- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- आर्यन खान और हमारा...
x
आर्यन खान और हमारा समाज
भारत की सबसे बड़ी समस्या क्या है? यह आज के दौर का सबसे बड़ा सवाल बन गया है। क्यों? वजह है देश के सामने प्रेरणा स्त्रोत का 'संकट'सामने है, खासकर नौजवानों के सामने और यही सबसे बड़ी समस्या भी। हमारे नेता युवाओं को सपने तो दिखा रहे हैं लेकिन उनके सामने प्रेरणा स्त्रोत यानी आइकन पेश करने में लगातार नाकाम होते दिख रहे हैं।
दरअसल, वे खुद तो आइकन बन ही नहीं नहीं पा रहे, उल्टे ऐसे प्रतिमान पेश करने की कोशिश करते हैं, जो न तो वास्तव में प्रतिमान हैं और न ही हो सकते हैं। यह किसी एक क्षेत्र में नहीं बल्कि समाज के हर क्षेत्र और व्यवसाय में पैदा हुए प्रेरणा शून्य के हालात हैं। जो हर क्षेत्र में सफलता के जो प्रतिमान नई आर्थिक नीति और वैश्वीकरण के बाद बने थे, वे भी अब या तो दरक चुके हैं या छिन्न भिन्न तक हो चुके हैं, या आउट ऑफ डेट हो चुके हैं।
ताजा मामला अभिनेता शाहरुख खान के बालिग पुत्र आर्यन खान का है।
आर्यन को जहाज पर आयोजित रेव पार्टी से रंगे हाथ पकड़ा गया। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने गिरफ्तार किया और कोर्ट के आदेश से जेल भेजे गए और महंगे से महंगे वकीलों की कोशिशों के बाद करीब तीन हफ्ते बाद सशर्त जमानत मिल सकी। कानून और अदालत इस मामले में न्याय करेंगे यही भरोसा है, लेकिन आर्यन के पिता के स्टारडम के चलते आर्यन को जिस तरह हीरो की तरह मीडिया ने पेश किया और जिस तरह सियासत में उसका बचाव किया वह चिताजनक है। इससे कहीं चिंता की बात जमानत मिलने के बाद घर लौटते आर्यन और उसके पिता की झलक पाने जुटी भीड़ है।
सवाल यह है कि क्या हमारे देश में वास्तविक आइकन नहीं हैं? कुछ महीने देश के लिए टोक्यो ओलंपिक से सोने, चांदी और कांसे के पदक लेकर लौटे एथलीट और खिलाड़ी तथा पैरालंपिक के विजेताओं को जिस तरह स्वागत सम्मान मिला था, उससे उम्मीद जगी थी की भारत बदल रहा है, रियल हीरोज को हीरो माना जा रहा है। लेकिन यह अधूरा सच है।
मीडिया की जवाबदेही और भूमिका
दरअसल, देश के खबरिया चैनल और विज्ञापन जगत इन हीरोज को नहीं उन ' बदनाम' सितारों पर पैसा और जलवा बरसा रहे हैं, जिन्हें नशे की लत, शौक और देश के कानून को ताक पर रखने के कारण ' खबरिया अपमान' झेलना पड़ा था। चरस, गांजा, ड्रग्स में डूबे लोग हींग, मसालों, कोल्ड ड्रिंक से लेकर तमाम उत्पादों के विज्ञापनों में छाए हुए हैं। जाहिर है उनकी ब्रांड वैल्यू बेअसर है। करीब पांच साल पहले जब 2016 के ओलंपिक के लिए फिल्म कलाकार सलमान खान को एंबेसडर बनाए जाने को लेकर भी विवाद हुआ था।
आखिर इसे हास्यास्पद न कहा जाए तो क्या कहा जाए कि एक फिल्म स्टार खेल और खेल आयोजन के लिए प्रेरणा स्त्रोत बना दिया जाए। वह भी ऐसा फिल्म अभिनेता जो कई मामलों में न केवल आरोपी है बल्कि उसके कृत्य समाज के युवाओं में नकारात्मक प्रवृत्ति को बढ़ावा देने वाले हैं।
शराब पीकर तेज रफ्तार कार चलाकर सड़क किनारे सो रहे गरीबों को कुचलने का आरोप हो या कृष्ण मृग का शिकार या अपनी भूतपूर्व प्रेमिका को नशे में सरेआम अपमानित करने के वाकयात हों, सलमान खान किसी भी दृष्टि से समाज के हर क्षेत्र के युवाओं का आइकन नहीं हो सकते। यह बात दीगर है कि उनकी फिल्में चल निकलती हैं।
हम किसे मानते हैं अपना आदर्श?
