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- काले दिनों के सेना...
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ज्यों-ज्यों महामारी भयावह होती गई, इसके खबरची और भी चाकचौबंद नजऱ आने लगे। हर नए दिन में आपके लिए नई खबर लेकर आने लगे। एक और सिलसिला चल निकला। महामारी से डर घरबंदी से मोबाइल, फेसबुक या ट्वीटर से लोग चिपक गए। यारों ने इनके खाते हैक कर लिए। इसी नाम से नए प्रशंसकों की जमात खड़ी कर ली। अब आपके पास से ऐसे-ऐसे संदेश जारी कर रहे हैं कि जिन्हें पढक़र आपको लगता है, अरे, ऐसा था मैं। ऐसा लफंगा, अश्लील या डरा हुआ आदमी। आप सविनय प्रार्थना करते रहिए, 'भई यह खाता नहीं है। मेरे खाते में तो मेरे बुढ़ापे की तस्वीर लगी है। ये लोग न जाने कहां से मेरी जवानी की तस्वीर इस खाते में मार लाए। इसमें तो मैं इतना बौड़म लगता हूं, कि अपने गुजऱे जमाने पर शर्मिन्दा होने को जी चाहता है।' यहां से हटते हैं तो सनसनी और झूठी खबरें फैलाकर अपना महत्व जताने का काम शुरू हो जाता है। अच्छे भले आदमी के मरने की खबर इस विश्वास से दे दी जाती है कि जैसे अभी यार उसकी शव यात्रा में शरीक होकर चले आ रहे हैं। महामारी से डरता हुआ कोई उसकी अर्थी को कन्धा देने के लिए तैयार नहीं था।
उन्होंने खुद आगे बढ़ कर अपना कंधा पेश कर दिया। बाद में अगर कहीं वह मृत घोषित आदमी आपकी खैर खबर पूछ ले, तो भौचक्के होकर जि़न्दा भूत देख लेने की कल्पना न कर लीजिएगा। उम्र भर जिनकी कभी किसी ने परवाह नहीं की, आज वही अतिरिक्त महत्व लेने के लिए खबरों का तंत्र जाल रचते हैं। फेक न्यूज़ के रचयिता कहे जाने पर वे आपको ही फेक बता देते हैं। अब भई कफ्र्यू का जमाना है। कौन है सच्च,. कौन है झूठा. इसकी पड़ताल कौन करे? हां, कहीं इनके भ्रम में आकर घरबंदी खुलने की खबर मान ली, तो बाज़ार में जाकर मुक्त होने का हल्ला-गुल्ला करने पर बलमा सिपहिया से पीठ पर बेंत खाना पड़ सकता है। बाद में क्षतिपूर्ति के लिए हो सकता है, महामारी की इस बेंत सेना के रास्ते में फूल बरसा कर इन्हें आपको महामारी से युद्ध लडऩे वाली जुझारू सेना कहना पड़े। भला जल में रह कर सागर से कोई बैर भी तो नहीं किया जा सकता। लोगों को चेहरा बदलते इन्हीं दिनों में देखा जा सकता है। कल तक हद दर्जे के बमचख किस्म के इन्सान भी इन दिनों समाज सेवकों की श्रेणी में आ गए। वे मुफ्त लंगर बांटने से लेकर सूखा राशन और कपड़ा भी बांट रहे हैं। शायद ऐसे शातिर लोग हैं जो मौत से भी आंखें लड़ा कर अपने बदले रूप से उसे गच्चा देने की कोशिश में लगे हैं।
लीजिए, ऐसी खबरें भी यदा-कदा आने लगीं कि गरीबों में लंगर बांटने की चौधर को लेकर स्वनाम-धन्य नेताओं ने एक-दूसरे के बाल नोंच लिए या समाज सेवा करते हुए अपना चित्र न छपने पर इस नामाकूल काम में शिरकत न करने की घोषणा कर दी। अब जो सेवाभाव से दया, दान और करुणा से प्रेरित हो आगे आए थे, उनका सद्भाव तो प्रशसंनीय है, लेकिन दाल में कुछ काला की तरह ये चंद लोग पूरी दाल का स्वाद ही बिगाडऩे पर तुल गए हैं तो लोगों का दया-धर्म भी फेक न्यूज़ सा लगने लगता है। माना कि विपदा बहुत भारी थी। इस महामारी की आड़ में यार लोग अपना धंधा जमाने में जुटे रहे। जिनका रहने, खाने का ठिकाना नहीं था, महामारी लम्बी हो गई तो वे अपने लिए एकाध फ्लैट की किश्तें चुकाने में समर्थ हो गए। बड़े बूढ़े कहते हैं कि बेटा, इसमें अजीब क्या? ऐसे धंधेबाज तो हर आपदा के समय अपने दिन चमकाने के लिए उभर ही आते हैं। भई, दिन विकट हैं। चंद लोगों ने इसमें अपने लिए नया गाली पुराण भी घड़ लिया और अपने हक की बात न होने पर कहने लगे, 'जा, तुझे कोरोना वायरस हो जाए।' अरे, अरे, ऐसी असभ्य भाषा का प्रयोग न कीजिए। इससे बेहतर है, आप इन दिनों बहती गंगा में हाथ धो लीजिए। इससे आपके हाथ ही काले हो जाएंगे न, चिंता नहीं। यह गाली देने से तो बेहतर है।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
Rani Sahu
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