सम्पादकीय

अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी !

Gulabi
5 Nov 2020 4:59 AM GMT
अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी !
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रिपब्लिक टीवी के प्रबन्ध निदेशक व प्रधान सम्पादक अर्नब गोस्वामी गिरफ्तारी

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। रिपब्लिक टीवी के प्रबन्ध निदेशक व प्रधान सम्पादक अर्नब गोस्वामी को महाराष्ट्र पुलिस ने दो साल पहले बन्द किये गये एक मामले को पुनः खोल कर जिस तरह प्रातःकाल में उनके निवास से उन्हें गिरफ्तार किया है, वह न केवल स्वतन्त्र पत्रकारिता का कत्ल करने के समकक्ष है बल्कि प्रथम दृष्टया बदले की कार्रवाई है क्योंकि श्री गोस्वामी पिछले दो महीने से कुछ ऐसे सवाल उठा रहे थे जिनमें महाराष्ट्र सरकार व उसकी पुलिस सीधे निशाने पर आ रही थी, परन्तु लोकतन्त्र में स्वतन्त्र पत्रकारिता की जगह कुछ इस तरह नियत है कि यह लोगों द्वारा सत्ता पर बैठाई गई सरकार को लोकहित में 24 घंटे सवालों के घेरे में रखती है परन्तु स्वतन्त्रता के बाद से पत्रकारिता का भी चरित्र बदला है और बाजार मूलक अर्थव्यवस्था ने इसे अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए वाणिज्य मूलक बना दिया है परन्तु इसका आधारभूत सिद्धांत किसी भी व्यवस्था में परिवर्तित नहीं हो सकता है जो कि 'जनहित' है सच्चे पत्रकार की प्रतिबद्धता केवल जन हित के प्रति ही होती है।

अर्नब गोस्वामी ने पालघर साधू हत्या मामले से लेकर सुशान्त सिंह राजपूत 'आत्महत्या' हाथरस कांड के बारे में कुछ एेसे प्रश्न खड़े किये जो तस्वीर के दूसरे पहलू की तरफ रोशनी डालते थे। बेशक इनसे असहमत होने का अधिकार प्रत्येक नागरिक को है और इन पर भी सवाल खड़े करने का पूरा हक है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि अर्नब गोस्वामी को किसी भी तरह फंसा कर जेल की सींखचों के पीछे भेज दिया जाये। अपने अंग्रेजी चैनल रिपब्लिक व हिन्दी चैनल आर. भारत के जरिये अर्नब गोस्वामी जिस तरह किसी घटना के अपने पसन्दीदा पक्ष को उभारने का प्रयास करते हैं उस पर भी पत्रकार समाज में मतभेद और असहमति हो सकती है परन्तु अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के उनके अधिकार को छीनने का हक किसी भी सरकार को नहीं है।

लोकतन्त्र में केवल पत्रकारिता ही राजनीति को शुद्ध बनाये रखने की जिम्मेदारी से लैस होती है क्योंकि वह सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों को ही कठघरे में खड़ा करके जनहित की सुरक्षा करती है अतः श्री गोस्वामी के समर्थन में केन्द्र सरकार के अधिसंख्य मन्त्रियों का आना बताता है कि पत्रकारिता को सत्ता की चेरी बनाने का प्रयास लोकतन्त्र में सफल नहीं हो सकता। विशेषकर गृहमन्त्री श्री अमित शाह का यह कहना कि अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी सत्ता के दुरुपयोग का नमूना है जो लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ पर हमला है और किसी व्यक्ति की निजी स्वतन्त्रता पर कुठाराघात है जो इमरजेंसी की याद ताजा करता है। इससे यही साबित होता है कि सत्ता में बैठे किसी भी राजनीतिक दल को सब्र से काम लेना चाहिए और पत्रकारों के साथ बदले की कार्रवाई नहीं करनी चाहिए।

असल में यह सन्देश देश की सभी राज्य सरकारों के लिए है क्योंकि कानून-व्यवस्था उनका विशिष्ट अधिकार है। अतः महाराष्ट्र सरकार का कर्तव्य बनता था कि वह श्री गोस्वामी द्वारा उठाये गये सवालों का तार्किक रूप से प्रतिरोध करती एेसा न करके उसने सवाल उठाने वाले की आवाज को ही बन्द करने का निर्णय किया जिसकी वजह से रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह को भी कहना पड़ा कि यह पत्रकारिता का गला घोंटने वाला कदम है।

