सम्पादकीय

आर्यन मामला: हिरासत, गिरफ्तारी, रिमांड और जमानत का क़ानून

Rani Sahu
18 Oct 2021 4:51 PM GMT
आर्यन मामला: हिरासत, गिरफ्तारी, रिमांड और जमानत का क़ानून
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ड्रग्स मामले में गिरफ्तार आर्यन खान की जमानत अर्जी पर 20 अक्टूबर को आने वाले आदेश पर अनेक तरह के कयास लग रहे हैं

विराग गुप्ता। ड्रग्स मामले में गिरफ्तार आर्यन खान की जमानत अर्जी पर 20 अक्टूबर को आने वाले आदेश पर अनेक तरह के कयास लग रहे हैं. पिछले साल कॉमेडियन भारती सिंह और उनके पति हर्ष के यहां छापे में एनसीबी ने 86.50 ग्राम गांजा बरामद हुआ था और उन दोनों ने गांजे के सेवन की बात कबूली थी. उसके बावजूद उन्हें दो दिन में जमानत मिल गयी थी. दूसरी तरफ, रिया चक्रवर्ती के भाई शोविक चक्रवर्ती के यहां से ड्रग्स की कोई बरामदगी नहीं हुई, लेकिन उन्हें गिरफ्तारी के तीन महीने बाद जमानत मिली थी.

