सम्पादकीय

अरविंद त्रिवेदी स्मृति शेष: चले गए रावण की गर्जना को आम जनमानस तक महसूस कराने वाले 'लंकेश' ...

Gulabi
8 Oct 2021 11:45 AM GMT
अरविंद त्रिवेदी स्मृति शेष: चले गए रावण की गर्जना को आम जनमानस तक महसूस कराने वाले लंकेश ...
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देश के जाने-माने फ़िल्म अभिनेता और 90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े सांसद रहे अरविंद त्रिवेदी नहींं रहे

डॉ. मनीष कुमार जैसल।

देश के जाने-माने फ़िल्म अभिनेता और 90 के दशक में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े सांसद रहे अरविंद त्रिवेदी नहींं रहे। उज्जैन में जन्में अरविंद त्रिवेदी गुजराती सिनेमा और हिंदी सिनेमा में क़रीब 300 से अधिक फ़िल्मों में अभिनय कर चुके थे। लोग आज भी उनके टीवी की दुनिया में निभाए रावण के किरदार के लिए याद करते हैं। दरअसल रावण की प्रतिमूर्ति को आम जनमानस में ढालने में अरविंद त्रिवेदी के योगदान को बिसारा नहीं जा सकेगा ।


हिंदी और गुजराती सिनेमा संस्कृति में कई किरदारों को जीवंत करने वाले अरविंद त्रिवेदी ने कई अभिनय किए। इसमें 1974 में आई फ़िल्म त्रिमूर्ति में बलराम नाम के मुख्य विलेन का किरदार, या फिर गुजराती फ़िल्म देश रे जोया दादा परदेश जोया में दादा जी का किरदार दोनों को भुलाया नही जा सकता।

टीवी के परदे की कुछेक यादें जो आज की पीढ़ी में बची रह गई हैं या बची रह पाएंगी उनमें से विक्रम और बेताल के योगी, सीरियल विश्वामित्र के सत्यार्थ त्रिशंकु और रामानन्द सागर कृत रामायण के रावण हैं।

1986 में आरम्भ हुए इस सीरियल का समाजशास्त्रीय अध्ययन यह बताता है कि इसमें सभी किरदारों ने दर्शकों को हिंदू धर्म ग्रंथ रामचरित मानस के एक एक अंश का दर्शन कराया है। पौराणिक लोकप्रिय कथा को जीवंत रूप दिया। जानकार मानते हैं कि 80 प्रतिशत हम अपनी आंखों से देखे गए विजुअल से प्रभावित होते हैं, उन्हें अंतर्मन में बसाते हैं ऐसे में अरविंद त्रिवेदी का फ़ेसियल एक्सप्रेशन और वाचन शैली रावण के किरदार को और अधिक लोकप्रिय बना गई।

थिएटर की रुचि ने अरविंद त्रिवेदी को इस क्षेत्र में और परिपक्व बनाया। आप सोचिए जिस दिनों रामानन्द सागर निर्देशित टीवी सीरियल रामायण का ऑडिशन चल रहा था अरविंद केवट के किरदार के लिए गुजरात से मुंबई गए थे। ऑडिशन देकर जब अरविंद बाहर निकले तो रामानन्द सागर पर उनकी नज़र पड़ी।

रामानन्द सागर जी परखी नज़र ने दुनिया को एक ऐसा किरदार दिया जिसे सदियों तक भुलाया ना जा सकेगा। इस किरदार के लिए पहले हिंदी सिनेमा के मशहूर खलनायक अमरीश पुरी को सेलेक्ट किया गया था। माथे की स्पष्ट लकीरें, ग़ुस्से सा लाल चेहरा, वज़नी मुकुट पहने अरविंद त्रिवेदी ने जिस रावण को टीवी के परदे पर ज़िंदा किया वो आज भी फ़िल्म और थिएटर के छात्रों के लिए केस स्टडी और सिलेबस का हिस्सा हैं।
82 वर्ष की आयु में अंतिम सांस लेने वाले अरविंद की निजी ज़िंदगी के कुछ पहलू सामाजिक संदेश देते हैं। परदे पर नकारात्मक किरदार निभाने वाला निजी ज़िंदगी में उतना ही सकारात्मक और सहज होगा ऐसे बिरले होते हैं । सीता अपहरण का दृश्य आप याद कीजिए।

