सम्पादकीय

Assembly Elections: जातीय मतदाता वर्ग की जगह काम आया लाभार्थी समुदाय

Gulabi
13 March 2022 8:47 AM GMT
Assembly Elections: जातीय मतदाता वर्ग की जगह काम आया लाभार्थी समुदाय
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पिछले कई चुनावों से यह धारणा बन चुकी है कि जीत-हार में जातियां ही निर्णायक हुआ करती हैं
पिछले कई चुनावों से यह धारणा बन चुकी है कि जीत-हार में जातियां ही निर्णायक हुआ करती हैं. हाल के कुछ चुनाव इसके अपवाद भी बने. सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में जब नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हुए, तो उनके नाम पर जातियों की सीमाएं टूटती नजर आईं. फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी यही हुआ. लगातार दूसरी बार, खासकर उत्तर प्रदेश में दलित और पिछड़े समुदाय को साधने की बसपा-सपा कोशिश भी नाकाम होती हुई दिखी. उत्तर प्रदेश विधानसभा के दो चुनाव भी कमोबेश ऐसे ही गुजरे हैं. ताजा चुनाव परिणाम ने तो जैसे स्पष्ट संदेश दिए हैं कि जाति की जगह कुछ अन्य मसले भी चुनाव के फैसले किया करेंगे. क्या हैं वे मसले, इस पर चर्चा शुरू हो चुकी है. लोग याद कर रहे हैं कि यह मंडल पर कमंडल के भारी होने का परिणाम है. ध्यान से देखें तो जातीय समीकरण का जवाब जातीय गठबंधन से ही दिया गया है. भाजपा की रणनीति पर नजर रखने वाले उसकी सफलता को मंडल और कंमडल, दोनों के योग का प्रतिफल बता रहे हैं. यह योग तीसरा रूप धारण करता दिख रहा है.
जातियों का नया रूप
समाजविज्ञानी और गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक प्रोफेसर बद्रीनारायण इसे और अधिक स्पष्ट करते हैं. डॉ. बद्रीनारायण का मानना है कि चुनाव में जातियों की भूमिका खत्म नहीं हुई है. हुआ यह कि हिंदुत्व में कई जातियां समाहित हो गई हैं. साथ ही जातियों का पॉलिटिकल वैल्यू दूसरे रूप में दिखाई दे रहा है. इसे समझने के लिए सरकार की योजनाओं के लाभार्थी समुदाय पर ध्यान देना होगा. पंत संस्थान के निदेशक का इशारा सम्भवत: मुफ्त खाद्य सामग्री हासिल करने वाले और अपने सिर पर छत का सुख पाने वालों की तरफ है. निश्चित ही ऐसे समुदाय में मंडल और कमंडल, यानी कई कमजोर समझी जाने वाली जातियां शामिल हैं. इनके भाजपा के साथ जाने से ही दूसरे दलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है.
मंडल और कमंडल
मंडल और कमंडल को स्पष्ट करने के लिए हमें करीब 50 से 30 साल पहले, यानी 70 और 90 के दशक में जाना होगा. सन् 1970 के आसपास डॉ. राममनोहर लोहिया ने समाज में पिछड़े वर्ग को शासन-प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने की मांग उठायी. यह मांग डॉ. लोहिया के बाद भी उठती रही. ऐसे नेताओं ने समाज के आखिरी छोर पर बैठे व्यक्ति की चिंता को जरूरी बताया. सन् 1979 में तत्कालीन मोरारजी देसाई सरकार ने बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल के नेतृत्व में एक आयोग बनाकर इस वर्ग की स्थिति और उनके विकास के रास्ते सुझाने का काम सौंपा. आयोग ने अपनी रिपोर्ट सौंपी, पर अगली सरकारों ने उस पर ध्यान नहीं दिया.
