सम्पादकीय

कला-सिनेमा और किस्सा: महानतम फिल्मों के पीछे काम करता है निर्देशकों का जुनून

Rani Sahu
27 Aug 2021 9:25 AM GMT
कला-सिनेमा और किस्सा: महानतम फिल्मों के पीछे काम करता है निर्देशकों का जुनून
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अगर मैं आपसे यह सवाल पूछ लूं कि दुनिया का सबसे लोकप्रिय मनोरंजन का माध्यम कौन सा है

रमीज राजा अंसारी। अगर मैं आपसे यह सवाल पूछ लूं कि दुनिया का सबसे लोकप्रिय मनोरंजन का माध्यम कौन सा है, तो बिना एक क्षण गंवाए आप का उत्तर होगा- सिनेमा, और ये सही भी है। सिनेमा हम सब की भावनाओं से जुड़ा हुआ है।

हम सब के जीवन में फ़िल्मो से जुड़ी बेहिसाब यादें होती हैं। एक फ़िल्म को कई कसौटियों पर कसा जाता है। और उनके मकसद और दर्शकवर्ग के हिसाब से उन्हें अलग-अलग विभूतियों से नवाज़ा जाता है जैसे बॉक्स-ऑफिस पर हिट या फ्लॉप होना।
क्रिटिकली अक्लेम होना, आम जनमानस में लोकप्रिय होना वगैरह-वगैरह। कुछ फिल्मों को हिट फ़िल्मों का दर्जा मिलता है, कुछ को सुपरहिट तो कुछ को ब्लॉक-बस्टर का दर्जा मिलता है। लेकिन ऐसी कम ही फ़िल्में होती हैं जिनको कालजयी होने का तमगा मिलता है, लेकिन क्या आपको पता है कैसे एक फ़िल्म कालजयी या क्लासिक बनती है?
मैं व्यक्तिगत तौर पर मानता हूं एक औसत अभिनेता, एक औसत निर्देशक और एक औसत पटकथा मिल कर एक हिट फ़िल्म आसानी से बना सकते हैं और अगर कहीं तुक्का सही लगा तो एक औसत टीम एक सुपरहिट फ़िल्म भी बना सकते हैं। लेकिन क्या औसत अभिनेताओं और एक दोयम दर्जे की कहानी मिलकर एक कालजयी फ़िल्म बना सकते हैं?
आपको सुन कर शायद अजीब लगे लेकिन मैं इस प्रश्न का सकारत्मक उत्तर दूंगा। बस मेरी शर्त इतनी है कि फ़िल्म का निर्देशक कोई ऐसा जुनूनी हो जो अपने सिनेमा को लेकर लगभग पागल ही हो। अगर आपको मेरा उत्तर सुन कर हंसी आई हो तो ये बॉलीवुड के इतिहास की सबसे कालजयी और भव्य फ़िल्म मुगल-ए-आज़म और उसके निर्देशक के आसिफ का एक कि़स्सा नोश फ़रमाएं।
पूरी दुनिया में कहीं भी अगर आपको एक महान फ़िल्म दिखती है तो ये मान लीजिए कोई जुनूनी ही इस रचना के पीछे है। - फोटो : सोशल मीडिया
वह किस्सा कुछ इस तरह है..
फ़िल्म के पहले सीन में बादशाह अकबर बने पृथ्वीराज कपूर को अजमेर की कड़ी धूप में नंगे पांव चलकर अजमेर शरीफ़ की दरगाह पर जाना था, एक पुत्र का पिता बनने की मन्नत मांगने। आसिफ़ साहब ने आदेश दिया कि पृथ्वी राजकपूर को नंगे पांव चलकर ही ये टेक देना होगा ताकि बेऔलाद होने का उनका दर्द उनके चेहरे पर साफ़ झलके और दृश्य जीवंत हो जाए।
बाहर बरसती आग देखकर कपूर साहब हिचकिचाए। उन्होंने सुझाव दिया कि ये दृश्य बिना जूते-चप्पल उतारे भी फ़िल्माया जा सकता है, बस कैमरा कमर से लेकर चेहरे तक का फ़्रेम लें। आसिफ़ साहब बिल्कुल भी तैयार नहीं हुए।
पृथ्वीराज कपूर ने तंज कसते हुए कहा-
"आपको क्या? आपको तो बस अपने जूते पहन कर कैमरे के पीछे रहना है। इस धूप में जो कैमरे के सामने नंगे पांव चलेगा उससे पूछिए"। बस फिर क्या था आसिफ़ साहब ने अपने जूते उतार दिए और सेट पर मौजूद सभी लोगों को ताकीद की कि जब तक ये सीन फ़िल्माया नहीं जाता कोई भी अपने जूते या चप्पल नहीं पहनेगा।
पृथ्वीराज कपूर ये ऐलान सुनकर भौंचक्के रह गए। मन मारकर उन्हें ये सीन नंगे पांव ही करना पड़ा। लेकिन जब टेक 'ओ. के' हुआ तो वाकई में आसिफ़ साहब का कहना सच साबित हुआ।
