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By: divyahimachal
चुनावी राज्य की संज्ञा में हिमाचल प्रदेश की प्रवृत्ति का अस्थायी स्वरूप, पुन: कई मामलों में हाजिर है। यहां चुनाव के पांव में सभी का पांव फंसा है। क्या राजनेता, क्या प्रजा और क्या सरकारी व्यवस्था में बजट सजा, सभी एक साथ कदमताल कर रहे हैं। जैसे सत्ता का त्योहार आबंटन कर रहा हो या आगामी सत्ता से इकरार कर रहा हो। राजनीति हम सब पर भारी, लेकिन राज्य के सरोकार अदृश्य हो रहे हैं। यहां मिशन रिपीट के स्वार्थ में एक तगड़ी बिसात है, तो 'बदल के रख देंगे' की नसवार में बदला लेने का नशा है। जाहिर है अंतत: एक नई सरकार बनेगी, जो पिछली की काया में या विपक्ष की छाया में परवान चढ़ सकती है, लेकिन तब तक हमारा खजाना नाक भौं सिकोड़ता हुआ भी शायद ही हमारी जिम्मेदारी और जवाबदेही पर कुछ कह पाएगा। यह दीगर है कि वर्तमान चुनाव की दीवार को लांघते हुए सरकार राज्य की जनता पर करीब 70 हजार करोड़ के कर्ज की मोटी चादर चढ़ा चुकी होगी। इस दौरान कितने स्कूलों की छतों के नीचे शिक्षा के नए ताज व कार्यालयों के नए हालात विकसित हो चुके होंगे, कौन जानता है। शायद नए कालेज खोलने की मांग अब चाय के कप की तरह हो गई है।
शक्ति के अजीब प्रदर्शन के बीच हर चुनाव हमसे पूछे बगैर भी खैरात बांटता है, इसलिए चुनाव में फंसे सरकारों के पांव हमें कीचड़ में चलने की दिशा दिखाते हैं। हम मान नहीं सकते, क्योंकि मतदाता को भी अब सरकारों से इतना चाहिए, जितनी हिमाचल की औकात नहीं। ऐसे में यह भी सोचना होगा कि क्या प्रदेश की राजनीतिक हैसियत देखते हुए कोई बता सकता है कि कौन सी पार्टी मजबूत है। यकीनन जवाब नहीं में इसलिए क्योंकि वोट देने तक मतदाता चुनावी खर्च में अपनी हिस्सेदारी टटोल रहा होता है। अब चुनाव में हम एक जेब देख सकते हैं, जिसे हर पार्टी लंबा करना चाहती है। वर्षों से इस जेब से मुखातिब कर्मचारी वर्ग अपनी अंगुलियों पर सियासत को नचा रहा है, लेकिन न सत्ता के पक्ष में इसे फरियादी बनाने के बजाय स्थायी रूप से संवारा गया और न ही प्रदेश की कार्यसंस्कृति को इस काबिल बनाया गया है ताकि स्थायी तौर पर प्रदेश की नीतियां सामने आतीं। हर पार्टी चुनाव से पहले अपने आचरण में कमजोर, चरित्र में ढुलमुल और शक्ति में आशंकित है।
यही वजह है कि जब किसी दूसरी पार्टी का विधायक सत्ता पक्ष में आ रहा है, तो इससे गौरवान्वित होने की वजह ढूंढी जा रही है। चुनाव की धडक़न में किसकी सांसें उखड़ रही हैं, इसी हिसाब में नकली सर्वेक्षण, सोशल मीडिया का आक्रमण और मुख्य मीडिया का आश्वासन पूरी तरह असंतुलित व पूर्वाग्रहों से प्रभावित होने के लिए जिरह ढूंढ रहे हैं। चुनावी जिरह में उम्मीदवारों की तलाश, फिर कहीं जातियों के पदचिन्हों पर खड़ी है। सबसे बड़ी भागम भाग उन कलाकारों में है जो वर्षों से सरकारी दामन से चिपक कर मौके की तलाश में रहे हैं। कुछ सरकारी कर्मचारी नेता, नौकरशाह, अधिकारी व डाक्टर तक, चुनाव के पांव में फंस चुके हैं। जाहिर है हमारी सरकारी कार्यसंस्कृति हर चुनाव आने तक कुछ नेतानुमा लोगों को पुचकारती है और फिर यकायक हम पाते हैं कि सरकार में रहते हुए राजनीतिक हाथ कितने लंबे हो सकते हैं। चुनाव जिन पांवों पर चलकर पहले आता रहा, कमोबेश उन्हीं पर लौट रहा है, लेकिन अंतर केवल इतना होगा कि इस बार इसके संगी-साथी कितना त्राहिमाम-त्राहिमाम मचा देते हैं। चुनावी पांव चलते हुए सरकार के पास अपनी हकीकत और सत्ता का वैभव है, विपक्ष के पास एक सुनहरा अवसर और जनता के पास न जाने कितने घटक हैं। ये घटक या तो उम्मीदवार बन जाएंगे या मतदाता बन कर असंभव को बटोरना चाहेंगे।
Rani Sahu
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