सम्पादकीय

विधानसभा चुनाव : गोवा में बीजेपी ने क्यों एक परिवार एक टिकट नीति की अनदेखी की?

Gulabi
24 Jan 2022 5:33 AM GMT
विधानसभा चुनाव : गोवा में बीजेपी ने क्यों एक परिवार एक टिकट नीति की अनदेखी की?
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राजनीति में लिए गए कई निर्णय समझ से परे होते हैं
अजय झा . राजनीति में लिए गए कई निर्णय समझ से परे होते हैं. गोवा विधानसभा चुनाव ( Goa Assembly Election ) में भारतीय जनता पार्टी (BJP) ने हाल ही में अपने 34 प्रत्याशिय़ों की सूची जारी कि जो बीजेपी की नीति से थोड़ा हट कर था. हम यहां पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर (Manohar Parrikar ) के बड़े बेटे उत्पल पर्रिकर की बात नहीं कर रहे हैं, हालांकि उन्हें टिकट नहीं दिया जाना बीजेपी के लिए किसी सरदर्द से कम नहीं है. उत्पल ने अपने स्वर्गीय पिता की पणजी निर्वाचन क्षेत्र से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने की घोषणा करके बीजेपी की मुसीबतें बढ़ा दी हैं. हम जिक्र कर रहे हैं बीजेपी द्वारा दो दम्पतियों को अपना प्रत्याशी घोषित करने की.
बीजेपी की दो पुरानी नीति है, पहला एक व्यक्ति एक पद और दूसरा एक परिवार एक टिकट. एक व्यक्ति एक पद नीति की अवहेलना यदा कदा ही हुयी है, पर हरेक चुनाव के दौरान एक परिवार एक टिकट की नीति विवादों में घिर जाती है.गोवा में बीजेपी की सूची में दो दंपती शामिल हैं – पणजी के विधायक अतनासियो मोंटेसेरेट और उनकी पत्नी जेनिफर मोंटेसेरेट जोतालेगांव से विधायक और वर्तमान सरकार में मंत्री है, तथा वर्तमान मंत्री विश्वजीत राणे कोवाल्पोई और उनकी पत्नी दिव्या राणे को पोरियम से टिकट दिया गया है.
चार दंपतियों ने आवेदन किया था
बीजेपी के समक्ष चार दम्पतियों का आवेदन था. मोंटेसेरेट और राणे दम्पतियों के आलावा अभी हाल तक मंत्री तक रहे माइकल लोबो और उनकी पत्नी दलीला लोबो तथा वर्तमान उपमुख्यमंत्री चंद्रकांत कावलेकर और उनकी पत्नी कमला कावलेकर का. इन चारों दम्पतियों में पति या पत्नी गोवा सरकार में मंत्री थे या हैं. दो दम्पति को टिकट दी गयी और दो को एक परिवार एक टिकट नीति का हवाला देकर टिकट देने से इन्कार कर दिया गया. जहां माइकल लोबो ने बीजेपी और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और अब लोबो दंपती को कांग्रेस पार्टी नेअपना प्रत्याशी घोषित किया है, चंद्रकांत कावलेकर की पत्नी सविता कावलेकर, जो गोवा में महिला बीजेपी की उपाध्यक्ष थीं ने पद और पार्टी से इस्तीफा दे कर संगुएम सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया है.
बीजेपी ने दलील दी कि पार्टी ने उन्हें ही टिकट दिया जिसके जीतने की संभावना अधिक है. मोंटेसेरेट दंपती पर यह लागू होता है, क्योंकि दोनों कांग्रेस पार्टी के विधायक थे और उन 10 कांग्रेसी विधायकों में हैं जो 2019 में बीजेपी में शामिल हो गये थे. जीतने की संभावना राणे दंपती की भी है. विश्वजीत राणे लगातार तीन बार से विधायक हैं, पर दिव्या राणे के लिए यह पहला चुनाव होगा.
दिव्या राणे के मामले में यह साफ़ है कि उन्हें एक कूटनीति के तहत टिकट दिया गया है. विश्वजीत राणे 2017 में कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गए थे, पर विधायक के रूप में शपथ लेने से पहले ही उन्होंने कांग्रेस पार्टी और विधानसभा से इस्तीफा दे दिया और बीजेपी में शामिल हो गए. उपचुनाव में बीजेपी के टिकट पर जीत कर फिर विधायक बने. उनके पिता प्रताप सिंह राणे हैं जो गोवा के सर्वाधिक पांच बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं. बीजेपी लगातार कोशिश करती रही कि वह उन्हें भी पार्टी में शामिल कर ले. कांग्रेस ने मौके की नजाकत को भांपते हए 82 वर्ष के बुजुर्ग नेता प्रताप सिंह राणे को पोरियम से अपना प्रत्याशी काफी पहले ही घोषित कर दिया था. खबर है कि हाल ही में महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस,जो गोवा में बीजेपी के प्रभारी हैं, प्रतापसिंह राणे से मिले थे. राणे ने बीजेपी में शामिल होने और स्वयं चुनाव लड़ने से मना कर दिया और अपनी पुत्रवधू को टिकट देने को कहा, जिसे बीजेपी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया. इसकी संभावना अब नहीं के बराबर है कि प्रताप सिंह राणे अपने पुत्रवधू के खिलाफ पोरियम से चुनाव लड़ेंगे.
