सम्पादकीय

को-एजुकेशन के ख़िलाफ़ अरशद मदनी, लड़कियों के लिए तालिबानी सोच

Gulabi
2 Sep 2021 3:59 PM GMT
को-एजुकेशन के ख़िलाफ़ अरशद मदनी, लड़कियों के लिए तालिबानी सोच
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मदनी क्‍यों खत्‍म करना चाहते हैं सह-शिक्षा

सांस लेने के तमाम रास्ते बंद कर देने चाहिए, लड़कियों को घरों में क़ैद कर देना चाहिए, उनके पर क़तर देने चाहिए. एक यही कोशिश होती है कट्टरपंथियों की. धर्म कोई भी हो, लेकिन लड़कियों के मामले में सोच सबकी एक हो जाती है. लड़कियां संपत्ति हैं, लड़कियों पर घरों की इज्ज़त का बोझ डाल दिया जाता है, उन्हें सपने देखने की आज़ादी नहीं होती है, अपनी ख़्बावों में रंग भरने के लिए उन्हें दिन रात एक करना पड़ता है, समाज से परिवार से भिड़ना पड़ता है. लड़कियां कैसे काबू में रहें इसके लिए भरपूर कोशिश की जाती है


संस्कारों, संस्कृति, परंपरा और परिवार की इज़्जत के नाम पर बेटियों के क़त्ल तक को जायज़ ठहराया जाता है. कहीं कोई अनहोनी होती है तो उसके लिए ज़िम्मेदार लड़कियां होती हैं. बयान आते हैं कि आग और पेट्रोल को अलग अलग रखना चाहिए. नौजवान लड़के हैं गलतियां हो जाती हैं. ये बो बयान हैं जो गलत को जस्टीफाइ करते हैं. समाज में फैली असमानता, गंदगी को स्थापित करते हैं. समाज में फैल रही अनैतिकता के लिए लड़कियों को ज़िम्मेदार माना जाता है, कोई लड़कों पर सवाल तक नहीं उठाता है.

मदनी क्‍यों खत्‍म करना चाहते हैं सह-शिक्षा

जमीयत उलेमा ए हिंद के अध्यक्ष अरशद मदनी साहब कहते हैं कि लड़के-लड़कियों की पढ़ाई अलग होनी चाहिए. उनके मुताबिक, अनैतिक आरचण से दूर रहने के लिए सह-शिक्षा को खत्म किया जाना जरूरी है. मदनी ने गैर मुस्लिमों से भी अपील की है कि वे सह-शिक्षा से परहेज करें. जमीयत की ओर से जारी बयान के मुताबिक, संगठन की कार्यसमिति की बैठक में मदनी ने यह टिप्पणी की. जमीयत उलेमा-ए-हिंद के प्रमुख मौलाना अरशद मदनी ने सोमवार को कहा कि गैर-मुस्लिम लोगों को बेटियों को सह-शिक्षा देने से परहेज करना चाहिए ताकि वो अनैतिकता की चपेट में नहीं आएं.

अब सवाल ये उठता है कि कितने प्रतिशत मुस्लिम लड़कियां या फिर हम तमाम लड़कियों की बात करें तो वो स्कूल जा पाती हैं. महिला साक्षरता का प्रतिशत पुरुष साक्षरता के मुकाबले कम क्यों है. हम 21वीं सदी की बात करते हैं, लेकिन इस इक्कीसवी सदी में बेटियों को स्कूल का मुंह देखने के लिए संघर्ष करना पड़ता है. सह शिक्षा तो छोड़िए, बेटियों को गर्ल्स स्कूल तक में दाखिला नहीं कराया जाता है. मां बाप इतना ही पढ़ा रहे हैं कि शादी बियाह हो जाए. लड़कियां बड़ी मुश्किल से दसवीं और बारहवीं कर पाती है, उसके बाद शादी के खूटे से बांध दी जाती हैं.

मदनी साहब का बयान है कि लड़कियों और लड़कों को साथ में पढ़ाने से अनैतिकता बढ़ रही है. तो क्या ये रास्ता है, समाज को नैतिकता के रास्ते पर लाने के लिए. देश का संविधान महिला और पुरुष को समान अधिकार देता है फिर वो कौन लोग हैं, जो महिला और पुरुष के लिए अलग अलग कानून नियम कायदे बनाने के हिमायती हैं. धर्म के नाम पर महिलाओं को निशाना बनाना कितना आसान है. धर्म ग्रंथों के मुताबिक लड़के लड़कियों का बंटवारा कर देना. संविधान को एक कोने में रख देना ये कहा तक रही है.

जमीयत के इस बयान से कई हिंदूवादी संगठन भी इत्तेफा़क रखते हैं वो भी कहते हैं कि सह शिक्षा को बंद होना चाहिए. लड़कियों के मुद्दे पर सभी धर्म गुरुओं की कट्टरवादियों की सोच तालिबानी हो जाती है.