मगर यह सवाल केवल रिपब्लिक टीवी का नहीं है बल्कि समूचे इलैक्ट्रानिक मीडिया और अखबारों का है कि उनकी स्वतन्त्रता लोकतन्त्र में हर हालत में बरकरार रहे और प्रत्येक जायज पत्रकार को सवाल पूछने का अधिकार हो। मगर मुम्बई के पुलिस कमिश्नर ने जिस तरह विगत 8 सितम्बर को एक प्रेस कांफ्रैंस करके रिपबल्कि टीवी को टीआरपी घोटाले में संलिप्त करने के प्रयास बिना सबूत के किये उससे राजनीतिक विद्वेष की बू आती थी। इसके बाद इस चैनल के पत्रकारों के खिलाफ जिस तरह एफआईआर दर्ज की गई उससे भी बदले की गन्ध उठी। इसके साथ ही जिस तरह ट्वीटर पर मुख्यमन्त्री श्री उद्धव ठाकरे व उनके मन्त्री पुत्र आदित्य ठाकरे की आलोचना करने वाले लोगों को पकड़ा गया उससे भी तानाशाही रवैये का ही आभास हुआ।

इसी देश में रोजाना सैकड़ों की संख्या में ट्विटर पर प्रधानमन्त्री और गृहमन्त्री की कटु आलोचना की जाती है। यू-ट्यूब पर बीसियों ऐसे चैनल हैं जो केन्द्र सरकार के नेताओं व इसकी नीतियों की कड़ी आलोचना करते हैं। ऐसा इसीलिए होता है क्योंकि भारत का संविधान अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार देता है, परन्तु महाराष्ट्र में मुख्यमन्त्री की आलोचना को ही अपराध समझ लिया जाना बताता है कि शिवसेना के नेताओं में लोकतान्त्रिक माद्दा बहुत कम है। सौभाग्य से इस राज्य में माननीय शरद पवार जैसा नेता भी हैं जिन्होंने 1978 में इस राज्य में पहली गठबन्धन सरकार प्रगतिशील मोर्चे के झंडे तले बनाई थी और उसे दो साल सफलतापूर्वक तब तक चलाया था। जब तक कि केन्द्र में 1980 में पुनः सत्ता परिवर्तन होकर इंदिरा जी वापस नहीं लौट आयी थी। श्री शरद पवार के बारे में एक और बात बहुत विख्यात है कि वह पूरे महाराष्ट्र में अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं को नाम से जानते हैं बल्कि हर जिले और तहसील के ग्रामीण पत्रकारों को भी नाम से जानते हैं। जमीन सूघ कर राजनीतिक हवा का पता लगाने में माहिर श्री पवार से पत्रकारिता जगत अपेक्षा करता है कि वह महाराष्ट्र में लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ का गला नहीं रुधने देंगे। कांग्रेस के नेताओं से भी अपेक्षा की जाती है कि वे गांधीवादी विचारों की परिपक्वता के लिए अपने विरोधी के विचार अपने से ऊंचे आसन पर बैठा कर सुनेंगे। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि प्रजातन्त्र की जड़ें इस देश में जमाने वाले पं. जवाहर लाल नेहरू एेसी शख्सियत थे जो पत्रकार या सम्पादक का सम्मान हृदय से करते थे और अपने ही अखबार समझे जाने वाले नेशनल हेराल्ड के सम्पादक स्व. चेलापति राव के कमरे में 'मे आई कम इन सर' कह कर प्रवेश किया करते थे। पत्रकारिता का सम्मान करना इस देश की गौरव गाथा इस प्रकार रहा है कि प्रत्येक स्वतन्त्रता सेनानी ने इसका दामन थाम कर लोगों में जागृति फैलाई है। बदलते समय में इसमें विकार पैदा जरूर हुआ है मगर यह भी तथ्य है कि पत्रकारिता और राजनीति दोनों सगी मौसेरी बहिनें होती हैं। अतः केन्द्र सरकार का अर्नब गोस्वामी के समर्थन में आना सन्देश देता है कि पत्रकारिता की मशाल से रोशनी बिखरनी दी जायेगी चाहे रिपब्ल्कि टीवी की पत्रकारिता से कितने ही मतभेद क्यों न हों। मगर पुलिस का इस्तेमाल करके इसे बुझाया नहीं जा सकता। इस बात को उद्धव ठाकरे को भी ध्यान से सुनना होगा। पत्रकारिता जगत के लिए भी तटस्थ रहने का समय नहीं क्योंकि अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी बर्बातापूर्ण ढंग से पुलिस का डर दिखाकर की गई है।

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