सम्पादकीय

विधानसभा चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश में पुनर्वास के लिए छटपटाती कांग्रेस, क्या बिगड़ सकता है क्षेत्रीय दलों का खेल?

Gulabi
29 Oct 2021 12:04 PM GMT
विधानसभा चुनाव 2022: उत्तर प्रदेश में पुनर्वास के लिए छटपटाती कांग्रेस, क्या बिगड़ सकता है क्षेत्रीय दलों का खेल?
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क्या बिगड़ सकता है क्षेत्रीय दलों का खेल?

नजारा दिलचस्प है। उत्तर प्रदेश में चुनाव सिर पर है। कांग्रेस छटपटा रही है। बुजुर्ग पार्टी अपने पुराने किले में वापसी चाहती है। तीन दशक से वह प्रदेश की मुख्यधारा से दूर है। अब इंदिरा गांधी की पोती प्रियंका गांधी एड़ी चोटी का जोर लगा रही हैं। बीते दो बरस में उन्होंने दिल्ली और घर परिवार को हाशिए पर रखकर इस राज्य में डेरा डाल लिया है।

कमोबेश हर उस मुद्दे पर वे आक्रामक मुद्रा में हैं, जो योगी सरकार की मुश्किल बढ़ा रहा है। लखीमपुर खीरी के किसान हादसे के बाद उन्होंने जिस तरह मोर्चा संभाला है, उससे भारतीय जनता पार्टी ही नहीं, समाजवादी और बहुजन समाज पार्टी भी परेशान दिखाई दे रही हैं। लेकिन राजनीतिक पंडित प्रियंका के मामले में कंजूसी बरत रहे हैं। उनका कहना है कि कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश के कपाट अभी भी बंद हैं।
सवाल यह है कि क्या प्रियंका विधानसभा चुनाव में एक बार फिर पराजय की पारी खेलने जा रही हैं। यह तो इस वयोवृद्ध दल को भी पता होना चाहिए कि चुनाव के बाद सूबे में उसकी सरकार नहीं बनने जा रही है। फिर भी उसने हेमवती नंदन बहुगुणा और नारायण दत्त तिवारी के बाद अपना सबसे चमकदार चेहरा मैदान में उतार दिया है।
प्रादेशिक स्तर पर गांधी नेहरू परिवार का कोई सदस्य पहली बार सामने आया है। कहा जा रहा है कि भले ही पार्टी ने मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित नहीं किया है, मगर प्रियंका उस स्थान पर हैं। प्रियंका गांधी की कोशिश भी यही होगी कि चाहे सरकार नहीं बने, पर कांग्रेस उस स्थिति में आकर खड़ी हो जाए, जहां से उसके बिना कोई विरोधी दल अपनी सरकार नहीं बना सकें।
पुनर्वास के लिए कांग्रेस की छटपटाहट से दोनों क्षेत्रीय दलों में बेचैनी है। खासकर समाजवादी पार्टी में। पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव मानकर चल रहे हैं कि चुनाव के बाद उन्हें तश्तरी में सरकार बनाने का निमंत्रण मिलने जा रहा है।
कांग्रेस उनका खेल बिगाड़ सकती है। इसलिए वे ममता बनर्जी और शरद पवार को सूबे में चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए न्यौत रहे हैं, जिससे राज्य में कांग्रेस के बचे खुचे खांटी वोट बैंक में सेंध लगाई जा सके। अनुबंध पर चुनावी प्रचार मुहिम का ठेका लेने वाले प्रशांत किशोर की इन दिनों सक्रियता इसी नीति का परिणाम है।
एक जमाने में कांग्रेस के मूल मतदाताओं को बीजेपी, सपा और बसपा ने बांट लिया था। अब प्रशांत किशोर प्रयास कर रहे हैं कि मतदाताओं का यह खजाना वापस कांग्रेस के हाथ नहीं लगे। इसी योजना के तहत पहले उन्हें कांग्रेस में प्रवेश कराया जाता। फिर चुनावी रणनीतिकार बनाकर उत्तर प्रदेश के विधानसभा मैदान से हटने के लिए आलाकमान को मनाया जाता।
यह तर्क दिया जाता कि कांग्रेस अपना ध्यान चौबीस के लोकसभा चुनाव पर लगाए और बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाए। लेकिन इस योजना की भनक कांग्रेस को मिल गई और यह गुप्त योजना टांय टांय फिस्स हो गई।
प्रसंग के तौर पर बता दूं कि प्रशांत किशोर का तृणमूल कांग्रेस के साथ अनुबंध बढ़ा दिया गया है। अलबत्ता बीच में एक शून्यकाल आया था, जब प्रशांत किशोर कांग्रेस में आना चाहते थे और बिहार में फ्री हैंड चाहते थे। पर, यह दाल नहीं गली। इसके बाद बीते बीस पच्चीस दिनों में उन्होंने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की तीखी आलोचना की है।

अर्थ लगाया जाना चाहिए कि उनकी यह आलोचना किन दलों को रास आ सकती है। समझा जा सकता है कि प्रियंका की सक्रियता से अन्य दल क्यों घबराए हुए हैं।कांग्रेस का इकलौता मिशन यही हो सकता है कि वह अपने पुश्तैनी प्रदेश में हिल रही नींव को मजबूत करे। यह नींव जितनी सुदृढ़ होगी, प्रादेशिक दल उतने ही कमजोर होंगे। इसे ध्यान में रखते हुए 'एकला चलो रे' ही कांग्रेस का मूल मंत्र हो सकता है।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।

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