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आदित्य नारायण चोपड़ा: राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू ने 12 नये राज्यपालों व एक उपराज्यपाल की नियुक्ति की घोषणा की है। इनमें से छह नये चेहरे हैं और बाकी इस पद पर कार्यरत हैं जिनका एक राज्य से दूसरे राज्य में तबादला किया गया है। इनमें चार राजनीतिज्ञ हैं व दो पूर्व सैनिक अधिकारी हैं तथा एक सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश हैं। भारत के संघीय ढांचे में राज्यपालों की भूमिका संवैधानिक है और अपने प्रदेश में संविधान के तहत राज चलते देखना उनकी प्रमुख जिम्मेदारी है। मगर इसके साथ ही उनकी सबसे बड़ी जिम्मेदारी चुनावों के बाद किसी भी राज्य में लोकप्रिय, स्थायी व बहुमत की सरकार के गठन की भी है। इस क्षेत्र में उन्हें पूरी तरह तटस्थ भाव से संविधान की अनुपालना पर खरा उतरने वाला फैसला तब लेना होता है जब किसी भी राज्य में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं होता है और विधानसभा के भीतर विभिन्न राजनैतिक दल नये गठजोड़ बनाकर अपने बहुमत का दावा ठोकते हैं। इस मामले में नई सरकार के स्थायित्व से लेकर उन्हें बहुमत के प्रति आश्वस्त होना पड़ता है और ठोक- बजा कर पूर्ण बहुमत की सरकार को सत्ता सौंपनी होती है।राज्यपाल के पद के सृजन को लेकर भारत की संविधान सभा में भी इसे लिखते समय बहुत लम्बी चर्चा हुई थी और निष्कर्ष यह निकला था कि स्वतंत्र भारत की संसदीय प्रणाली के तहत इस पद की आवश्यकता इसलिए पड़ेगी जिससे प्रत्येक राज्य में संविधान का शासन लागू रह सके। यह इसलिए आवश्यक था क्योंकि भारत में बहुराजनैतिक प्रणाली होने की वजह से विभिन्न राजनैतिक दल क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संविधान की सीमा के भीतर ही सम्बोधित करें जिससे भारत सर्वदा 'राज्यों का संघ' बना रहे। इन राज्यों के संघ के सर्वोच्च संवैधानिक मुखिया राष्ट्रपति महोदय थे। अतः प्रत्येक राज्य में उनके प्रतिनिधि के तौर पर राज्यपाल की नियुक्ति को प्रासंगिक व तर्क संगत पाया गया जिससे संविधान के संरक्षक राष्ट्रपति पूरी तरह सन्तुष्ट रह सकें। इसी वजह से भारत के संविधान में यह व्यवस्था की गई कि कोई भी राज्यपाल केवल राष्ट्रपति की प्रसन्नता से ही अपने पद पर बहाल किया जायेगा और वह तब तक ही अपने पद पर रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति उससे प्रसन्न रहते हैं। अतः राज्यपाल का पद राष्ट्रपति की तरह कोई चुना हुआ पद नहीं है और इसकी मूल जिम्मेदारी राष्ट्रपति को ही अपने प्रदेश के बारे में जानकारी देने की है। परन्तु आजाद भारत में ऐसे कई मौके आये हैं जबकि राज्यपाल अपने कार्यकलापों से विवाद के घेरे में आ जाते हैं।चुनी हुई बहुमत की सरकार की सलाह पर काम करना उनका कर्त्तव्य होता है बशर्तें कि यह सलाह हर दृष्टि से पूर्णतः संवैधानिक हो और राज्यपाल व सरकार के बीच के अन्तर्सम्बन्धों की कानून सम्मत व्याख्या के अनुसार हो। इसके समानान्तर यह सवाल भी लगातार उठाया जाता रहा है कि राज्यपाल के पद पर राजनीतिज्ञों की नियुक्ति से बचा जाये। यह सवाल कांग्रेस के सत्ता में रहते विपक्षी पार्टियां बहुत जोर-शोर से उठाया करती थीं। मगर जब खुद इन विपक्षी दलों को सत्ता का स्वाद चखने का अवसर मिला तो इन्हें एहसास हुआ कि राजनीतिज्ञ ही इस पद के सर्वदा अनुकूल हो सकते हैं क्योंकि उन्हें संविधान के विभिन्न पहलुओं की अच्छी जानकारी होती है। मगर तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि कभी-कभी राजनीतिज्ञ राज्यपाल राजभवनों को ही राजनीति का अखाड़ा बना देते हैं परन्तु अधिसंख्य मामलों में राजनीतिज्ञ राज्यपाल अपने दायित्व का निष्ठा के साथ निर्वहन करते हुए देखे गये हैं। नये राज्यपालों में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश श्री एस अब्दुल नजीर को राज्यपाल नियुक्त करने को लेकर चर्चाओं का दौर भी चल रहा है। यह अनावश्यक विवाद कहा जायेगा क्योंकि पूर्व में तो सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश तक राज्यपाल बनाये गये हैं।संपादकीय :निवेशकों को भाया उत्तर प्रदेशबाल विवाह : असम में बवालहम भारत के वासीइंसान हों या जानवर- आशियाना सबको चाहिएसंसदीय प्रणाली मजबूत रहेब्रिटेन को इस्लामी कट्टरपंथ से खतराइस बारे में बेशक यह सवाल खड़ा किया जाता रहा है कि संवैधानिक स्वतन्त्र संस्थाओं जैसे चुनाव आयोग, लेखा महानियन्त्रक, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश या उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीश को रिटायर होने के बाद किसी सरकारी पद पर न रखा जाये क्योंकि इससे संस्थागत संवैधानिक संप्रभुता पर प्रभाव पड़ा सकता है परन्तु इस बारे में संसद में ही कोई कानून बनाकर बात बन सकती है। फिलहाल तो इतना ही कहा जा सकता है कि जो भी व्यक्ति राज्यपाल बने वह अपने दायित्व व कर्त्तव्य का शुद्ध अन्तःकरण से पालन करें और हर परिस्थिति में संविधान का सिर ऊंचा रखे। परन्तु यह भी सच है कि हाल के दिनों में राज्यपाल व मुख्यमन्त्रियों के बीच उलझाव के किस्से कुछ ज्यादा ही प्रकाश में आ रहे हैं। इनमें से तमिलनाडु के राज्यपाल एन. रवि व मुख्यमन्त्री एम.के. स्टालिन के बीच की कशमकश बहुत प्रचारित हुई। भारत के संसदीय लोकतन्त्र के लिए इसे स्वस्थ परंपरा नहीं कहा जा सकता परन्तु यह भी निश्चित है कि राज्यपाल किसी भी राज्य के राजनैतिक समीकरणों का हिस्सा नहीं हो सकते। यह काम राजनैतिक दलों का ही होता है। उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता चाहे वह पूर्व में खुद ही राजनीतिज्ञ क्यों न रहे हों। इसका उदाहरण हाल ही में महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी बने जिन्होंने एकाधिक बार महाराष्ट्र की संरचना और इसके नायकों को लेकर राजनीति से प्रेरित टिप्पणियां की। राष्ट्रपति महोदय ने उन्हें पद से विमुक्त करने का फैसला भी किया है। अतः राज्यपालों को कभी अपना दायित्व निभाते हुए कर्म और धर्म (कर्त्तव्य) के उलझाव में फंसने से बचना चाहिए और ध्यान रखना चाहिए।
क्रेडिट : punjabkesari.com