सम्पादकीय

अफगानिस्तान में तालिबान राज को बेहतर बताने वाले क्या यूपी में बीजेपी को और मजबूत नहीं बना रहे?

Gulabi
18 Aug 2021 11:22 AM GMT
अफगानिस्तान में तालिबान राज को बेहतर बताने वाले क्या यूपी में बीजेपी को और मजबूत नहीं बना रहे?
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एक सवाल आजकल हवा में उछल रहा है कि क्या अफगानिस्तान में तालिबान का कब्जा उत्तर प्रदेश के चुनाव में असर डालेगा?

शंभूनाथ शुक्ल

एक सवाल आजकल हवा में उछल रहा है कि क्या अफगानिस्तान (Afghanistan) में तालिबान (Taliban) का कब्जा उत्तर प्रदेश के चुनाव में असर डालेगा? उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को मात्र 6 महीने बचे हैं ऐसे में सत्तारूढ़ बीजेपी (BJP) को लाभ तो होगा ही और उसको यह लाभ कथित सेकुलर नेता और उनकी मुस्लिम तुष्टिकरण की नीतियां पहुंचाएंगी. सम्भल से समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) के बुजुर्ग सांसद शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क (MP Shafiqur Rahman Barq) ने बयान दिया है कि तालिबान ने अफगानिस्तान को वैसे ही आज़ाद करवाया है जैसे भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने देश को आज़ाद करवाया था. इस बहाने उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ने वाले योद्धाओं को तालिबानी करार दे दिया है. इससे तो यही लगता है, कि महात्मा गांधी, सरदार वल्लभभाई पटेल, पंडित जवाहर लाल नेहरू, चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह तालिबानी थे. यानि 15 अगस्त 1947 से यहां पर तालिबानी राज आया. मालूम हो कि सांसद जी के विरुद्ध देशद्रोह का केस दर्ज हो चुका है.