यहां विस्तार में जाने की आ‌वश्यकता और संदर्भ नहीं है. इतना जोड़ना जरूरी है कि विश्वनाथ प्रताप सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में 1989-90 के दौर में मंडल के साथ कमंडल का मिथक भी उभर कर सामने आया. वीपी सिंह सरकार ने मंडल आयोग की संस्तुतियों को लागू करने का फैसला किया. सरकार के निर्णय के विरुद्ध आरक्षण विरोधी आंदोलन में छात्रों के आत्मदाह तक की घटनाएं हुईं. मोरारजी देसाई से वीपी सिंह तक भारतीय जनता पार्टी इन प्रयोगों को परख रही थी. उसे जरूरी लगा कि मंडल समर्थकों के साथ अन्य जातियों को जोड़े बिना सत्ता हासिल करना सहज नहीं है. पार्टी ने रामजन्म भूमि का समर्थन किया. यहीं से मंडल के समानांतर कमंडल शब्द चर्चा में आया. इस दौर में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा और कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार के सत्ता से बाहर जाने जैसी घटनाएं पार्टी को उभारने में सहायक बनीं. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में भाजपा की मजबूती मायने रखने लगी.
कांशीराम का प्रयोग
मंडल और कमंडल की राजनीति उत्तर प्रदेश में दरअसल मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और भाजपा के बीच घूम रही थी. इसे भांपते हुए दलित उभार को कांशीराम ने ताकत दी. समय के साथ मायावती ने दलितों के साथ अति पिछड़ी जातियों को और फिर एक समय ब्राह्मणों को भी जोड़कर सत्ता हासिल किया. इस तरह मंडल और कंमडल के प्रतीक, दोनों समुदायों का भी संयोजन होता दिखा.
भाजपा का गणित जाति नहीं जरूरत
स्पष्ट हो चला है कि विधानसभा क्षेत्रों में सभी दलों ने स्थानीय जातीय समीकरण का ध्यान रखा. अखिलेश यादव ने तो स्वामी प्रसाद मौर्य और दारा सिंह चौहान जैसे लोगों को भाजपा से तोड़ा, तो पहले से टूटकर आए ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं को गठबंधन में शामिल किया. दूसरी ओर भाजपा ने भी कांग्रेस से आरपीएन सिंह, तो मुलायम सिंह यादव की एक बहू अपर्णा यादव को अपने साथ किया. ये कोशिशें जातीय समीकरण साधती हुई लग सकती हैं. भाजपा ने भी सपा की ही तरह क्षेत्र विशेष में उन जातियों का ध्यान रखा, जो चुनाव परिणाम पर असर डालती हैं. उसी के हिसाब से प्रत्याशी भी तय किये. इसके साथ भाजपा ने अपनी रणनीति में उन सभी को जोड़ने का काम किया, जो सरकार की योजनाओं के लाभार्थी हैं. परिणाम यह हुआ कि जो मतदाता सपा अथवा बसपा के हुआ करते थे, उन्होंने भी दोनों के नेताओं-कार्यकर्ताओं की बात जरूर सुनी, पर तय किया कि उसकी जरूरतें बाद की भी हैं. यही कारण है कि विपक्षी सरकार बनने पर मुफ्त बिजली, लड़कियों को स्कूटी और लैपटॉप मिलने जैसी आस छोड़कर भी इस लाभार्थी वर्ग ने भाजपा से मिल रही सहायता पर भरोसा किया और उसे भविष्य के लिए भी सरकार की बागडोर सौंप दी.

(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
डॉ. प्रभात ओझा पत्रकार और लेखक
हिन्दी पत्रकारिता में 35 वर्ष से अधिक समय से जुड़ाव। नेशनल बुक ट्रस्ट से प्रकाशित गांधी के विचारों पर पुस्तक 'गांधी के फिनिक्स के सम्पादक' और हिन्दी बुक सेंटर से आई 'शिवपुरी से श्वालबाख' के लेखक. पाक्षिक पत्रिका यथावत के समन्वय सम्पादक रहे. फिलहाल बहुभाषी न्यूज एजेंसी 'हिन्दुस्थान समाचार' से जुड़े हैं.
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