सम्पादकीय

विधानसभा चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश में क्या होगा

Neha Dani
10 Jan 2022 8:39 AM GMT
विधानसभा चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश में क्या होगा
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इसीलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष की संभावनाएं अभी 50:50 हैं।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव अतीत के चुनावों से भिन्न होने जा रहे हैं। चुनाव आयोग ने आगामी 15 जनवरी तक रैलियों, रोड शो, साइकिल यात्रा, यहां तक कि नुक्कड़ सभाओं तक पर रोक लगा दी है। लेकिन ओमिक्रॉन जिस तरह फैल रहा है, उसे देखते हुए आयोग को संभवतः प्रतिबंध आगे बढ़ाने पड़ेंगे। आयोग को यह फैसला दूसरी लहर के दौरान पश्चिम बंगाल के चुनाव और कुंभ मेला को न रोके जाने के असर को देखते हुए लोगों की जान बचाने के लिए लेना पड़ा है।

जाहिर है, वर्चुअल बैठकों और डिजिटल चुनाव अभियानों का सबसे अधिक लाभ सत्तारूढ़ दल को मिलेगा, क्योंकि वह इसके लिए सबसे अधिक तैयार है। चुनाव अभियान के लिए उसके पास एक सुनियोजित तंत्र है। विपक्षी पार्टियों का भाजपा से डिजिटल पहुंच के मामले में, जिसे उसके व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के रूप में बताया जाता है, दूर-दूर तक मुकाबला नहीं है। हालांकि कांग्रेस अब उसका मुकाबला करने की कोशिश कर रही है और अखिलेश यादव की टीम में तकनीकी दक्षता वाले कुछ लोग हैं। संसाधनों के मामले में भी भाजपा बेहद समृद्ध पार्टी है और दूसरे राजनीतिक दलों से बहुत आगे है।
जहां तक उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में संभावनाओं की बात है, तो अभी यह 50-50 है, और कोई नहीं जानता कि राज्य का चुनावी नतीजा क्या होगा। कई कारणों से राज्य के मतदाता योगी आदित्यनाथ सरकार से नाराज बताए जाते हैं। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान राज्य सरकार अपेक्षित कुशलता का परिचय नहीं दे सकी। आज भी हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं कि तब राज्य के दूरस्थ क्षेत्रों में कोरोना से कितने लोगों की जान गई। जिन लोगों ने दूसरी लहर में अपने परिजनों को खोया, या जिन्होंने अपने आसपास महामारी का तांडव देखा, वे उसे आसानी से भूल नहीं पाएंगे। आर्थिक कठिनाइयां भी हैं। महंगाई बढ़ रही है। महामारी के कारण अनेक लोगों ने अपने रोजगार खो दिए। ओमिक्रॉन के असर के बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन प्रदेश में सात चरणों के मतदान के दौरान संक्रमण बढ़ने के ही आसार हैं।
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अपनी सरकार की उपलब्धियां बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। टेलीविजन और प्रिंट मीडिया में योगी सरकार की उपलब्धियों का बखान है, अखबारों में लगातार पूरे-पूरे पृष्ठ के विज्ञापन छप रहे हैं। चुनाव की औपचारिक घोषणा से बहुत पहले प्रधानमंत्री मोदी ने उत्तर प्रदेश में अपना चुनाव अभियान शुरू कर दिया था, जिससे साफ है कि भाजपा समय रहते अपने संभावित नुकसान की भरपाई कर लेना चाहती थी। चूंकि दूसरे राज्यों की तुलना में भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश का महत्व ज्यादा है, इसलिए प्रधानमंत्री ने सूबे के कई दौरे किए, ईस्टर्न एक्सप्रेस-वे और काशी विश्वनाथ कॉरिडोर समेत दूसरी कई परियोजनाओं का उद्घाटन किया। पिछले कुछ महीनों में विपक्ष भी उत्तर प्रदेश में काफी सक्रिय दिखा है।