सविता कावलेकर भी अपने पति के साथ 2019 में कांग्रेस पार्टी छोड़ कर बीजेपी में शामिल हुयी थीं. 2017 के चुनाव के वह सांगुएम से कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ी थीं और तीसरे स्थान पर रहीं थीं. उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि बीजेपी को सविता कावलेकर की जीत पर शक था. लिहाजा उन्हें टिकट देने से मना कर दिया. चंद्रकांत कावलेकर को भी शायद अपनी पत्नी की जीत का भरोसा नहीं था, इसलिए उन्होंने इसका विरोध भी नहीं किया. पर यह समझ से परे है कि बीजेपी ने क्यों दलीला लोबो को टिकट देने से पहले ही मना कर दिया था?
माइकल लोबो बीजेपी के पुराने नेता थे, कलंगुट से बीजेपी की टिकट पर दो बार चुनाव जीते थे. विधानसभा के उपाध्यक्ष और फिर बात में कैबिनेट मंत्री बने, पर अपनी पत्नी को कलंगुट के साथ वाली सिओलिम सीट से टिकट दिलाने की जिद पर अड़ गए. लोबो का दावा है कि उत्तर गोवा की कम से कम पांच सीटों पर उनका दबदबा है, जो अपुष्ट है क्योकि 2017 में सिओलिम सीट से गोवा फारवर्ड पार्टी के उम्मीदवार की जीत हुयी थी. बीजेपी अगर चाहती तो लोबो की मांग मान भी सकती थी, पर उन्हें एक परिवार एक टिकट का हवाला देते हुए मना कर दिया और लोबो पत्नी सहित कांग्रेस पार्टी में शामिल हो गए. बीजेपी के लिए कलंगुट की सीट जीतना मुश्किल होगा. रही बात सिलोलिम की तो वहां से बीजेपी के प्रत्याशी हैं दयानंद मान्द्रेकर जो 2017 के चुनाव में दूसरे स्थान पर रहे थे. अब उनकी टक्कर दलीला लोबो से है. लगता तो ऐसा ही है कि बीजेपी शायद माइकल लोबो के दबाव की राजनीति और बार बार बीजेपी छोड़ने की धमकी से ऊब चुकी थी और कलंगुट और सिओलिम से चांस लेने का फैसला कर लिया.
वैसे पह पहली बार नहीं है कि बीजेपी ने एक परिवार एक टिकट की नीति से समझौता किया हो. जहां जरूरत होती है, बीजेपी एक ही परिवार के एक से अधिक सदस्यों को टिकट देने से परहेज नहीं करती. इसके कई उदाहरण हैं. मां-बेटा मेनका गांधी और वरुण गांधी दोनों 2009 से सांसद हैं, राजनाथ सिंह लोकसभा और उनके बेटे पंकज सिंह नोएडा से विधायक हैं, राजस्थान में वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री थीं (वर्तमान में विधायक) और पुत्र दुष्यंत सिंह सांसद, स्वामी प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश में अभी हाल तक ही मंत्री थे और उनकी बेटी संघप्रिया मौर्य लोकसभा सदस्य हैं, एक समय में हरियाणा के नेता चौधरी बिरेन्द्र सिंह में परिवार के तीन सदस्य – स्वयं बिरेन्द्र सिंह केंद्रीय मंत्री, पुत्र ब्रिजेन्द्र सिंह लोकसभा के सदस्य और पत्नी प्रेमलता सिंह हरियाणा विधानसभा की सदस्य, हिमाचल प्रदेश में प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल मुख्यमंत्री थे और उनके पुत्र अनुराग ठाकुर, जो अब केंद्रीय मंत्री हैं, सांसद. ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब बीजेपी ने इस नीति से समझौता किया है. वहीं हरियाणा में ही केन्द्रीय मंत्री राव इन्द्रजीत सिंह पार्टी से इसलिए खफा रहते हैं कि पिछले दो विधानसभा चुनावों में उनकी बेटी आरती सिंह को एक परिवार एक टिकट के नाम पर टिकट काट दिया जाता है.
शायद समय आ गया है कि बीजेपी एक परिवार एक टिकट की बात करने की बजाय यह दलील दे कि वह उन उम्मीदवारों को टिकट देती है जिनके जीतने की संभावना अधिक होती है. इसमें कोई हर्ज़ भी नहीं है क्योकि चुनाव जीतने के लिए ही लड़ा जाता है. नीति में समझौता करने से कहीं बेहतर होता है समय के साथ नीति में परिवर्तन करना. ताकि पार्टी की किसी नीति का जनता में मजाक ना बने, जिसकी धज्जी इस बार गोवा में उड़ती दिख रही है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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