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यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई के साथ ही यह संकट नये दौर में प्रवेश कर गया है
By अनिल त्रिगुणायत
यूक्रेन में रूस की सैन्य कार्रवाई के साथ ही यह संकट नये दौर में प्रवेश कर गया है. अब तक रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और उनके सहयोगी कहते रहे थे कि अगर मिंस्क समझौते का पालन होगा और नाटो अपना विस्तार रोक देगा, तो यूक्रेन पर रूस हमला नहीं करेगा, लेकिन राष्ट्रपति पुतिन ने यूक्रेन से अलग हुए दो गणराज्यों- डोनेस्क और लुहांस्क- को मान्यता देकर पहले ही मिंस्क समझौते को अप्रभावी बना दिया था.
इससे पहले उन्होंने जर्मनी और फ्रांस को अपने इस निर्णय की सूचना दी थी, जो इस तनाव को कम करने और किसी सहमति पर पहुंचने के लिए बड़ी मेहनत कर रहे थे. फ्रांस के राष्ट्रपति मैक्रों ने तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन और अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को शिखर बैठक के लिए भी मना लिया था, पर वह नहीं हो सकी और उसकी जगह 24 फरवरी को अमेरिकी विदेश सचिव एंथनी ब्लिंकेन और रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव के बीच बातचीत होनी थी, जो नयी परिस्थितियों में संभव नहीं है.
पश्चिमी देशों और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दो यूक्रेनी क्षेत्रों को स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता देने और वहां कथित रूप से 'शांति सैनिक' भेजने की निंदा की थी. वह कार्रवाई ठीक 2008 के जॉर्जिया युद्ध की तरह थी, जब रूस ने दक्षिण ओसेतिया और अब्खाजिया को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दे दी थी. संयुक्त राष्ट्र की शब्दावली के लिए नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हैं.
झपटने के लिए तैयार (रेड्डी टू पाउंस) और सत्ता परिवर्तन (रिजीम चेंज) सभी बड़ी ताकतों का एजेंडा रहा है, जिसमें अमेरिका और उसके यूरोपीय सहयोगियों को महारत रही है. ऐसा लगता है कि एकतरफा कार्रवाई बड़ी ताकतों का पसंदीदा विकल्प बन गया है. पश्चिमी देशों ने रूस और यूक्रेन से अलग हुए क्षेत्रों पर कई पाबंदियां लगा कर रूसी कार्रवाइयों का जवाब दिया है.
आगामी दिनों में और भी पाबंदियां लगायी जा सकती हैं. रूस को आर्थिक प्रतिबंधों से पैदा होनेवाली परेशानियों से जूझने का लंबा अनुभव है. हालिया प्रतिबंधों से उसके सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और मुद्रा के मूल्य में नुकसान हुआ है, लेकिन जब प्राथमिकता भू-राजनीति हो, तो महाशक्तियां अपने सिक्कों की परवाह कहां करती हैं!
बर्लिन की दीवार गिरने और सोवियत संघ के विघटन के समय से ही रूस उम्मीद करता आ रहा है कि पूर्व की ओर नाटो, यूरोपीय संघ या ट्रांसअटलांटिक प्रोजेक्ट का विस्तार नहीं किया जायेगा. उसे भली-भांति यह पता था कि वह अमेरिका या यूरोप के साथ जो भी सहमति बनाये, समय के साथ वह प्रभावहीन हो जायेगी तथा रूसी सत्ता की जकड़ से छूटते ही ऐतिहासिक कारणों और शिकायतों की वजह से पूर्वी यूरोप और बाल्टिक क्षेत्र के अनेक देश दूसरी ओर रुख कर लेंगे.
ऐसे अवसर को पहले गोर्बाचेव और पेरेस्त्रोइका व ग्लास्नोस्त जैसी नीतियों ने तथा फिर बोरिस येल्त्सिन ने मुहैया कराया था, लेकिन फिर पुतिन रूस की सत्ता में आ गये. गुप्तचरी की कला और इससे संबंधित जोखिम भरे कार्यों में प्रशिक्षित तेज दिमाग वाले राष्ट्रपति पुतिन बहुत अच्छी तरह जानते थे कि अमेरिका से नजदीकी बढ़ाने की कोशिशों से और भी अपमान होगा या फिर उसका पिछलग्गू बनना पड़ेगा.