बहुत ही कम मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत

बात शिक्षा की हो रही है तो मुस्लिम महिलाओं में शिक्षा का प्रतिशत बहुत ही कम है. मैं हमेशा कहती हूं कि किसी भी चीज़ से ज़रूरी है तालीम. तालीम लड़कियों को सोचने समझने की सलाहियत देती है. लेकिन मसला यही है कि लड़कियां अगर ज़्यादा पढ़ गई, तो वो सोचने समझने लगेंगी. इसी मुद्दे पर आज मां से बात हो रही थी, उन्होंने एक बेहतरीन बात कही. वो कहती हैं कि पहले लड़कियों के लिए इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, यूनिवर्सिटीज़ को खुलवाए फिर सह शिक्षा बंद करने की बात की जाए.
स्कूल से निकलकर बहुत कम लड़कियां कॉलेज और यूनिवर्सिटीज़ पहुंच पाती हैं, लेकिन मां बात अगर यही सोचने लगें कि हमें अपनी बेटी को सह शिक्षा नहीं दिलवानी है, तो हालात का अंदाज़ा हम आप लगा सकते हैं. बेटियों को इच्छाओं, उनके ख्बावों को खत्म करने की ये बेहद घटिया कोशिश है.
सवाल ये है कि क्या क्या अलग किया जाएगा. हम संविधान से चलेंगे या फिर शरिया या किसी और धर्म की किताब से. ये हिंदुस्तान है जहां लोकतंत्र है. जिसमें धर्म को मानने की आज़ादी है लेकिन ये आज़ादी कितनी मिलनी चाहिए. बेटियों को घरों में क़ैद करने की ये घटिया सोच है. तालिबान की सोच को समर्थन करने वाले ये भूल जाते हैं कि लड़कियां हाड़ मांस की बनी इंसान होती है, जितने हक़ूक आपको मिले हैं उतने ही हकूक बेटियों को भी मिले हैं.

जहां एक और बेटियां आर्मी, एयरफोर्स में जा रही हैं, जहाज़ उड़ा रही हैं, डॉक्टर इंजीनियर बन रही हैं, वहीं उन्हें रोकने की एक साजिश है. जब लड़कियों को मां बाप स्कूल करीब ना होने की वजह से घर में बैठा लेते हैं, ऐसे में ये एक और कोशिश है बच्चियों को रोकने की. मुझे लगता है कि सबसे ज़रूरी है कि हम पढ़ाई की बात करें. इस्लाम में पढ़ाई सबसे ज़रूरी बताई गई है, लेकिन मुस्लिम समाज पढ़ाई से ही पीछे हो रहा है. ज़ोर पढ़ाई के अलावा हर किसी ग़ैर ज़रूरी मुद्दों पर हैं.

क्‍या अनैतिकता के लिए सिर्फ लड़कियां ही जिम्‍मेदार हैं?

अच्छा होता कि मौलाना मदनी साहब लड़की लड़कियों को अलग करने से पहले ये कहते कि हम लड़कियों के लिए स्कूल और कॉलेज खोलेंगे, हम यूनिवर्सिटी बनवाएंगे. लेकिन नहीं, रास्ते खोलने के बजाए रास्ते बंद करने की बात की जा रही है. मुस्लिम ही नहीं, ग़ैर मुस्लिमों को भी यही सलाह दी जा रही है कि बेटियों को सह शिक्षा ना दें. अनैतिकता के लिए सिर्फ़ बेटियां ज़िम्मेदार लड़कों पर किसी तरह की कोई पाबंदी का कही कोई हिमायती नहीं है.

मुस्लिम धर्म गुरु इस बात से परेशान है कि मुस्लिम लड़कियां ग़ैर मज़हब में शादियां कर रही हैं तो हिंदू कट्टरपंथी भी इस बात पर आसमान सर पर उठाए हैं कि हिंदू लड़कियों को लव जिहाद के नाम पर बहकाया जा रहा है. दोनो ही तरफ़ के मर्दों को ये लगता है कि लड़कियों के पास अक्ल नहीं होती है, वो कुछ समझ नहीं सकती हैं वो आसानी से किसी भी साजिश का शिकार हो जाती हैं.

अरे भाई थोड़ा थमिए ठहरिए सोचिए कि लड़कियां आपको इतनी खटकती क्यों हैं, आप उन्हें घरों में क़ैद करने के हिमायती हैं, क्यों आप इतने उतावले हैं उनके पैरों में जंज़ीर डालने के.

लड़कियों के सह-शिक्षा पर एतराज़ जताने से पहले ज़रूरी ये था कि पहले लड़कियों की शिक्षा पर ज़ोर दिया जाता. लेकिन यहां तो रास्ते ही बंद करने की बात की जा रही है. कितनी जद्दोजहद करके लड़कियां घरों से निकल पाती हैं, अपना कैरियर बना पाती हैं लेकिन ये एक साजिश है लड़कियों को ख्बाव देखने से रोकने की. दरअसल सह शिक्षा रोकने से ज़रूरी है कि आप लड़कों को संस्कार दें, उन्हें बेटियों की इज्ज़त करना सिखाएं.

उन्हें बताए कि लड़कियां मस्त, माल, आइटम नहीं होती हैं, जीती जागती इंसान होती है, ठीक वैसे ही जैसे की आप हैं. बेटियों पर तालिबानी सोच थोपने से जरूरी है कि आप अपने गिरेबां में झांके कि आप कितने सभ्य हैं, संस्कारी हैं.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
निदा रहमान पत्रकार, लेखक
एक दशक तक राष्ट्रीय टीवी चैनल में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी. सामाजिक ,राजनीतिक विषयों पर निरंतर संवाद. स्तंभकार और स्वतंत्र लेखक.
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