सम्पादकीय

कांग्रेस जब तक विपक्ष का आधार बनी रहेगी तब तक भाजपा को विकल्पहीनता का लाभ मिलता रहेगा

Gulabi
15 Dec 2021 5:17 AM GMT
कांग्रेस जब तक विपक्ष का आधार बनी रहेगी तब तक भाजपा को विकल्पहीनता का लाभ मिलता रहेगा
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भाजपा को विकल्पहीनता का लाभ मिलता रहेगा
ए. सूर्यप्रकाश। बंगाल की मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी इन दिनों केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता की धुरी बनने के लिए प्रयासरत हैं। इस कोशिश में वह मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस को ही किनारे लगाती दिख रही हैं। दरअसल अंदरूनी खींचतान और शिथिलता के कारण कांग्रेस विपक्षी एकता का केंद्र बनने में नाकाम साबित हुई है और इसी मोर्चे पर ममता को मौका दिख रहा है। इसमें संदेह नहीं कि जब तक कांग्रेस विपक्ष का आधार बनी रहेगी तब तक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा को विकल्पहीनता का लाभ मिलता रहेगा।
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल की आधी अवधि समाप्त होने के साथ ही राजनीतिक पंडितों ने इस पर चर्चा शुरू कर दी थी, परंतु विपक्षी एकता की बात जुबानी जमाखर्च से आगे नहीं बढ़ पाई। 2019 के आम चुनाव में भाजपा अपने दम पर 300 से अधिक सीटें जीतने में सफल रही। ये नतीजे कांग्रेस के लिए करारा झटका थे, जो इस उम्मीद में थी कि सत्ता विरोधी मतों से मोदी सरकार की विदाई हो जाएगी और कांग्रेस को सम्मानजनक सीटें जीतने में मदद मिलेगी। अफसोस कि ऐसा न हो सका।
जनादेश मोदी के नेतृत्व पर मजबूती से मुहर लगाने वाला साबित हुआ। नतीजों के साथ यह भी शीशे की तरह साफ हो गया कि विपक्षी एकता को लेकर किसी ठोस पहल के बिना मोदी को चुनौती देना संभव नहीं। कई राज्यों में भाजपा को कड़ी चुनौती पेश करने वाले क्षत्रप इससे भलीभांति परिचित थे, परंतु केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस की अकर्मण्यता से उपजे अवरोध के कारण असहाय प्रतीत हो रहे थे, जो पार्टी एक परिवार के स्वामित्व वाली प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के माफिक चल रही है।
कांग्रेस ने सत्ता में रहने के दौरान या उससे बेदखल होने के बाद जो भी नीतियां अपनाईं, उन्होंने पार्टी का बेड़ा ही गर्क किया। उसकी चुनावी पराजय का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। पंडित नेहरू के दौर में जिस पार्टी के पास 45 प्रतिशत मतों के दम पर लोकसभा की 65 से 70 प्रतिशत सीटें हुआ करती थीं, उसका मत प्रतिशत अब सिकुड़कर 20 फीसद के स्तर पर आ गया है। उसे 2014 के लोकसभा चुनाव में 44 और 2019 में 53 सीटें ही हासिल हो सकीं।
इसके बावजूद गांधी परिवार न तो पार्टी पर अपना नियंत्रण छोड़ने को तैयार है और न ही भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व। इससे अन्य दल दूसरे विकल्प तलाशने पर बाध्य हुए हैं। उन्हें लगा कि जब तक वे समस्या (कांग्रेस) की पहचान नहीं करेंगे और एक भरोसेमंद भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की पहल नहीं करेंगे तब तक अगले आम चुनाव में मोदी के लिए चुनौती पेश नहीं कर सकते। पिछले कुछ हफ्तों से ममता यही कर रही हैं। त्रिपुरा और गोवा जैसे राज्यों में भाजपा का विकल्प बनने के गंभीर प्रयासों के अलावा उन्होंने कई विपक्षी दलों के नेताओं से मिलकर कांग्रेस को किनारे कर एक नया मंच बनाने का अपना एजेंडा आगे बढ़ाया है। उन्होंने दो-टूक लहजे में कहा कि अब कोई संप्रग नहीं बचा है। वहीं राहुल गांधी को लेकर उन्होंने कहा कि आधा वक्त विदेश और आधा देश में बिताकर भला कोई कैसे राजनीति कर सकता है?