फिल्मों को हिट करने वाला दर्शक वर्ग देश को ओलिंपिक में पदक लाने योग्य खिलाड़ी बन सकने की संभावनाओं से भरे किशोरों और युवाओं से भिन्न है। सलमान के पोस्टर लगाने और उसके जैसा दिखने की फितरत में जीने वाला वर्ग वो है जिसके पास जीने के पूरे संसाधन तक नहीं हैं, वह अपने जीवन की कमी फिल्मों में हीरो को दबंगई करते देखकर पूरी करता है। यही तो फिल्मों के हिट होने और साधारण से आदमी के स्टार बनने का मनोवैज्ञानिक फलसफा है, लेकिन इससे देश प्रगति नहीं कर सकता और न ही ओलिंपिक या किसी और अत्याधिक कड़े परिश्रम से पदक हासिल करने वाली प्रतियोगिता तक पहुचंने और उसमें तमगा जीतने लायक लक्ष्य प्रेम जगा सकता है। अब यह तय माना जा रहा है कि आर्यन खान की लांचिंग तय है।
बदनामी को लांचिंग पेड बनाने का मानो यह सुअवसर है। हो सकता है बाजार जल्द ही उसे विज्ञापन का स्टार बना दे और पोस्टर दीवारों पर दिखने लगें। इसके पहले हम सलमान खान और संजय दत्त के करियर ग्राफ में जेल यात्रा से आए उछाल को देख चुके हैं। फिल्में देखकर हीरो जैसा बनने की चाहत रखने वालों का एक वर्ग आर्यन, संजय और सलमान का फैन हो सकता है।
किसी जमाने में दिलीप कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, मिथुन चक्रवर्ती से लेकर अन्य कई कलाकारों के भी ऐसे ही फैन रहते आए हैं, सलमान के भी हैं, आर्यन के भी इन एडवांस बन ही जाएंगे।
पांच साल पहले के ओलंपिक ब्रांड एंबेसडर विवाद में रियल खिलाड़ियों को एक्टर खिलाड़ियों से बेहतर बताने के कुतर्क भी सामने आए थे। एक्टर सलमान खान के पिता राइटर सलीम खान का बयान तो बेहद बचकाना और काबिले आलोचना था कि मिल्खा सिंह को फिल्म उद्योग ने गुमनामी से उबारा। वाह इस सोच के क्या कहने? फिल्म बनाने वालों ने फिल्म बनाई मिल्खा पर और पैसे भी ज़मकर बनाए, अवॉर्ड भी बटोरे और तुर्रा ये कि मिल्खा सिंह पर अहसान किया। तो फिर मैरीकॉम बनाने वालों ने भी मैरीकॉम पर अहसान किया, अजहर पर फिल्म बनाने वाले भी वही कर रहे थे। गजब डायलॉग लिखने के लिए मशहूर सलीम खान का ये गजब का 'डायलॉग' आया था।
अतीत में भी उठते रहे हैं सवाल?
