सम्पादकीय

हासिल करने की चाह में मनमानी उचित नहीं

Gulabi
2 Dec 2021 3:18 PM GMT
हासिल करने की चाह में मनमानी उचित नहीं
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समाज के माहौल को बिगाड़ कर देश को सदैव समस्याओं में ही उलझाए रखने से देश सदा विकासशील नहीं बना रहेगा
समाज के माहौल को बिगाड़ कर देश को सदैव समस्याओं में ही उलझाए रखने से देश सदा विकासशील नहीं बना रहेगा. जिस देश की धरती पर हर समय जिद पर अड़कर काम कराने की मनमानी दिखने लगे, वह देश समस्याओं में ही उलझा रहेगा. भारत वह देश है जहां गरीबी ने अपने पांव पसार रखे हैं, जनसंख्‍या वृद्धि रोके नहीं रुक रही है. कुपोषण, नारियों पर अत्याचार, यौन शोषण, अपहरण, बात-बात पर एक दूसरे को मार देना, वहशीपन की हदों को पार कर अपराधों को जन्म देना आम बात हो गई है.
किन्तु आज के दौर में कुछ समस्याएं अनायास ही पैदा कर ली जाती हैं. राजनीति के दांव पेचों से समाज के ढांचे को विकृत किया जा रहा है. दुराग्रह नहीं है कि तनिक सी बातों पर आक्रोश प्रकट करने के लिए झुंड के झुंड सड़कों पर निकल आते हैं. कभी आरक्षण मुद्दा, कभी जाति विशेष की सोच, कभी नागरिकता संशोधन बिल पर रास्ता रोकना और अब लंबे समय से किसान आंदोलन का मुद्दा अब विशाल रुप ले चुका है. सरकार के बनाए गए इस कानून से नाखुश किसानों का प्रदर्शन आखिर अंजाम की स्थिति में पहुंच ही गया.
ये किसानों के स्वाभिमान की लड़ाई थी और सरकार की उनके हितों को दृष्टि में रखकर की गई पहल, जिसे ना सरकार किसानों को समझा पाई और ना किसान पीछे हटने को तैयार हुए. कहीं तो किसानों के मर्म पर चोट लगी थी, तभी तो सर्दी, गरमी, वर्षा सहकर भी दूसरों के लिए अन्न पैदा करने वाला अन्नदाता अपनी जिद पर अड़ गया. खेतों की हरियाली के प्रतीक ये किसान समाज के शुभचिंतक होने चाहिए. विभिन्न राजनीतिक गठजोड़ो के हाथ सेकने का भी मसला भी खत्म हो गया, सभी की प्रतिक्रियाएं तब भी आती थी और आज भी हैं.
लगता है कि विपक्ष का तो काम ही आलोचना करने का है. कुछ लोगों ने नेतागिरी का चोला ओढ़कर देश का समय भी बर्बाद किया है और कुछ ने राजनीति के प्रभाव में आकर जोश में कभी सड़को पर जाम लगाया. कभी किले की दिवारों पर चढ़ गए, कभी टोल पर जाम की स्थिति, कहीं दल-बल सहित डेरा डालना और कहीं महापंचायतों का आयोजन. लगता था मध्यस्थता का रास्ता चुनना ही नहीं है, जब देश के शीर्षस्थ पदों पर बैठे व्यक्ति हर समस्या का हल खोज रहें हैं. विश्व कोरोना जैसी महामारी से पीड़ित है, उस पर किसी भी प्रोटोकाल का ध्यान रखे बिना लोग नियमों की धज्जियां उड़ा रहे हैं.
शासन की ढील से किसान आंदोलन को जो दिशा मिली, उसका फायदा उठाकर लोग मनमानी कर हावी हुए और अपनी बात मनवाने के लिए जिद पर अड़े रहे, देश के लोगों को अनेक परेशानियों में डाला. किसानों ने अपनी मांगो के लिए एक वर्ष से ज्यादा समय तक संघर्ष किया, हर हथकंडे अपनाए, जाम लगाया, टोल पर अवरोध किया. आम जनता कितनी व्यथित हुई, इसका अनुमान किसी को नहीं, जाम लगने से बच्चों, बूढ़ों व महिलाओं को कितनी पीड़ा सहनी पड़ी. इसका अहसास आंदोलन करने वाले और सत्ता पर बैठे व्यक्ति नहीं समझ सकते हैं.
