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- सेना और हथियार-2
बात कुछ ऐसी बनी है कि हमारे पास एक भरा-पूरा उड्डयन मंत्रालय है, एक वजनदार नागरिक उड्डयन कैबिनेट मंत्री है, लेकिन हमारे पास कोई उड़ता हुआ जहाज नहीं है। कहूं तो ऐसे भी कह सकता हूं कि विस्तीर्ण आसमान तो है हमारे पास, लेकिन उसमें उड़ती कोई चिडि़या नहीं है। टाटा ने 68 सालों बाद 18000 करोड़ रुपयों में दुनिया का सबसे महंगा रिटर्न टिकट खरीदकर अपने अपमान का बदला ले लिया है। उसने आसमान भी ले लिया है और सारे पंछी भी ले लिए हैं। विनिवेश का हर सौदा इस बात की खुली घोषणा है कि सरकार विफल हुई और उसका मंत्रालय निकम्मा साबित हुआ है। एक प्रश्न जो कोई पूछ नहीं रहा है, वह यह है कि क्या विफल सरकार व निकम्मे मंत्रालय का विनिवेश करके भी देख न लिया जाए, शायद डगमगाते अर्थतंत्र को पटरी पर लाने का यह एक रास्ता हो! टाटा से जब भारत सरकार ने 1952 में 'एयर इंडिया' लिया था तब जेआरडी ने तबके संचारमंत्री जगजीवन राम से पूछा था, आप लोग जिस तरह अपने दूसरे विभागों को चलाते हैं, क्या आप समझते हैं कि हवाई सेवा चलाना भी उतना ही आसान है? अब आपको खुद ही आटे-दाल का भाव मालूम हो जाएगा! जगजीवन राम ने थूक गटकते हुए जवाब दिया था, भले अब यह सरकारी विभाग बन जाएगा, लेकिन इसे चलाने में आपको हमारी मदद तो करनी ही होगी। आज चेहरे बदल गए हैं, लेकिन सवाल और जवाब जहां के तहां हैं। सवाल यह है कि खासी अच्छी कमाई करती और खासा अच्छा रुतबा रखने वाली एयर इंडिया सरकारी हाथों में आते ही ऐसी बुरी दशा को कैसे पहुंच गई कि उसे खरीदने वाले का अहसान मानना पड़ रहा है। हमें यह बात भी गहराई से समझने की है कि 1953 में एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण करने के बाद से आज तक भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं, वे सब की सब एकाधिक बार एयर इंडिया की मालिक रह चुकी हैं, लेकिन हवाई जहाज चलाना किसी को नहीं आया। यह भर सच होता तो भी हम सरकारों की अयोग्यता का रोना रो लेते, लेकिन सच कुछ और ही है, और बेहद कड़वा है।