इस बीच एक और राजनीतिक दल आम आदमी पार्टी यानी आप भी कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं को पलीता लगाने की हरसंभव कोशिश में जुटी है। कुछ राज्यों में उसने पहले ही पैठ बना ली है। दिल्ली के लगातार दो विधानसभा चुनावों में कांग्रेस का मानमर्दन करने के बाद आप ने पंजाब में उसके वोटबैंक में भी भारी सेंध लगाई है और उत्तराखंड एवं गोवा में राजनीतिक संभावनाएं भुनाने में लगी है। मतदाताओं को लुभाने के लिए आप बड़े-बड़े वादे कर रही है। उसने अलग-अलग किस्म की राजनीतिक खैरात देने की पेशकश की है। यह तो नहीं पता कि आगामी विधानसभा चुनाव में उसे कितनी सफलता मिलेगी, लेकिन यह अवश्य तय है कि वह कांग्रेस के वोटों में जरूर सेंध लगाएगी।
कांग्रेस की जगह लेने की जुगत भिड़ाने की मुहिम में केवल ये दोनों पार्टियां अकेली नहीं हैं। क्षेत्रीय दलों ने कांग्रेस को राजनीतिक रूप से कमजोर करने में अहम भूमिका निभाई है। पिछली सदी के नौवें दशक की दस्तक के साथ आंध्र में तेुलुगु देसम पार्टी और कर्नाटक में जनता पार्टी के साथ यह सिलसिला शुरू हुआ। फिर 1997 में ओडिशा में बीजू जनता दल, 2001 में तेलंगाना राष्ट्र समिति और खंडित आंध्र प्रदेश में 2010 में वाइएसआर कांग्रेस जैसे दल इसमें जुड़ते गए। सबसे ताजा जुड़ाव अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस का है। अमरिंदर सिंह ने नेहरू-गांधी परिवार की चौखट पर नतमस्तक होने से इन्कार कर दिया तो कांग्रेस ने उन्हें अपमानित कर मुख्यमंत्री पद से हटा दिया। अब उन्होंने कांग्रेस के प्रथम परिवार को सबक सिखाने की ठानी है।
देश पर करीब पांच दशकों तक शासन करने वाला दल कांग्रेस अब किसी थके-मांदे बूढ़े शेर जैसा दिखने लगा है, जिसकी शिकार करने की क्षमता समाप्त हो गई है और लकड़बग्घों का झुंड उसके पीठ पीछे से उसका शिकार झपटकर ले जा रहा है। यह इसलिए दुखद है, क्योंकि प्राणियों के उलट कारोबारी संस्थाएं, राजनीतिक संगठन और अन्य अनेक संस्थानों में यह क्षमता होती है कि वे बढ़ती उम्र और आसन्न अवसान को टाल सकें, बशर्ते कि उन्हें यह समझ आए कि वे क्यों लड़खड़ा रहे हैं। इसे समझकर नए नेतृत्व और विचारों के सूत्रपात से वे क्षरण की इस प्रक्रिया को पलट देते हैं।
आज कांग्रेस के पास यही विकल्प बचता है कि वह दूसरे विपक्षी दलों से सीख लेकर स्वयं को एक सार्वजनिक संपदा में रूपांतरित करे और अपने अंशभागियों को यह तय करने दे कि वे किसे संचालक की भूमिका में देखना चाहते हैं। अभी भी केरल, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और कर्नाटक के अलावा कुछ अन्य राज्यों में उसके पास नेतृत्व मौजूद है। उनमें से कई नेता ऐसे हैं जिनकी गांधी परिवार के सदस्यों से अधिक विश्वसनीयता है। व्यापक स्वीकार्यता वाला नेतृत्व ही पार्टी को फिर से पटरी पर लाने में सहायक हो सकता है, लेकिन इसके लिए बहुत ज्यादा समय नहीं बचा। यह शायद कांग्रेस के लिए अंतिम अवसर है। यदि गांधी परिवार कांग्रेस पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करता तो पार्टी का वही हश्र होना तय है जो जंगल में बूढ़े और असहाय शेर का होता है।
(लेखक लोकतांत्रिक विषयों के विशेषज्ञ एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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