अमेरिकी सत्ता तंत्र की भीतरी तहें तथा रूस में 'सिलोविकी' जैसे सुरक्षा समूह केवल क्रूर शक्ति, हावी होने की प्रवृत्ति और गुपचुप गतिविधियों की भाषा समझते हैं. वास्तविक राजनीति, भू-राजनीति, भू-आर्थिकी, ताकत दिखाना, प्रभाव क्षेत्र बढ़ाना तथा गठबंधन बनाना स्थापित रणनीतिक आचार-व्यवहार हैं. इन्हीं के सहारे महाशक्ति बना जाता है.
पुतिन का मानना है कि यूक्रेन एक सुरक्षा परिधि और लाल रेखा होने के अलावा इतिहास एवं संस्कृति के आधार पर भी वह रूस से जुड़ा है. जुलाई, 2020 को लिखे उनके खुले पत्र में यूक्रेन के साथ पहचान और अंतर्निर्भरता का आह्वान है. दो क्षेत्रों को मान्यता देते हुए भी उन्होंने लेनिन, स्टालिन और कम्युनिस्ट पार्टी की ऐतिहासिक गलतियों के साथ अपने पूर्ववर्ती की खामियों को भी रेखांकित किया था.
उसमें उन्होंने यूक्रेन को लेकर पश्चिम और नाटो की गतिविधियों को भी दोषी ठहराया. पुतिन ने कहा कि 'हमारे लिए यूक्रेन केवल एक पड़ोसी देश नहीं हैं, बल्कि हमारा इतिहास, संस्कृति, आध्यात्मिक स्थान भी है, पर यूक्रेन ने अपने पश्चिमी मालिकों से भी आगे जाते हुए अपने ही नागरिकों, कंपनियों, चैनलों, यहां तक कि अपने सांसदों पर ही पाबंदी लगा दी.'
उन्होंने मार्च, 2021 में घोषित यूक्रेन की सैन्य रणनीति को भी खारिज किया, जिसमें रूस के साथ युद्ध की स्थिति में दूसरे देशों का समर्थन लेने का प्रावधान है. सुरक्षा परिषद में रूस ने अनेक शर्तों और प्रस्तावों को रखा है, जिनमें कुछ को मानना बहुत कठिन है, लेकिन वह पश्चिम को यह बताने में सफल रहा है कि किसी भी युद्ध के परिणाम उसके, यूक्रेन, यूरोप और विश्व के लिए गंभीर होंगे क्योंकि एक छोटे युद्ध के बाद शीत युद्ध का नया दौर शुरू हो जायेगा. तेल की कीमतें बढ़ने लगी हैं. यूरोप की गैस आपूर्ति पर खतरा मंडरा रहा है. यूक्रेन की संप्रभुता पर भी प्रश्नचिन्ह लग गया है.
आगामी समय में हम कतर को यूरोप में गैस भेजता हुआ देख सकते हैं, जहां गैस निर्यातक देशों की बैठक भी होनी है, जिसमें रूस एक बड़ा खिलाड़ी है. अगर स्थिति अधिक बिगड़ती है, तो ईरान परमाणु समझौते को जल्दी अंतिम रूप दिया जा सकता है ताकि वहां से यूरोप को तेल व गैस मिल सके. रूस को इस हमले से कुछ अधिक हासिल नहीं होगा क्योंकि उसके पास पहले से ही क्रीमिया का अहम बंदरगाह है तथा पूर्वी यूक्रेन के अलग हुए क्षेत्र उसके साथ हैं, जो बड़े युद्ध की स्थिति में रूस के लिए आड़ बन सकते हैं.
लेकिन युद्ध भड़कने से चीन के अलावा सबको नुकसान होगा. चीन संवाद और कूटनीति से यूक्रेन संकट के समाधान की बात करता रहा है. चीनी विदेशमंत्री वांग यी ने म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में बातचीत को तरजीह देने की नीति को स्पष्ट किया था. अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडेन की छवि को अफगानिस्तान प्रकरण से झटका लगा है और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पार्टी गेट मामले से घिरे हैं.
ये नेता शायद यूक्रेन मामले का घरेलू फायदा नहीं उठा पायेंगे. इसका कारण है कि यह संकट अनिश्चितताओं से घिरा हुआ है. ट्रांसअटलांटिक एकता अभी भी मजबूत है, पर वह भी खतरे में है क्योंकि यूरोपीय देश अपने हितों की ओर भी देख रहे हैं. संवाद और कूटनीति से संकट के समाधान की भारत की नीति उचित है क्योंकि इससे उसके विशिष्ट एवं रणनीतिक सहयोगी रूस तथा वैश्विक सहयोगी अमेरिका में किसी एक का पक्ष लेने की नौबत नहीं आयेगी.
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