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सम्पादकीय
'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे': कालिदास का प्रियतमा को संदेश आज अर्थहीन हो गया
Tara Tandi
26 Jun 2021 11:12 AM GMT
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“आषाढ़स्य प्रथम दिवसे”, इतना सुनते ही मन आंगन में बरसात की आहट दस्तक देने लगती है.
"आषाढ़स्य प्रथम दिवसे", इतना सुनते ही मन आंगन में बरसात की आहट दस्तक देने लगती है. पर इस बार आहट खाली गयी. मानसून दगा दे गया. सिर्फ हमें ही नहीं, मौसम विभाग को भी पहले तय मियाद से सात रोज़ पहले आना था. अब तय तारीख़ से सात रोज़ बाद भी उसका कहीं अता पता नहीं है. कालिदास का प्रियतमा को संदेश 'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे' भी अर्थहीन हो गया है. आज अषाढ़ का पहला दिन है. दूर दूर तक मेघ का कोई टुकड़ा नहीं दिख रहा है. पूरा आकाश धूं-धूं कर जल रहा है. न जाने अब कब इस जलते आकाश पर बिजली टूटेगी? दुष्यंत याद आते हैं- "बरसात आ गई तो दरकने लगी ज़मीन/ सूखा मचा रही है ये बारिश तो देखिए" वाकई सूखा मचाती बारिशें ऐसी ही होती हैं.
आषाढ़ हिंदी कैलेंडर का वह महीना है जिसके आसपास मानसून की शुरुआत होती है. आषाढ़ वर्षा के प्रवेश का सिंहद्वार है. ऐसा मैं नहीं, कवि कुलगुरु कालिदास कहते हैं. 'मेघदूत' का पहला श्लोक आषाढ़ के स्मरण के साथ है – 'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे' कहकर कवि वर्षा का आगमन आषाढ़ कृष्ण प्रतिपदा से मानता है. आषाढ़ में हवा वर्जनाओं को तोड़ती है. जिससे झाड़ झंखार गिर जाते हैं. बादल ऐसे गरजते हैं जैसे आपके सिर के ऊपर ही गर्जना कर रहे हों. नदियाँ अपने उफान पर होती हैं. कभी कभी तो वे खेत के कलेजे तक चढ़ जाती हैं.
केरल के पश्चिमी तट से ही मानसून इस देश में प्रवेश करता है. इस साल सात रोज़ पहले वहॉं आ गया पर फिर न जाने कहॉं भटक गया. दक्षिण-पश्चिम मानसूनी हवाएं प्राचीन काल से ही 'नैरुत्य मारुत' कही जाती हैं. अचरज है, हम उपग्रह युग में भी बादल की चाल-ढाल नहीं समझ पा रहे. बादल ने समूचे मौसम विभाग को छकाया, उसे झूठा साबित किया. बादल गरजते हुए आए तो, लेकिन बिना बरसे वापस लौट गए. जीवन की क्षणभंगुरता के दर्शन को बादल से बेहतर नहीं समझा जा सकता है. मानसूनी बादल का औसत जीवन कुछ ही घंटों का होता है.
कहीं कहीं मानसून के बिना बादल बरस गए हैं लेकिन न तन भीगा, न मन नहाया. न धरती की कोख से सोंधी खुशबू फूटी, न मोर नाचे, न कोयल कूकी. न कजरी सुनाई दी और न राग मल्हार की तान. बारिश की इन बूँदों में मिलन का उत्साह और बिछोह की वेदना दोनों बराबर उफान मारती थीं. संस्कृत कवियों के अनुसार प्रेम की तमाम स्थितियों को वर्षा उदीप्त करती है. वह 'कैटेलिक एजेंट' है. मेरे लिए तो यह गुजरे जमाने की बात हो गयी है, अब तो बारिश की टपकती बूँदें भी शरीर पर छन्न से आवाज नहीं करतीं.
आषाढ़ का पहला दिन स्मृतियों के लौटने का दिन है. आषाढ़ स्मृतियों का महीना है. मैं भी अक्सर आषाढ़ की प्रथम बौछार में स्मृतियों से भीग उठता हूं. हालांकि अब स्मृति व़ृद्ध होने की ओर है . इसलिए आषाढ़ में कालिदास को याद करता हूं. आषाढ़ में काम का आवेग बेलगाम हो उठता है. वसंत में जन्मा काम आषाढ़ आते-आते यौवन उन्माद का पर्याय बन जाता है. बारिश संयम को तोड़ती है, बादलों तक में संयम नहीं रहता. कभी भी बरस पड़ते हैं. नदियां उफनाने लगती हैं, बाँध तोड़कर बहती हैं. प्रकृति अपने सौंदर्य के चरम पर होती है. उसका सोलह शृंगार दिखता है. अंतहीन हरियाली दहकती है. कवि कहता है—''पेड़ों पर छाने लगा, रंग-बिरंगा फाग, मौसम ने छेड़ा जहां, रिमझिम बारिश राग. अषाढ़ी फुहार प्रेमी जोड़ों को प्रेम रस में भिगोती है. मन की नदियां बांध लांघ बहती हैं.''
