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- सेना और राजनीति-1
पतझड़ के जाने, वसंत के आने से अब खेतों में फसलें कटने को तैयार हैं। हिमाचल में एक तरफ मेले और छिंजों का दौर शुरू हुआ है तो दूसरी तरफ नवरात्रों के आगमन से मंदिरों में भी चहल-पहल बढऩा शुरू हो गई है। जिस तरह मौसमी बदलाव से गर्मी का पारा बढ़ रहा है उसी तरह पंजाब में हुए सियासी बदलाव से हिमाचली राजनीति का पारा भी चरम सीमा पर दिख रहा है। अभी तक प्रादेशिक राजनीति में तीसरे पक्ष को नकारने वाले बड़े-बड़े राजनीतिक जानकार भी जनता में चल रही सुगबुगाहट से वर्षों पुरानी दो पार्टियों की परिपाटी में तीसरे दल के अस्तित्व की बात मान रहे हैं। राज्य मेंं एक तरफ महंगाई, बेरोजगारी, पुरानी पेंशन योजना, जोइया मामा प्रकरण, पेंशन के लिए नौकरी छोडक़र इलेक्शन लडऩे की सलाह आदि से भाजपा का ग्राफ नीचे गिर रहा है तो दूसरी तरफ कांग्रेस में चेहरा बनने की होड़ में दर्जनों नेताओं के दिल्ली और शिमला के दौरों से जनता गुमसुम सी टकटकी लगाकर भविष्य में खुलने वाली परतों को निहार रही है। इसके साथ ही पंजाब में बने नए नवेले मुख्यमंत्री द्वारा ताबड़तोड़ फैसलों से जनता यह सोचने पर मजबूर है कि क्या सरकार ऐसे निर्णय भी ले सकती है। शायद अभी राजनीति बदल गई है, पिछले 70 वर्षों जैसे भारत का सर्वांगीण विकास हुआ है तो वैसे ही जनता को भी चुनाव की अहमियत पता चलने लग गई है। अंग्रेजों व राजा-महाराजाओं की रियासतों से जब भारत आजादी के बाद गणतंत्र बना तो वही रियासत के रखवाले सियासत के कर्णधार बन गए और लोगों ने उनका खुले मन से स्वागत किया। समय बदलता गया और रियासत से सियासत में आए लोगों ने राजनीति को भी अपनी विरासत मान लिया।