रोग का निदान उसके नासूर बनने से पहले ही कर देना चाहिए. ये किसान आंदोलन भी नासूर ही बनता जा रहा था. वक्त की नाजुक स्थिति में दोनो पक्षों को बातचीत कर जनता के हित में फैसला लेना चाहिए था. असंख्य परेशानियों के बाद जनता से असुविधा के लिए माफी मांग ली गई. ये सब देश हित में नहीं है. मुद्दों की बात पर सुलझाने की पहल होनी चाहिए. आपस में सहमति ना होना जनता व सरकार दोनो के ही हित में उचित नहीं रहा. अड़ियलपन के जिस रवैये पर सरकार और प्रदर्शनकारी अड़े रहे, उससे देश के विकास का मार्ग ही अवरु़द्ध हुआ.
देशहित में फैसले जल्दी होने चाहिए. यदि सभी कार्यक्षे़त्रों में रुकावटों से काम होगा तो क्या अंजाम होगा. कार्य को टालते रहने से, जाम लगाने से भारतवासी की वही आलस्य वाली छवि उभर कर आती है, जिसका वर्णन भारतेन्दू जी ने किया है कि भारतवासी आगे बढ़ना ही नहीं चाहते, आगे बढ़ने के लिए उन्हें जगाने की जरुरत हैै. कब तक बलिदानों पर सौदे होते रहेंगें. स्वच्छ व स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए युवा वर्ग से ये अपेक्षा की जाती है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे आकर समाज को प्रगतिशील बनाएं. लेकिन, यहां आंदोलन के नाम पर प्रौढ़ वर्ग के साथ युवा वर्ग अपने समय को आक्रोश में व्यतीत करते ही दिखाई दिए.
आंदोलनों के जाम में अपनी उग्रता दिखाने वाले ये युवा अपने साथ देश के सपने भी धूमिल करते हैं. समाज को इनसे बहुत अपेक्षाएं हैं, इन्हें अपना कीमती समय इस प्रकार नहींं खोना चाहिए. समाज के सभी वर्ग यदि अपनी मांगे मनवाने के लिए सरकार को विवश कर दें तो सुनियोजित नीतिगत शासन की अपेक्षा कैसे की जा सकती है. लंबे समय तक चलने वाले आंदोलन के जरिए विपक्ष की गोटियां भी कम नहीं चमकी. किसान पाले में सहानुभूति दर्शाते ये लोग बहती गंगा में हाथ धोने से भी पीछे नहीं रहे और समाधान के बाद भी सरकार को व्यंग्य बाण से बेध रहे हैं.
किसी भी कार्य से सबको खुश नहीं किया जा सकता. ये स्वयं सत्ता कर चुके लोग भी जान और मान चुके होंगे. उंगली पकड़कर पकड़ कर ये नीति अपनाते हुए किसान अब सरकार के फैसले के बाद भी अभिमान व अहंकार की लड़ाई पर उतर आए हैं. कानून वापसी के बाद और कैबिनेट की मंजूरी के बाद भी किसान अपनी दूसरी मांगों पर अड़ रहे हैं. ये जिद का रवैया कहींं सरकार के गले की हड्डी ना बन जाए, बिल वापसी लेना सरकार की हार और किसानों की जीत मानी जा रही हैं. कोई कह रहा है अभिमानी का सर झुक गया, कोई कह रहा है वोटो की खातिर टूट गए, पर निर्णय की देरी सभी को सोचने को मजबूर कर रही है.
बात कुछ भी हो सरकार की पहल को नजर अंदाज नही किया जा सकता. जिस स्वच्छ व पारदर्शी सोच से प्रधानमंत्री ने प्रकाश पर्व पर कृषि-कानून खत्म करने का एलान किया. वह यही दर्शाता है क्षमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात. अब जब व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाने के लिए सरकार किसानों के साथ खड़ी है. किसानों को भी कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए. भीड़ तन्त्र व प्रदर्शनकारियों की वाह-वाही से खुश ना होकर देश के साथ खडे़ हों, सियासत की बिछी शतरंज की गोटियां ना बनकर देश की खुशहाली की बात करें.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
रेखा गर्गलेखक
समसामयिक विषयों पर लेखन. शिक्षा, साहित्य और सामाजिक मामलों में खास दिलचस्पी. कविता-कहानियां भी लिखती हैं.
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