पंजाब में पिछले दिनों प्रधानमंत्री के काफिले को एक फ्लाई ओवर पर बीस मिनट जिस तरह रुके रहना पड़ा, उससे सूबे की कांग्रेस सरकार के लिए परेशानियां खड़ी हो गई हैं। सुरक्षा चूक का मुद्दा उठाकर भाजपा न सिर्फ लाभ की स्थिति में है, बल्कि उसने मोदी को चर्चा के केंद्र में भी ला दिया है, चुनाव अभियानों में जिनका वर्चस्व लगातार जारी है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनावी अभियान में मोदी बड़ी तेजी से मुद्दा बनते जा रहे हैं। एक बार फिर भाजपा अपने ट्रंप कार्ड का सटीक इस्तेमाल करने में सफल रही है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा का मुद्दा उठाकर भाजपा पंजाब में नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में लाभ उठाने की कोशिश में है, क्योंकि पंजाब में तो उसकी उपस्थिति नगण्य ही है। दरअसल 'निशाने पर मोदी' या 'मोदी की सुरक्षा' का मुद्दा उत्तर प्रदेश में भाजपा की मदद करेगा।
जाहिर है भाजपा रोजमर्रा के मुद्दे के बजाय मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने की अपनी पुरानी रणनीति पर चलेगी। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रधानमंत्री की सुरक्षा उसके लिए मुद्दे हैं। योगी आदित्यनाथ के, जो खुद एक ठाकुर हैं, ठाकुर राज के कारण संभव है कि ब्राह्मण योगी सरकार से नाराज हों। जबकि अखिलेश यादव ब्राह्मणों को लुभाने की कोशिश में हैं। पर हिंदुत्व को मजबूती देने की भाजपा की रणनीति को देखते हुए क्या राज्य के ब्राह्मण भाजपा का विरोध करने के बारे में सोचेंगे? याद रखना चाहिए कि वर्ष 2016 में मोदी ने जब नोटबंदी का फैसला लिया था, तब राज्य का वैश्य समाज उनसे नाराज था। लेकिन 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस समाज के वोट भाजपा की झोली में ही गए। सपा नेता अखिलेश यादव की चुनावी सभाओं में भारी भीड़ देखी गई है।
उनकी रैलियों में मौजूद लोगों में जिस किस्म का उत्साह देखा गया, वह राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण है। रालोद के नेता जयंत चौधरी और जाति आधारित दूसरी छोटी पार्टियों से हुए अखिलेश के गठजोड़ के कारण जाट और ओबीसी से जुड़े लोग विपक्षी गठबंधन में दिखे। उत्तर प्रदेश में किसानों के असंतोष का सबसे अधिक फायदा जयंत चौधरी को मिलने जा रहा है, क्योंकि अगर तराई वाले क्षेत्र को जोड़ लिया जाए, तो राज्य की कम से कम सौ सीटों पर किसानों का वर्चस्व है। इस इलाके में सिर्फ जाट ही नहीं, गुर्जर भी सरकार से नाराज हैं, जबकि लखीमपुर-खीरी के हादसे के बाद सिख भी नाराज हैं।
लेकिन चूंकि यहां बाद के चरण में मतदान होना है, लिहाजा यह विपक्ष के लिए चुनौती है। अपने विशाल चुनावी तंत्र के जरिये भाजपा पिछले सात साल से यहां शानदार प्रदर्शन करती आई है। सिर्फ संसाधन ही नहीं, बूथ प्रबंधन के मामले में भी भाजपा दूसरे दलों से बहुत आगे है। उसने पहले ही डिजिटल अभियान की शुरुआत कर दी है, जिसका चुनाव में असर पड़ सकता है। किसको वोट देना है, इसका फैसला बेशक मतदाता पहले ही कर लेंगे, लेकिन संसाधन, सांगठनिक शक्ति और अपने डिजिटल प्लेटफॉर्म के बूते भाजपा आखिरी चरण में योगी सरकार की नकारात्मकता की काफी कुछ भरपाई कर ले सकती है। कम से कम भाजपा तो यही मानती है। हां, अगर सत्ता-विरोधी असंतोष गुस्से में तब्दील हो जाए, तो बात अलग है। इसीलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ता पक्ष और विपक्ष की संभावनाएं अभी 50:50 हैं।

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