आर्यन खान पर NDPC क़ानून की धारा 8 C, 20 B, 27 और 35 के तहत कारवाई हुई है. इसके तहत ड्रग्स का सेवन करना और खरीद फरोख्त जैसे अपराध आते हैं. NCB के वकील ने अदालत में कहा कि रेव पार्टी में युवा ड्रग्स ले रहे हैं, जो बहुत ही चिंताजनक है. जांच एजेंसी के अनुसार, यह एक या दो व्यक्तियों से से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि इसके पीछे पूरा गैंग है, जिसकी जड़ में जाकर पूरी जांच करना जरूरी है.
हर मामले में अपराध की गंभीरता अलग तरीके की होती है, इसलिए उन्हें एक दूसरे से जोड़कर देखना कानूनी दृष्टि से ठीक नहीं है. भारत के संविधान, सीआरपीसी, आईपीसी और एनडीपीएस जैसे अधिनियमों में हिरासत, गिरफ्तारी, रिमांड और जमानत के बारे में विस्तृत कानूनी व्यवस्था को समझा जाय तो अनेक ग़लतफ़हमियां ख़त्म हो सकती हैं.
हिरासत में पूछताछ
आपराधिक मामलों में आरोपी को हिरासत में लेकर पूछताछ होती है, जिसके लिए मजिस्ट्रेट से अनुमति की जरूरत नहीं होती है. संविधान के अनुच्छेद 22 (2) में स्वतंत्रता का विशेष महत्त्व है, जिसके अनुसार आरोपी को हिरासत में लिए जाने के 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना जरूरी है. अवकाश के दिन या दूसरे शहर में गिरफ्तारी हो तो ट्रांजिट रिमांड का क़ानून है. अनुच्छेद 22 (1) के अनुसार, गिरफ्तार व्यक्ति को वकील से सलाह और कानूनी मदद का अधिकार है.
सन 2014 में अर्नेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के अनुसार आरोपी यदि नया अपराध करने की फिराक में हो, सबूतों को नष्ट कर सकता हो या गिरफ्तारी के बगैर उसे अदालत के सामने पेश करना मुश्किल हो. उन्हीं मामलों में गिरफ्तारी पर जोर दिया जाना चाहिए.
जमानती और गैरजमानती अपराधों में गिरफ्तारी
पुलिस या अन्य कानूनी एजेंसियां कब और कैसे गिरफ्तार कर सकती है, इस बारे में दो तरह की कानूनी व्यवस्था है. पहला, संज्ञेय और गैरजमानती किस्म के गंभीर अपराध जैसे हत्या, लूट, बलात्कार और ड्रग्स आदि के मामलों में मजिस्ट्रेट के वारंट के बगैर ही आरोपी को गिरफ्तार किया जा सकता है. दूसरे असंज्ञेय और जमानती किस्म के हल्‍के किस्‍म के अपराध के मामले, जिनमे सामान्यतः मजिस्ट्रेट के आदेश के बगैर गिरफ्तारी नहीं होनी चाहिए
और, यदि गिरफ्तारी करना जरूरी हो, तो थाने या अदालत से ही तुरंत जमानत मिलकर रिहा होने के लिए कानूनी प्रावधान बने हुए हैं. सीआरपीसी कानून की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अनेक अहम् फैसले दिए हैं, जिसके अनुसार तीन साल से कम सजा के मामलों में बेवजह गिरफ्तारी नहीं होना चाहिए.
जांच के दौरान पुलिस या न्यायिक हिरासत
गिरफ्तार करने के बाद पुलिस जब आरोपी को अदालत में पेश करती है. सीआरपीसी क़ानून की धारा 167 के अनुसार मजिस्ट्रेट के पास दो विकल्प होते हैं. पहला आरोपी को पुलिस हिरासत में दिया जाय या फिर उसे न्यायिक हिरासत में जेल भेज दिया जाय. न्यायिक हिरासत में पुलिस या अन्य अधिकारियों को यदि पूछताछ करनी हो तो उसके पहले मजिस्ट्रेट की अनुमति लेना जरूरी होता है. दूसरी तरफ पुलिस या एनसीबी की हिरासत में यदि आरोपी हो तो उससे कभी भी पूछताछ की जा सकती है.
न्यायिक हिरासत में रहने वाले आरोपी की सुरक्षा, कोर्ट के अधीन होती है. पुलिस या न्यायिक हिरासत की अवधि ख़त्म होने पर यदि जांच पूरी नहीं हो तो इसे बढाने के लिए हर बार मजिस्ट्रेट को नया न्यायिक आदेश पारित करना पड़ता है. इस बारे में सुप्रीम कोर्ट ने कई अहम् फैसले दिए हैं जिसके अनुसार गिरफ्तारी के मामलों में ट्रायल कोर्ट को रूटीन आदेश से हिरासत की अवधि नहीं बढानी चाहिए.
जमानत का क़ानून
संविधान के अनुच्छेद 21 की व्याख्या करते हुए सुप्रीम कोर्ट के जज कृष्ण अय्यर ने वर्ष 1977 के एक अहम फैसले में कहा था कि सात साल से कम सजा के मामलों में जमानत नियम और गिरफ्तारी अपवाद होनी चाहिए. सीआरपीसी कानून की धारा 167(2) के अनुसार पुलिस या न्यायिक हिरासत में अधिकतम 60 या 90 दिन तक ही किसी आरोपी को रखा जा सकता है. उसके बाद जांच एजेंसी या पुलिस यदि आरोप पत्र दाखिल नहीं कर पावे तो आरोपी को जमानत यानी डिफॉल्ट बेल मिलने का हक है.
वर्ष 1994 में जोगिंदर कुमार के फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के जज वेंकटचलैया ने बेवजह की गिरफ्तारियों को रोकने के लिए कई जरूरी आदेश पारित किए थे. इन आदेशों को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने अपने दिशानिर्देश में शामिल किया है. इनके अनुसार, बहुत ही गंभीर अपराध और शातिर अपराधी, जो नए अपराध करने के साथ गवाह और सबूत मिटा सकता है, वैसे मामलों में ही जमानत देने से इन्कार होना चाहिए.
एनडीपीएस के विशेष क़ानून में लंबी रिमांड और सख्त सजा
एनडीपीएस का कानून विशेष कानून है. इसमें कुछेक अपराध जमानती हैं, लेकिन अधिकांश आरोप गैरजमानती हैं. यह मानवता के खिलाफ अपराध माना जाता है, इसलिए भारत समेत कई देशों में इससे जुड़े खतरनाक अपराधियों के लिए आजीवन कारावास और मृत्युदंड की अधिकतम सजा का प्रावधान है. सामान्य मामलों में अधिकतम 60 दिन में आरोपी को जमानत मिल जाती है. लेकिन एनडीपीएस क़ानून की धारा 36A (4) के अनुसार आरोपी को अधिकतम 180 दिन तक हिरासत में रखने का प्रावधान है.
ड्रग्स के गंभीर अपराधों में जांच पूरी ना होने पर अदालतें विशेष आदेश से आरोपी को एक साल तक न्यायिक हिरासत में रख सकती हैं. आर्यन मामले में जमानत पर आदेश तो 20 अक्टूबर को आएगा लेकिन उसके बाद आरोप पत्र यानी चार्जशीट दायर होगी. मुक़दमे के ट्रायल और उसके बाद अपील में बरी या दोषी होने पर ही आर्यन के अपराध या बेगुनाही का अंतिम फैसला होगा.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)


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