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इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनावों के अंतिम परिणाम नहीं आए हैं
अजय बोकिल।
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह से पिटाई और खासकर पंजाब में सत्ता गंवाने के बाद वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जनादेश को स्वीकारने की विनम्रता भले दिखाई हो, लेकिन यह उनके और उनकी पूरी पार्टी के लिए महा प्रश्नचिन्ह है कि अब देश में कांग्रेस का राजनीतिक भविष्य क्या है? क्या इन नतीजों से भी पार्टी कोई सबक लेगी या फिर 'मेरी मरजी' के दिशाहीन प्रवाह में यूं ही बहती रहेगी?
इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चुनावों के अंतिम परिणाम नहीं आए हैं, लेकिन ट्रेंड पूरी तरह सेट हो चुका है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के पास 2017 के विधानसभा चुनाव में महज 7 सीटें और 6.3 फीसदी वोट शेयर था। इस चुनाव में पार्टी के एक सीट पर जीतने के भी लाले हैं। इस मायने में उसका मुकाबला सिर्फ बसपा से है।
दूसरा राज्य है- उत्तराखंड जहां बीते 22 सालों से हर चुनाव में सत्ता परिवर्तन का ट्रेंड रहा है, लेकिन बीजेपी ने इसे ध्वस्त करते हुए शानदार ढंग से सत्ता में वापसी की है, बावजूद इसके कि उसके मख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी चुनाव हार गए हैं।
गोवा में उम्मीद जताई जा रही थी कि कांग्रेस किसी तरह सत्ता में लौट सकती है, लेकिन वहां भी पासे तिरछे ही पड़े हैं। भाजपा आसानी से सरकार बना लेगी। वही हाल मणिपुर का है, जहां कांग्रेस का मुकाबला अब उन स्थानीय राजनीतिक दलों से है, जिनका मणिपुर के बाहर कोई वजूद नहीं है।
पंजाब दे गया बड़ा झटका
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ा झटका पंजाब का है। वहां पार्टी ने खुद अपने हाथों सत्ता गंवाई है। इसके लिए कौन जिम्मेदार है? हालांकि कांग्रेस कल्चर में शीर्ष नेतृत्व को कटघरे में खड़ा करने का रिवाज नहीं है, क्योंकि उसे राजनीतिक अशिष्टता माना जाता है, इसलिए सीधे तौर पर किसी पर उंगली नहीं उठेगी। जो उठाएगा, उसे किनारे लगा दिया जाएगा।
पंजाब में पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी फेल रहे हैं, लेकिन कई लोगों का मानना है कि पार्टी के भीतर ही अपनी तमाम अलोकप्रियता के बावजूद कैप्टन में पार्टी की चुनावी नैया पार लगाने की कूवत थी। लेकिन पार्टी आलाकमान ने उन नवजोत सिंह सिद्धू पर दांव खेला, जिनकी चंचल फितरत और सियासी बेवफाई से पंजाब का हर इंसान वाकिफ है। चुनाव नतीजो ने यही साबित किया कि सिद्धू जैसे नेताओं की मुआफिक जगह 'लाॅफ्टर शो' ही है।
यह भी राजनीतिक विडंबना है कि एक जमाने में मशहूर हुए 'लाॅफ्टर शो' में सिद्धू जिस पंजाबी कॉमेडियन भगवंत मान की स्टैंडिंग कॉमेडी पर ठहाके लगाया करते थे आज उसी कॉमेडियन मान ने सिद्धू को खुद की कारगुजारियों पर ठहाने लगाने पर मजबूर कर दिया है। हाई प्रोफाइल सिद्धू खुद तो आम आदमी पार्टी की एक अदना सी कार्यकर्ता से हारे ही, साथ में कांग्रेस का रायता भी इस बुरी तरह फैला गए हैं कि उसे समेटा भी जा सकेगा या नहीं, कहना मुश्किल है।
कांग्रेस की इस अंतहीन अंतर्कलह में बलि का बकरा बेचारे चरणजीत सिंह चन्नी बने, जिन्हें विधानसभा चुनाव के चार माह पहले सीएम बनाकर कांग्रेस ने मानो पार्टी का राजनीतिक कफन तैयार करने का काम दे दिया था। यूं दलित चन्नी को सीएम बनाना कागज पर एक अच्छा मूव था, लेकिन नतीजे बता रहे हैं कि कांग्रेस तो ठीक खुद चन्नी को उन दलित वोटरों ने भी वोट नहीं दिए, जिनकी संख्या पंजाब में देश में सर्वाधिक यानी 31 फीसदी है।