कालिदास ने जब आषाढ़ के पहले दिन आकाश पर मेघ उमड़ते देखे तो उनकी कल्पना ने उनसे यक्ष और मेघ के ज़रिए उनकी विरह-व्यथा को दर्ज करते हुए 'मेघदूत' की रचना करवा डाली. उनका विरही यक्ष अपनी प्रियतमा के लिए छटपटाने लगा और फिर उसने सोचा कि शाप के कारण तत्काल अल्कापुरी लौटना तो उसके लिए सम्भव नहीं है. इसलिए क्यों न संदेश भेज दिया जाए. कहीं ऐसा न हो कि बादलों को देखकर उनकी प्रिया उसके विरह में प्राण त्याग दे. कालिदास की कल्पना की यह उड़ान उनकी अनन्य कृति बन गई. कालिदास की इस बेजोड़ कृति की अनगिनत विवेचाएं हुईं, मीमांसा हुई. प्रसिद्ध कवि बाबा नागार्जुन ने अपनी कविता के द्वारा कालिदास से यह तक पूछ लिया-
"कालिदास, सच-सच बतलाना!
इन्दुमती के मृत्युशोक से
अज रोया या तुम रोये थे?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घन-घटा
विधुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े-खड़े तब हाथ जोड़कर
चित्रकूट से सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बनकर उड़ने वाले
कालिदास, सच-सच बतलाना!
पर इस आग बरसते आषाढ़ को देख कालिदास क्या ख़ाक बताते, जो नागार्जुन पूछ रहे हैं. आषाढ़ का माहौल बाधा, संकोच और वर्जना तोड़ता है. साधु-संत भी इस दौरान समाज से कट चौमासा मनाते थे. आयुर्वेद भी मानता है कि वर्षा में मनुष्य के भीतर रस का संचार ज्यादा होता है. वर्षा ऋतु मात्र प्रेम और मादकता का प्रतीक नहीं है. हमारे यहाँ इससे समाज और अर्थशास्त्र भी नियंत्रित होता था. इस मौसम पर पूरे साल का अर्थशास्त्र निर्भर होता था. जल प्रबंधन के सारे इंतजाम इसी दौरान होते थे. मौसम का राजा बसंत भले हो, पर वर्षा ऋतु लोक गायकों की पहली पसंद है. बारह महीने के ऋतुचक्र को वर्षा से ही बाँधा गया है, तभी तो ऋतुचक्र को वर्ष कहा जाता है.
कालिदास का यक्ष भी इसे जानता था. वह मेघदूत से कहता है कि उसका संदेश मध्यभारत के रत्नागिरि से हिमालय की तराई में अल्कागिरि तक पहुंचाएं. उसे मालूम था कि अकेला बादल इतना लंबा सफर नहीं तय कर सकता. यक्ष के पास समाधान था, वह बादलों से कहता है कि रास्ते में पड़ने वाली नदियों पर विश्राम करते हुए जाना. बड़ा दिलचस्प है, जो तथ्य वह जानता था वह हमारा मौसम विभाग नहीं जानता. उसकी अनंत अटकलें जारी हैं.
छांदोग्योपनिषद् में मेघों के बरसने को उद्गीथ कहा गया है, वर्षा प्रकृति की छांदासिक रचना तो है ही, वह उसे गाती भी है, इसलिए वर्षा अनेक लोक-राग-रागनियों के संगुंफन से अपना एक विराट् राग-चक्र बनाती है. वर्षा का एक राग है – मलार, जिसे मल्हार भी कहा जाता है. यह उमड़-घुमड़ कर गाया जाने वाला राग है. बाद में यह शास्त्रीय रंगत में निबद्ध हो गया, जिसे मेघ मल्हार और मियाँ मल्हार भी कहा गया.
पर अब मानसून की लुकाछिपी से न वर्षा के आने का पता चलता है, न जाने का. समझ में नही आता है कि बाबा नागार्जुन ने अमल धवल गिरी के शिखरों पर जिन बादलों को घिरते देखा था, वे कहां गए? अब तो बस उनकी स्मृतियां शेष हैं और बाबा की लेखनी में समाई कसक-
"अमल धवल गिरि के शिखरों पर,
बादल को घिरते देखा है.
छोटे-छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम
कमलों पर गिरते देखा है,
बादल को घिरते देखा है."
ये बादल घिर घिरकर छिप जाते हैं, हमें चिढ़ाते हैं. प्रकृति न जाने कौन सा संदेश देना चाहती है. बदलते वक्त ने शायद मानसून को भी बदल डाला है, सिर्फ जमीन ही नहीं सूखी है, जीवन भी सूखा सा है. बड़ी आतुरता से प्रतीक्षा है मल्हार गाने वाले मेघों की. काश! वे घुमड़कर आएं, उमड़कर बरसें और मन-जीवन का कोना कोना भिगा दें. ऐसी झूमकर बारिश हो कि उसमें ये 'काश' भी भीग जाए.
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