अकेले शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क ही नहीं कई और मुस्लिम नेता भी ऐसा ही बयान दे रहे हैं. सोशल मीडिया पर अधिकांश मुस्लिम अफगानिस्तान पर तालिबानी राज को बेहतर बता रहे हैं. लेकिन यदि ऐसा है तो क्यों अफ़ग़ानी नागरिक आनन-फ़ानन देश छोड़ने में लगे हैं? यह उनकी समझ में नहीं आ रहा, उलटे वे जवाब देते हैं कि बीजेपी भी तो तालिबान ही है. किंतु वे भूल जाते हैं कि बीजेपी कोई बंदूक़ की नोक पर नहीं बल्कि जनता के वोटों से चुनाव जीत कर सत्तारूढ़ हुई है. चुनाव के लिए उसने किसी स्थापित संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया है. तालिबान के प्रति भारत की अधिकांश मुस्लिम जनता का यह आकर्षण सिद्ध करता है कि अब भी वे टू-नेशन थ्योरी वाली मुस्लिम लीग व जिन्ना की मानसिकता से बाहर नहीं आ पाए हैं. बर्बर व कट्टर तालिबान के प्रति उनका यह लगाव हिंदुओं को उनसे दूरी बनाने को विवश करता है. इससे और कुछ हो न हो हिंदुओं को बीजेपी के साथ जुड़ने के लिए प्रेरित करता है. इस तरह अनजाने ही सही बीजेपी के नम्बर बढ़ते हैं. इसलिए बीजेपी गदगद है कि अफगानिस्तान में सत्ता हस्तांतरण का यह नाटक उसके लिए मुफ़ीद है.
बीजेपी को चुनाव जीतने में उसके विरोधी ही मदद करते हैं
कई बार ऐसा होता है कि शत्रु ही सबसे अधिक सहायक होता है. बीजेपी के मामले में उसके मित्र तो नाकारा निकले लेकिन उसके शत्रु उसकी इतनी सहायता करते हैं कि चुनाव उसके लिए आसान हो जाते हैं. पिछले सात वर्षों में बीजेपी क़रीब-क़रीब हर जगह सफल रही. बस पश्चिम बंगाल अकेला एक ऐसा अपवाद निकला जहां बीजेपी सारे दांव इस्तेमाल कर भी चित हो गई. उसके लिए बस यही संतोष का विषय था कि तीन से 66 तक तो पहुंचे. लेकिन पश्चिम बंगाल की बात अलग है, वहां पर जिस किसी ने ज़मीनी अवलोकन किया उसी ने कह दिया था कि वहां सरकार ममता बनर्जी की ही बनने के आसार हैं. उत्तर प्रदेश में बीजेपी के पास राम मंदिर तो है ही मुस्लिम समाज की तीव्र घृणा भी उसके लिए मददगार है. ध्यान रखिए घनघोर नफ़रत और बेइंतहां प्यार सदैव प्रतिद्वंद्वी को लाभ पहुंचाते हैं.
मुस्लिम समाज बीजेपी और मोदी तथा योगी से इतनी नफ़रत करता है कि जाने-अनजाने वह हिंदुओं और हिंदू धर्म से भी घृणा करने लगा है. किसी भी धर्मभीरु हिंदू को निक्करधारी या संघी बता देने से सेकुलरों और मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाले विशाल हिंदू समाज से दूर हो जाते हैं. कम्युनिस्ट पार्टियां इसका सबूत हैं. जिनका उस पश्चिम बंगाल में सफ़ाया हो गया, जहां पर उन्होंने 34 वर्ष तक राज किया है. कांग्रेस भी उसी राह पर चल रही है. जिस देश पर उसका 60 साल राज रहा और क़रीब-क़रीब हर प्रदेश में भी वहां से वह साफ़ होती जा रही है. ज़ाहिर है उसे एक लोकतंत्र में ख़ुद की हार क़ुबूल नहीं है. एक लोकतंत्र में यही दिक़्क़त है कि जब भी कुल पड़े वोटों का सर्वाधिक हिस्सा जिस किसी पार्टी को मिलेगा, राज वही करेगी.
महंगाई-बेरोजगारी पर कितनी बार विपक्ष ने आवाज बुलंद की
बीजेपी को हराने के लिए तालिबान की तारीफ़ और देश के बहुसंख्यक समाज को किसी पार्टी का भक्त बता देने से आप अपने मन में तुष्ट तो हो सकते हैं लेकिन इससे वोट नहीं पा सकते. अल्पसंख्यकों को ये समझना पड़ेगा कि भारतीय समाज अब कोई सामंती समाज नहीं है जिसे कुछ भाड़े के योद्धा डरा कर अपनी तरफ़ कर लेंगे. लोकतंत्र में विरोधी दलों के नेताओं को जनता से जुड़े मुद्दे उठाने चाहिए. महंगाई, बेरोज़गारी, अव्यवस्था आदि के मुद्दे भुला दिए गए हैं. अफगानिस्तान की अफ़रा-तफ़री के बीच सरकार ने घरेलू कुकिंग गैस के दाम 25 रुपए प्रति सिलेंडर बढ़ा दिए हैं, लेकिन किसी भी विपक्षी नेता ने इसे लेकर कोई बयान नहीं जारी किया. राहुल गांधी को अपने ट्विटर अकाउंट लॉक किए जाने का दुःख तो हुआ और इसके लिए पूरी पार्टी उनके साथ खड़ी हो गई, लेकिन जनता से जुड़े मुद्दों पर कितना हंगामा किया? कितनी बार सड़क पर उतरे?