ऐसा लगता है कि इस दुष्ट दरिंदे को कोई दिव्य शक्ति आकर इस कृत्य को करने से रोक दे। ख़ुद अपने जीवन में राम भक्त रहे अरविंद ने इस संदर्भ में कहा कि मैं इस सीरियल के बाद अरविंद नहीं लंकापति लंकेश हो गया था। मुझे ट्रेन में लोग सीट दे दिया करते थे और पूछते थे आगे वाले एपिसोड में क्या होगा। मुझे सीता अपहरण वाले दृश्य में दीपिका बनी सीता के बाल खींचने का दुःख है। लेकिन सीन नेचुरल लगे और दुःख भी ना हो के बीच फंसे अरविंद ने इसे किया। आज वह दृश्य हम जैसे तमाम युवा पीढ़ी के दर्शकों के लिए मील के पत्थर जैसा है।

टीवी की दुनिया में खलनायक का स्टार हो पाना मुश्किल होता है। अरविंद अपवाद रहे। उन्होंने मध्य प्रदेश का होने के बावजूद गुजरात की साबरकांठा लोकसभा सीट से 1991 में सांसद का चुनाव जीता । उनकी लोकप्रियता और कार्यों का ही फल रहा कि उन्हें 2002 में भारतीय फ़िल्म प्रमाणन बोर्ड का अध्यक्ष भी नियुक्त किया गया।

अरविंद त्रिवेदी जब आज हमारे बीच नहीं है तब हमें उनके किरदार को बतौर संदर्भ यह कहने में कोई संकोच नही करना चाहिए कि जिस किरदार को उन्होंने समाज को शिक्षित और आनंदित करने के लिए निभाया था कभी उनके लिए यह मुसीबत भी बना।

अरविंद ख़ुद बताते थे-
उनके इलाक़े के लोगों ने उनके बच्चों को रावण के बच्चे और पत्नी को मंदोदरी आदि कहने लगे। एक वाक़या और भी यहां जानना ज़रूरी है जब टीवी सीरियल में रावण वध का एपिसोड चला तो उसी समय अरविंद के इलाक़े में शोक की लहर फैली थी।

लोगों का टीवी सीरियल से इतना जुड़ाव हमें मीडिया माध्यमों की प्रभावशीलता बताता है। हम किसी दृश्य या श्र्व्य माध्यम को जिस तल्लीनता से देखते हुए उसे आत्मसात करते हैं उसे मौजूदा युग में आंकलन करने की भी ज़रूरत है। यही कारण रहा कि बतौर सीबीएफ़सी चेयरमैन अरविंद त्रिवेदी ने फ़िल्मों के कंटेंट पर भी काफ़ी ज़ोर दिया था । हालांकि विवादों से घिरे होने के बावजूद उन्होंने फ़िल्मों के कंटेंट पर नियंत्रण का ज़िम्मा बख़ूबी निभाया था।

टीवी के स्वर्ण युग के दौर को जब याद किया जाएगा उसमें रामानन्द सागर कृत रामायण सर्वश्रेष्ठ होगी। इस सीरियल के किसी किरदार को छोटा बड़ा कहना तो अतिशयोक्ति होगी लेकिन जिस किरदार से दर्शक समाज में एक भय और ऑडीओ विज़ुअल मिडियम से शिक्षण प्रशिक्षण की बात होगी तो रावण ज़रूर याद आएंगे। वही रावण जो हम सबसे अंदर है। हम चाह कर भी उसे मारना नहीं चाहते। लेकिन अरविंद त्रिवेदी ने इस किरदार को निभाते हुए भी ख़ुद को अंदर से राम के प्रति सच्ची श्रद्धा रखी।

अलविदा अरविंद त्रिवेदी लंकेश।
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