कांग्रेस को बड़ी चुनौती दे रही है आम आदमी पार्टी
चुनाव परिणामों के दौरान ही दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल ने जो कहा, उसे कांग्रेस आला कमान ने ठीक से सुना या नहीं, पता नहीं। केजरीवाल ने छाती ठोक कर कहा था कि अब आम आदमी पार्टी ही कांग्रेस का सच्चा विकल्प है।
आप ने लगाई तगड़ी सेंध
'आप' ने पंजाब में कांग्रेस से सत्ता छीनी तो गोवा और उत्तराखंड में कांग्रेस के वोट में तगड़ी सेंध लगाई। यही काम आगे वो दूसरे राज्यों में भी करेगी। आप की रणनीति साफ है, वो घोर वामपंथियों और धुर दक्षिण पंथियों से समान डिस्टेंसिंग बनाकर चल रही है। हालांकि ये दांव सभी जगह चले, जरूरी नहीं है।
उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी बहन प्रियंका गांधी को सौंपकर यह माहौल बनाने की कोशिश की गई कि भाई न चले तो बहन जिम्मेदारी संभाल सकती है। बेशक प्रियंका एक गंभीर और मेहनती नेत्री हैं। यूपी में उन्होंने महिलाओ को कांग्रेस के पक्ष में लामबंद करने की यथासंभव कोशिश भी की। लेकिन नतीजों का निहितार्थ यही है कि खुद महिलाओं ने भी उनके 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' के नारे को खास तवज्जो नहीं दी।
यहां अहम सवाल यह है कि इन नतीजों के बाद भी कांग्रेस में कोई सार्थक और रचनात्मक हलचल होगी या नहीं ? अगर सफलता का सेहरा पार्टी नेतृत्व के सिर बंधता है तो हार का ठीकरा भी वहीं क्यों नहीं फूटना चाहिए? दरअसल पंजाब में वहां का राजनीतिक बैटिंग ऑर्डर समझे नवजोत सिंह सिद्धू को बैटिंग सौंपना उतारना गंभीर सियासी भूल थी।
जिस तरह सिद्धू को आला कमान से शह मिल रही थी, उससे साफ था कि उसे पंजाब की सियासी तासीर की सही जानकारी ही नहीं है। जमीन पर क्या हो रहा है, उसका अंदाजा ही नहीं है। कांग्रेस में आला कमान का मतलब आज की तारीख में प्रत्यक्ष रूप से सोनिया गांधी और परोक्ष रूप से राहुल और प्रियंका गांधी हैं। बाकी सब झांझ-मंजीरे वाले हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में करारी के तीन साल बाद भी पार्टी अब तक पूर्णकालिक अध्यक्ष नहीं चुन सकी है।
नेतृत्व को लेकर अब भी सवाल जस का तस
नेतृत्व का पास गांधी परिवार में ही एक से दूसरे को दिया जाता रहा है। एक जमाने में चक्रवर्ती की तरह पूरे भारत पर राज करने वाली कांग्रेस यह समझने को ही तैयार नहीं है, उसका मुकाबला पहले तो उस भाजपा से है, जो चुनाव साम-दाम-दंड-भेद के आधार पर लड़ती है और दूसरी अब आम आदमी पार्टी है, जो गुमनाम से चेहरों में नई ऊर्जा फूंक रही है।
वैसे कांग्रेस में एग्जिट पोल के बाद ही राहुल-प्रियंका को 'बचाने' की मुहिम शुरू हो गई थी, लेकिन यह पार्टी की शुतुरमुर्गी मुद्रा है। कांग्रेस नेतृत्व के लिए बड़ा सबक (अगर लेना चाहें) यह है कि अधूरे मन और संशकित भाव से किया गया कोई काम अंजाम तक नहीं पहुंचता। सामने आकर जिम्मेदारी लें और उसे निभाएं भीं। वरना कांग्रेस अब कुल ढाई राज्यों ( राजस्थान, छत्तीसगढ़ और आंशिक रूप से महाराष्ट्र) में बची है, वहां भी उल्टी गिनती शुरू होने में देर नहीं लगेगी।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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