यही हाल उत्तर प्रदेश में मुख्य विपक्षी दल समाजवादी पार्टी का है. उसके नेता अखिलेश यादव ट्विटर से अपना विरोध व्यक्त करते हैं लेकिन कितनी बार उन्होंने सड़क पर उतर कर अपने कार्यकर्ताओं को ज़मीनी मुद्दे उठाने का आह्वान किया? ऐसी स्थिति में कैसे समझा जाए कि बीजेपी को हराने के लिए विरोधी दल जी-ज़ान से जुटे हैं. सिर्फ़ संयोगों से हार-जीत नहीं होती बल्कि उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है. जनता की ज़रूरतों को समझना पड़ता है. जब तक यह नहीं समझेंगे, वे जीत के लिए नहीं लड़ रहे होंगे.
अशरफ़ गनी और हामिद करजई की सरकारों ने विकास कार्यों और सामाजिक उदारता को बढ़ावा दिया
अफगानिस्तान में तालिबान की जीत का अर्थ शफ़ीक़ुर्रहमान बर्क जैसे लोगों को इस्लाम की जीत जैसी लग सकती है. कुछ भी हो पिछले 20 वर्षों से अफगानिस्तान में एक उदारवादी सरकार थी. आप अशरफ़ गनी और उसके पहले की हामिद करजई की सरकारों को भ्रष्ट सरकार कह सकते हैं किंतु उन्होंने वहां विकास कार्यों और सामाजिक उदारता को बढ़ावा भी दिया. महिलाओं को घर की क़ैद से छुट्टी मिली. अफगानिस्तान में कुल 34 प्रांत हैं और हर प्रांत के लोगों के अपने-अपने विश्वास और अलग-अलग संस्कृति है. यह ठीक है कि इस्लाम पर वहां की सर्वाधिक आबादी की आस्था है. मगर लोग उस तरह से इस्लाम के पाबंद नहीं हैं जैसे कि अरब देशों में हैं. तालिबान इस्लाम की छत्रछाया में न्याय व शिक्षा का इस्लामिक ढांचा और सामाजिक रहन-सहन को लादना चाहता है.
एक क़बीलाई समाज को एक करने का ग़ुरुमंत्र तो यह हो सकता है लेकिन पूरा समाज आधुनिक दुनिया से कट जाए, यह सम्भव नहीं. इसलिए तालिबान से लोग भयभीत हैं. उन्हें लगता है कि तालिबानी बर्बर हैं. वे औरतों की आज़ादी ख़त्म कर देंगे. अफगानिस्तान में जो समरसता है उसे नष्ट कर देंगे. उनका यह भय कोई अकारण भी नहीं है. कट्टरपंथी और अति धार्मिक लोगों का विश्वास अगर एक ऐसे धर्म में है, जिसमें विविधता नहीं है तो वह ऐसा ही होगा.
अफगानिस्तान में हो रही उठा-पटक का लाभ बीजेपी को मिलेगा?
यही बात भारत के अधिकांश मुस्लिम लोगों को तुष्ट करती है. व्यक्ति के रूप में वे खूब उदार हैं पर जैसे ही धर्म का मसला आता है वे अनुदार हो जाते हैं. उनकी इस अनुदारता का लाभ हिंदुओं की कट्टर जमात उठाती है. सच यह है कि हिंदू समाज में वैविध्य है और उनके धर्म में भी. हिंदुओं के एक धार्मिक समुदाय के ईष्ट का मज़ाक़ दूसरे समुदाय का देवता उड़ाता है फिर भी समग्र रूप से हिंदू दूसरे पंथ के हिंदू से बैर-भाव नहीं पालता. परस्पर शादी-विवाह भी होते हैं. किंतु एकेश्वरवादी दर्शन में यह दुर्लभ है. नतीजा यह होता है कि मुस्लिम तुष्टिकरण के आग्रही नेता वोट की दौड़ में पिछड़ जाते हैं क्योंकि वे अनजाने में हिंदुओं को कट्टर बना रहे होते हैं. इसलिए बीजेपी के शत्रुगण ही उसे सत्ता तक पहुंचाते हैं. अफ़ग़ान संकट की इस घड़ी में ऐसे नेता बीजेपी को खूब लाभ पहुंचा रहे हैं. अतः जो लोग आशंकित हैं, कि अफगानिस्तान में हो रही उठा-पटक का लाभ क्या बीजेपी को मिल रहा है? तो उनके लिए जवाब होगा- हां!
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