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शिष्यों का अहंकार
एक बार कि बात है, एक गुरु के दो शिष्य थे। दोनों में प्रतिस्पर्धा थी और अहंकार भी। कुछ दिन विवाद हुआ और उसके बाद समाधान निकाला गया। तय हुआ दोनों शिष्य एक-एक पैर का जिम्मा लेंगे। एक दाएँ पैर का, दूसरा बाएँ पैर का। दोनों आमने-सामने पैर दबाते सो जाते।
एक दिन एक शिष्य कहीं उलझ गया और समय पर नहीं पहुँचा। तब दूसरा शिष्य अपने पैर को दबाता रहा। इसी बीच गुरू ने करवट बदली, तो दूसरा पैर पहले पैर के ऊपर आ गया। शिष्य पहला पैर दबा रहा था। वह दायाँ पैर था। जब गुरू ने बायां पैर ऊपर किया, तो शिष्य को बहुत गुस्सा आया। उसने सोचा यह तो मेरे प्रतिस्पर्धी का पैर है और उसने डंडा उठाकर उस पैर पर मारना शुरू कर दिया। इसी बीच दूसरा शिष्य भी आ गया।
जब उसने देखा कि उसका साथी पैर को डंडे से पीट रहा है, तो उसने भी एक डंडा उठाया और दूसरे पैर को पीटना शुरू कर दिया। गुरू का बुरा हाल था। वे दर्द से कराह रहे थे, जबकि दोनों शिष्य अपना गुस्सा एक-दूसरे के पैरों पर उतार रहे थे।
जब कुछ लोग बीच-बचाव के लिए आगे आए और दोनों को समझाया कि मूर्खों, पैर किसी का भी हो, है तो गुरू का। यदि इसी तरह अहंकार और मूर्खरता करोगे,तो तुम्हारी सेवा भावना गौण हो जाएगी और कष्ट देने का भाव हावी हो जाएगा। आखिरकार शिष्यों को समझ आई और गुरू से क्षमा माँगी। बाद में दोनों शिष्य समान भाव से गुरू की सेवा करने लगे। दरअसल, कई बार यह होता है कि हम अपनी मूर्खाताओं के कारण समस्याएँ खड़ी कर लेते हैं।
क्रेडिट बाय सच कहूं
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