पृथ्वीराज कपूर के पैरों के छाले उनके चेहरे पर दिख रहे थे। ये दृश्य भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमर हो चुका था। अपने काम के लिए ये जुनून सिर्फ़ भारतीय निर्देशकों तक ही सीमित नहीं हैं। पूरी दुनिया में कहीं भी अगर आपको एक महान फ़िल्म दिखती है तो ये मान लीजिए कोई जुनूनी ही इस रचना के पीछे है।
1997 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म ने हर सिनेप्रेमी का दिल जीत लिया था। लेकिन कोई था जो इससे असंतुष्ट भी था और वो थे जाने-माने खगोलविद नील डेग्रेस्स टायसन। - फोटो : सोशल मीडिया
हॉलीवुड में भी कम नहीं है ऐसी कहानियां
अब ज़रा हॉलीवुड की बात की जाए। टाइटैनिक हॉलीवुड की महानतम फ़िल्मों में से एक मानी जाती है। टाइटैनिक हॉलीवुड की उन फ़िल्मों में से है जिन्हें सीमाओं से परे दर्शकों का प्यार मिला। 1997 में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म ने हर सिनेप्रेमी का दिल जीत लिया था। लेकिन कोई था जो इससे असंतुष्ट भी था और वो थे जाने-माने खगोलविद नील डेग्रेस्स टायसन।
दरअसल, टायसन को फ़िल्म के अंतिम दृश्य, जिसमें आर्कटिक महासागर में लगभग जम चुकी नायिका रोज़, आकाश में चमकते तारों की ओर निहारती है से दिक्कत थी।उनका कहना था खगोलीय दृष्टि से देखा जाए तो आकाश में तारों का जो क्रम दिखाया गया था वो 1912 (जिस साल टाइटैनिक डूबा) के हिसाब से ग़लत था।
इस बाबत् उन्होंने निर्देशक जेम्स कैमरून को एक ई-मेल भेजा और उन्हें उनकी ग़लती से अवगत कराते हुए उनके 'सिनेमैटिक परफेक्शन'पर सवाल उठाए। कैमरून को अपनी ग़लती का अहसास हुआ।
कैमरून ने टायसन से आग्रह किया कि वो दृश्य को त्रुटिहीन बनाने में मदद करें। टायसन ने जेम्स कैमरून के आग्रह को स्वीकारा और दृश्य में तारों के समूह को 1912 के हिसाब से सही क्रम में रखने में टाइटैनिक की तकनीकी टीम की सहायता की।
जब टाइटैनिक को 2012 में दोबारा 3डी में रीलीज़ किया गया तो आकाश में चमकते तारे खगोलीय दृष्टि से बिल्कुल सही क्रम में थे। भले ही हमें- आपको इस परफेक्शन से कोई फ़र्क न पड़ता हो और जेम्स कैमरून की ये हरकत पागलपन की हद लगती हो, लेकिन ये जेम्स कैमरून का पागलपन ही था जिसने टाइटेनिक को सिर्फ़ फ़िल्म नहीं बल्कि एक महागाथा बना दिया।
बॉलीवुड हो, हॉलीवुड हो या कोई और फ़िल्म इंडस्ट्री, ऐसे जुनूनी और पागल निर्देशक हर जगह हैं जो अपने काम को लेकर सनकपन की हद तक संजीदा हैं। और ऐसे सनकियों की वजह से ही अभी भी कालजयी फ़िल्मे आती रहती हैं, और कालजयी सिनेमा का मतलब सिर्फ़ भव्य और अरबों रुपए कमाने वाली फ़िल्मे नहीं हैं।
चाहे भारत के अनुराग कश्यप हों या दक्षिण कोरिया के बोंग जून हो, कालजयी सिनेमा रचने के लिए ये भव्यता और भारी बजट के मोहताज नहीं। एक 'ऑल टाईम क्लासिक' रचने के लिए इनका जुनून ही काफ़ी है। कोई भी फ़िल्म एक कालजयी फ़िल्म बन सकती है भले ही उसमें कामचलाऊ अभिनेताओं की फ़ौज हो और कहानी भले ही घिसी-पिटी हो शर्त सिर्फ़ इतनी है कि निर्देशक की कुर्सी पर कोई सनकी बैठा हो।
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए अमर उजाला उत्तरदायी नहीं है। अपने विचार हमें [email protected] पर भेज सकते हैं। लेख के साथ संक्षिप्त परिचय और फोटो भी संलग्न करें।


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