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कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय पर छाये सन्नाटे का कोरोना महामारी या चुनाव आयोग द्वारा घोषित प्रोटोकॉल से कुछ लेना देना नहीं है
संयम श्रीवास्तव। अजय झा। कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय कार्यालय पर छाये सन्नाटे का कोरोना महामारी या चुनाव आयोग द्वारा घोषित प्रोटोकॉल से कुछ लेना देना नहीं है. चुनाव और चुनाव परिणाम तो महज एक औपचारिकता है. कांग्रेस पार्टी के नेता हों या कार्यकर्ता सभी को पता था कि क्या होने वाला है. और हुआ भी वही जिसका अंदेशा था. पांच प्रदेशों में हुए चुनाव से एक बार फिर से यह साबित हो गया है कि कांग्रेस पार्टी इतिहास के पन्नों में सिमटने की तैयारी में जुटी है.
पश्चिम बंगाल में चुनाव की घोषणा होने के पहले ही समर्पण कर देना, तमिलनाडु में DMK की पूँछ पकड़ कर वैतरणी पार करने की कोशिश करना और पुडुचेरी में आँखों पर पट्टी बांध लेना, सभी इस बात के सूचक थे कि कांग्रेस पार्टी ने लड़ाई शुरू होने के पहले ही हार मान ली है. पार्टी को अगर उम्मीद थी तो बस केरल और असम से. अगर केरल में इतिहास साथ था कि वहां लगातार किसी पार्टी की दो बार सरकार नहीं बनी है तो असम में यह उम्मीद थी कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एक सम्प्रदाय विशेष की वकालत करना शायद चुनाव जीतने के लिए काफी होगा. पर केरल ने जहां नया इतिहास रच डाला, वहीं असम के मतदाताओं ने भी कांग्रेस पार्टी को नकार दिया.
कांग्रेस की स्थिति खराब
चुनाव में हार जीत तो लगी ही रहती है, पर एक के बाद एक, लगातार हार से भी अगर कोई पार्टी सबक ना ले तो फिर पार्टी नेतृत्व के ऊपर सवाल तो उठेगा ही. कांग्रेस पार्टी की दुर्दशा का कारण ढूंढ़ने के लिए 10 जनपथ से कहीं और आगे जाने की ज़रुरत नहीं है. कांग्रेस पार्टी का परिवार मोह और सोनिया गाँधी का पुत्र मोह कांग्रेस पार्टी को एक अंधेरी खाई की तरफ धकेलने के लिए काफी है, जिस दिशा में पार्टी लगातार अग्रसर दिख रही है.
बीजेपी का खुश होना स्वाभाविक है, क्योकि राष्ट्रीय स्तर पर ऐसी और कोई पार्टी नहीं है जिससे उसे चुनौती मिले. कांग्रेस पार्टी का लगातार कमजोर होते जाना बीजेपी को मजबूती देता रहेगा. बीजेपी असम में सरकार बचाने में सफल रही तो इसका एकमात्र कारण था कांग्रेस पार्टी की कमजोरी.और केरल में बीजेपी को आशा की एक नयी किरण दिखने लगी है कि थोड़ी और मेहनत और योजनाबद्ध तरीके से काम करने से बीजेपी रिक्त स्थान की पूर्ति करते हुए एक मजबूत शक्ति बन कर उभर सकती है. सवाल है कि अब कांग्रेस पार्टी क्या करेगी? सवाल आसान है पर इसका जबाब कठिन है. यह सोचना कि गाँधी परिवार द्वारा और उन्हीं पिटे हुए मोहरों की बदौलत पार्टी का जीर्णोद्धार होगा, ज्यादा आशावादी लगता है.
पार्टी को नए नेतृत्व की जरूरत
समय आ गया है कि गांधी परिवार यह दिखाए कि उन्हें सत्ता से ज्यादा पार्टी से प्यार है, यह मान ले कि समय आ गया है कि पार्टी को एक नए नेतृत्व की जरूरत है, एक ऐसे नेता कि जो एक बार फिर से पार्टी को जमीनी स्तर से खड़ा करने की कोशिश करे. पर ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है. जून के महीने में नए राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव होना था, पर कोरोना के नाम पर उसे टाल दिया जाएगा, यथास्थिति बनी रहेगी और हालात सुधरते ही उस उम्मीद से कि लोग हार के सदमे से उबर चुके होंगे, नए सिरे से पार्टी के युवराज राहुल गाँधी के ताजपोशी की तैयारी शुरू हो जायेगी, चुनाव के नाम पर नाटक होगा ताकि गाँधी परिवार की पकड़ पार्टी पर बनी रहे.
अगस्त के महीने से कांग्रेस पार्टी में सुगबुगाहट चल रही है कि पार्टी को के नए नेता की जरूरत है, पर जिसने भी आवाज़ उठाई उसे किनारे लगा दिया गया. गांधी परिवार ऐसे लोगों से घिरा हुआ है जो चापलूसी करने की कला में माहिर है और उनकी सोच पर ही संदेह होता है. जरूरत थी आम जनता तक पहुंचने की तो इन सलाहकारों ने INC TV चैनल बना डाला!
ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस पार्टी में सक्षम नेताओं का अकाल आ गया है, पर जो सक्षम दिखते हैं उनसे पार्टी को डर लगता है कि कहीं उनका कद राहुल गाँधी से बड़ा हो जाए और राहुल गाँधी के प्रधानमंत्री बनाने का सपना जो उनकी माँ ने इतने वर्षों से संजो के रखा है, कहीं चूर चूर हो जाए. एक लम्बी सूची है ऐसे नेताओं की जिनमें सम्भावना भरपूर थी पर उनकी प्रतिभा को दबा कर रखा गया. चूँकि गांधी परिवार स्वयं पार्टी की कमान किसी और को शायद न सौंपे, दो ही सम्भावना बचती है कि या तो गांधी परिवार के खिलाफ विद्रोह शुरू हो जायेगा या फिर कांग्रेस एक इतिहास बन जाएगा. और दोनों ही स्थितियों में बीजेपी को बल मिलेगा.
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