सम्पादकीय

सेना, अंतरराष्ट्रीय विवाद-3

Rani Sahu
4 March 2022 7:04 PM GMT
सेना, अंतरराष्ट्रीय विवाद-3
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रूस और यूक्रेन के युद्ध को करीब 10 दिन हो गए हैं

रूस और यूक्रेन के युद्ध को करीब 10 दिन हो गए हैं। इस युद्ध के दौरान सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं, हजारों लोग घायल हो चुके हैं और करोड़ों की संपत्ति तथा हथियार नष्ट हो चुके हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में विश्व के हर देश ने इस युद्ध के प्रति अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिए हैं। पिछले दिनों यूएन जनरल असेंबली में रूस के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पर वोटिंग हुई जिसमें प्रस्ताव के पक्ष में 141 जबकि विरोध में 5 वोट पड़े। भारत समेत 35 देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया। रूस के पक्ष में वोट करने वाले देश रूस, बेलारूस, नॉर्थ कोरिया, इरिट्रिया और सीरिया थे जबकि जिन देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया उनमें भारत, चीन, पाकिस्तान, इराक और ईरान भी शामिल हैं। जिन देशों ने वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया उनमें भारत को छोड़कर बाकी सब देशों के बारे में पूरे विश्व को पूर्व अनुमान था कि चीन, पाकिस्तान, ईरान और इराक रूस के पक्ष में ही रहेंगे क्योंकि उनके संबंध अमेरिका के साथ फिलहाल ठीक नहीं हैं, जबकि भारत पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका के मित्रों में शुमार होने के लिए कड़ी मशक्कत कर रहा था, तो भारत का अचानक पुरानी विदेश नीति के हिसाब से गुटनिरपेक्षता को कायम रखना तथा वोटिंग न करना शायद सबसे ज्यादा अमेरिका को बुरा लग रहा है।

शायद पिछले दिनों अमेरिकी संसद में भारत के खिलाफ प्रतिबंध लगाने के लिए उठने वाली आवाज इसी का परिणाम है। आजादी के बाद भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु जी ने देश के हालात और रणनीतिक, राजनीतिक तथा सामरिक सूझबूझ के अनुसार भारत को किसी भी दल का हिस्सा न बन कर गुटनिरपेक्ष राष्ट्र रहने का जो निर्णय लिया था वह शायद आज आजादी के 75 वर्ष बाद भी सार्थक सिद्ध हो रहा है। समय के साथ जब रूस ने भारत को जरूरत पड़ने पर सहायता की तो धीरे-धीरे भारत के संबंध रूस से प्रगाढ़ होते गए तथा आज स्थिति यह है कि भारतीय सेना में करीब 55 फीसदी हथियार रूस के हैं। हम भी बचपन से रूस को भारत का सच्चा मित्र सुनते हुए बड़े हुए हैं। इसमें भी कोई दो राय नहीं है कि अमेरिका पूरे विश्व में अपना दबदबा बनाए रखना चाहता है और उसकी इस मंशा को समझते हुए एशियन महाद्वीप में रूस और चीन दोनों ने इकट्ठे होकर विश्व में यूरोपियन यूनियन या फिर अमेरिका और यूरोप के वर्चस्व को चुनौती दी है। इसी का परिणाम है कि 20 वर्ष अफगानिस्तान में रहने के बाद अमेरिकी सेना को वहां से खाली हाथ लौटना पड़ा।
अमेरिका का वर्चस्व जिस तरह एशिया में कमजोर पड़ रहा है उसको मजबूत करने के लिए उसने यूक्रेन का सहारा लिया है जिसको रूस कामयाब नहीं होने देना चाहता। ऐसी स्थिति में भारत का अमेरिका के दबाव में आकर रूस के खिलाफ जाना भारत के लिए भी सामरिक दृष्टि से सही कदम नहीं होगा, क्योंकि इस तरह के निर्णय के परिणाम में रूस और चीन का अगला निशाना भारत बन जाएगा और अगर भारत रूस के साथ जाता है तो अमेरिका, इजराइल, फ्रांस और ब्रिटेन जैसे देश भारत के विरोध में चले जाएंगे जोकि भारत के लिए फायदे की चीज नहीं होगी। तो इस वक्त मेरा मानना है कि भारत को बिना किसी देश के दबाव में आए हुए न्यूट्रल रहना चाहिए तथा 75 साल पहले नेहरू द्वारा विश्व पटल पर रखी गई अपनी स्थिति गुटनिरपेक्षता का पालन करते हुए हर स्थिति पर तटस्थ रहना चाहिए। शायद व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में पढ़कर अभी तक नेहरू की नीतियों को गलत बताने वालों के लिए यह पहला सबक होगा कि विदेश नीति सोशल मीडिया पर या फिर वाहवाही लूटने के लिए भावनाओं में बहकर नहीं बनाई जाती, बल्कि अच्छी तरह विचार-विमर्श, मंथन एवं सोच-समझकर हर स्थिति का जायजा लेकर बनाई जाती है।
कर्नल (रि.) मनीष धीमान
स्वतंत्र लेखक

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