खैर, सवाल सिर्फ आर्यन, सलमान या कानून की नजर में आरोपी बने किसी सेलिब्रिटी या सेलिब्रिटी पुत्र-पुत्री का नहीं है बल्कि आइकन चुनने का है। इसमें सवाल खबरिया मीडिया पर भी है जो एक आरोपी का प्रशस्ति गान और सतत कवरेज को अपनी प्राथमिकता बना लेता है। लाइव शो चलाने वाले भी इस मामले में कम नहीं है वे अपने शोज में ऐसे लोगों को जरूर लाते हैं जो किसी तरह की नकारात्मक छवि में घिर चुके हों या विवाद ही जिनकी पहचान हो। इसका एक उदाहरण वरिष्ठ भाजपा नेता प्रमोद महाजन की हत्या के बाद उनके पुत्र राहुल महाजन भी हैं।
राहुल को पूरे देश ने देखा था, कि कैसे वो अपने पिता के अस्थि कलश की मौजूदगी में नशे में कवरेज था। इस घटना में महाजन के पीए की मौत हुई थी और राहुल को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में बमुश्किल बचाया जा सका था। इसी राहुल को टीवी चैनलों ने आइकॉन की तरह पेश किया, उसका स्वयंवर कराया, स्वयंवर की वधु की पिटाई और फिर राहुल की दूसरी शादी भी सुर्खियां बनी। अब भी राहुल को टीवी चैनलों पर सेलिब्रिटी की तरह पेश किया जाता है। क्रिकेट में बदनामी का सबब बने कई क्रिकेटर मैच के दौरान विशेष टिप्पणी और कमेंट्री करते नजर आते हैं।
ऐसे ही एक अपार यश के बाद अपयश कमाने वाले क्रिकेटर न केवल सांसद बन गए थे बल्कि उन पर फिल्म भी बनाई गई। यह सब दरकते, टूटते प्रतिमानों की सच्चाई है। जिस समाज में अमेरिका की ब्लू फिल्मों की नायिका भी भारतीय फिल्मों में नायिका बन जाती है, वहां प्रतिमानों की बात करना कुछ लोगों को पिछड़ेपन की सोच लगे तो इस पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। लेकिन ऐसा नहीं है कि सब कुछ अंधेरे में ही है, भारतीय समाज में रोशनी की भी कई मिसालें हैं। इस घटाटोप के बावजूद हर क्षेत्र में ऐसे नाम अवश्य मिल जाएंगे जिन्हें हम प्रेरणा स्त्रोत की तरह सम्मानित कर सकते हैं।
शिक्षा, खेल, समाज सेवा, खेती, संरक्षण, चिकित्सा से लेकर सेना तक लंबी फेरहिस्त है जिन्हें आइकॉन बनाया जाए, माना जाए। गांवों में अंचलों में जलदूत बनकर तो कहीं शिक्षा दूत बनकर तो कभी जैविक खेती में प्रयोग कर तो कभी नए नए आविष्कार कर, लोगों को जोड़कर पुल, सड़क बना रहे और समाज को बदलने में जुटे हजारों परिश्रमी स्त्री पुरुष हैं। जो देश को झंकृत करने लायक काम कर रहे हैं। हमें उन्हें अपना और समाज का आइकॉन बनाना होगा। समाज भी पहल करे और सरकारें भी उपकृत करने के बजाय वास्तविक अलंकरण कर समाज को प्रेरणा पुंजों से प्रेरणा स्रोतों से रुबरू कराए। आइकॉन यानी प्रतिमान का संकट न केवल दूर हो सकता है बल्कि प्रेरणा पुंजों की पूरी श्रृंखला तैयार हो सकती है।
मीडिया इस दिशा में कुछ काम कर तो रहा है, लेकिन नकारात्मक छवि को मंडित करने की प्रवृत्ति पर लगाम लगाकर शुभ प्रतिमानों को यथेष्ट स्थान दे तो समाज के हर क्षेत्र में नए आईकॉन, नए प्रतिमान, नए प्रेरणा पुंज देश को नई शक्ति से भर सकते हैं।
दुनिया में सर्वाधिक युवा आबादी वाले देश को इसकी सर्वाधिक जरूरत है। युवा जागेंगे तो समस्याएं कैसे टिक पाएंगी, इतिहास इसका गवाह है। नशेड़ी और असंस्कारी युवा नहीं बल्कि परिश्रम, लगन और देश के लिए जी जान लगाने वाले लोग हमारे आइकॉन बनेंगे। उम्मीद की जाना चाहिए कि ऐसा हो सकेगा।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
Gulabi
Next Story