सम्पादकीय

कलात्मक उत्कृष्टता : व्यवस्था की भूलभुलैया और आदिवासी समाज, जल-जंगल और जमीन की चिंता

Neha Dani
5 Jun 2022 1:51 AM GMT
कलात्मक उत्कृष्टता : व्यवस्था की भूलभुलैया और आदिवासी समाज, जल-जंगल और जमीन की चिंता
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एकदम साफ-सुथरी, लेकिन रोचक और मनोरंजक फिल्म। मुझे लगता है, यह फिल्म भारतीय सिनेमा में एक नए अध्याय की शुरुआत कर सकती है।

यह मेरी समझ की सीमा हो सकती है कि मुझे बहुत कम फिल्में अच्छी लगती हैं। किसान, आदिवासी, जल-जंगल और जमीन की चिंता करने वाली अच्छी फिल्म तो इस समय में दुर्लभ-सी चीज होती जा रही है। ऐसे समय में भूलन द मेज देखकर लगा, जैसे रेगिस्तान में अचानक मीठे जल वाला तालाब मिल गया हो। इस फिल्म के केंद्र में एक संपूर्ण आदिवासी गांव का समाज है। आदिवासियों की जमीन से जुड़ी परेशानियां हैं और उनका जंगल है।

वहां उनके जंगल में पाए जाने वाले भूलन कांदा नामक एक पौधे को लेकर मिथ है कि गलती से उस पर पांव पड़ गया, तो तब तक आदमी वहीं भटकता रहता है, जब तक कि कोई उसको छूकर-झकझोर कर जागने को नहीं कह देता!... इस मिथक का बहुत सुंदर इस्तेमाल करते हुए इस फिल्म में उस व्यवस्था को जगाने की बात कही गई है, जो भोले-भाले आदिवासियों पर अपना कानून थोपकर एक भूलभुलैया में खो गई है।
यह फिल्म चर्चित कवि-उपन्यासकार संजीव बख्शी के उपन्यास भूलन कांदा पर बनी है। उपन्यास की मूल कथाओं के साथ बिना किसी छेड़छाड़ के जिस तरह यह फिल्म उसकी पूरी संवेदना को बचाए हुए है, वह दुर्लभ है। हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर बनी कई फिल्में देखने का मौका मिला और उनके लेखकों की असंतुष्टि से भी अवगत रहा हूं। साहित्यिक कृतियों के साथ जैसा न्याय बांग्ला के फिल्मकारों ने किया, वैसा हिंदी की दुनिया में जरा कम रहा है।
तीसरी कसम जैसी कम फिल्में आईं, जिनमें रचनाकार का जुड़ाव और रचना की आत्मा की रक्षा का पूरा-पूरा ख्याल किया गया हो। ठीक उसी तरह की घटना यहां दोहराई गई लगती है। रेणु की तरह ही फिल्म-निर्माण के हर मोड़ पर संजीव बख्शी का यहां न केवल साथ रहा, बल्कि इसके निर्देशक मनोज वर्मा ने उपन्यास की आत्मा की रक्षा के साथ-साथ कलात्मक उत्कृष्टता कायम रखने के लिए संजीव बख्शी का हरसंभव सहयोग हासिल किया।
यों हिंदी उपन्यास भूलन कांदा पर बनी भूलन द मेज को छत्तीसगढ़ी फिल्म कही गई है, लेकिन इसके दो-तीन गीत, कुछेक शब्दों और संवादों को छोड़ दें, तो पूरी फिल्म हिंदी में है। हिंदी जानने वाले को फिल्म में आए छत्तीसगढ़ी शब्दों से कहीं कोई परेशानी नहीं होती, बल्कि इससे एक अलग आस्वाद के साथ ही उस समाज और वहां की संस्कृति को जानने-समझने में ज्यादा मदद मिलती है। 'भूलन खूंदे' घूम रहे शहरी लोगों का समाज आदिवासियों के लिए अपरिचित-सा है। 'यहां थूकिए, वहां मूतिए/ये मत करिए, ये ही करिए' वाला कानून उस भोले-भाले आदिवासी समाज के लिए भूलभुलैया की तरह है।
सरकारी नए नक्शे में गांव की जमीन किसी की किसी और के नाम चढ़ गई। पहाड़ को बस्ती, तालाब को पहाड़, किसी की आबादी वाली जमीन किसी और की! तो गांव पंचायत में मुखिया ने फैसला किया कि सब अपनी-अपनी जमीन उसी तरह जोतेगा, जैसा पहले से जोतता रहा है। सबने फैसला मान लिया, लेकिन किसी कारण उस रात पंचायत में न आया बिरजू अगले दिन हल जोतते हुए भकला से उलझ गया कि यह अब मेरी जमीन है। भकला ने समझाने की कोशिश की कि पंचायत में मुखिया ने ऐसा फैसला किया है, लेकिन वह बिना कुछ सुने-समझे लड़ाई पर उतर आया। हाथापाई में बिरजू के पांव का संतुलन खो गया और भकला के हल के फाल पर गिरकर वह मर गया।
इसके बाद पुलिस तो बुलाई जाती है, पर सर्वसम्मति से फैसला कर गांव और पंचायत छोटे-छोटे बाल-बच्चे वाले निर्दोष भकला के बदले अकेले और बूढ़े गंजहा को जेल भेज देते हैं। थोड़ी देर के लिए सच को छिपाया जाता है, लेकिन आदिवासी-समाज तो झूठ बोलना जानता नहीं। फिर सच बताने के बाद स्थिति बदल जाती है। फिल्म की कहानी एक तरह से यहीं से शुरू होती है। न्याय-व्यवस्था, सच और झूठ और उस चक्की में पीसते संपूर्ण गांव के लोगों के अंतर्द्वंद्व। सामूहिकता में विश्वास करने वाले उस पहाड़ी गांव के भोले लोगों के लिए कानून पहेली की तरह है। बहुत ही स्वस्थ किस्म की कॉमेडी जॉनर वाली यह फिल्म इशारों-इशारों में बड़ी बात कहती है।
मुख्यतः महुआ भाटा गांव का लोकेशन हो या शहर रायपुर का, फिल्म के एक-एक दृश्य इतने तार्किक और अर्थपूर्ण बन पड़े हैं, मानो कोई क्लासिक पेंटिंग। एक-एक संवाद, गीत, ध्वनि और दृश्य पर इस तरह काम किया गया है कि पूरी फिल्म में कुछ भी अनावश्यक या अतिरिक्त खोजना मुश्किल है। बिना किसी मसाला और तड़के का इस्तेमाल किए, सहज-सरल ढंग से बात कहते हुए, कला की समस्त ऊंचाइयां हासिल कर लेना कोई खेल नहीं, लेकिन यह कमाल इसके निर्देशक मनोज वर्मा ने किया है। एकदम साफ-सुथरी, लेकिन रोचक और मनोरंजक फिल्म। मुझे लगता है, यह फिल्म भारतीय सिनेमा में एक नए अध्याय की शुरुआत कर सकती है।

सोर्स: अमर उजाला

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