खिलाफ इसका बेजा इस्तेमाल नहीं हो। इसकी हरसंभव कोशिश होनी चाहिए कि लोगों के मौलिक अधिकारों का हनन न हो, और इसकी जिम्मेदारी स्वाभाविक तौर पर सरकार की होनी चाहिए। उसे इस तरह से सामंजस्य बनाना होगा कि एक तरफ उसके हितों की रक्षा हो सके, तो दूसरी ओर लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा। सरकार यह 'गोल्डन बैलेंस' किस तरह बनाती है, इस पर नजर बनी रहेगी। हालांकि, हर राष्ट्र यही चाहता है कि वह ऐसे प्रावधान बनाए रखे, जो उसके हितों को चोट पहुंचाने वाली ताकतों के खिलाफ कारगर हो। अमेरिका, ब्रिटेन, सिंगापुर जैसे उन्नत देशों में भी देशद्रोह कानून जैसे प्रावधान हैं। जाहिर है, अपने देश में इस कानून की समीक्षा एक सराहनीय कदम है, और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरदर्शिता का परिचायक भी है, जो औपनिवेशिक काल के कानूनों के खिलाफ हमेशा मुखर रहे हैं।
Rani Sahu
Next Story