सम्पादकीय

जजों की नियुक्ति: कॉलेजियम और एनजेएसी के संवैधानिक पहलू

Gulabi
11 Dec 2021 2:37 PM GMT
जजों की नियुक्ति: कॉलेजियम और एनजेएसी के संवैधानिक पहलू
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हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के वेतन और सेवा शर्तों में संशोधन के लिए विधेयक को मंजूरी देते समय संसद में जजों की नियुक्ति व्यवस्था पर तीखी बहस
हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों के वेतन और सेवा शर्तों में संशोधन के लिए विधेयक को मंजूरी देते समय संसद में जजों की नियुक्ति व्यवस्था पर तीखी बहस हुई. कानून मंत्री किरण रिजजू ने कहा कि अदालतों के कामकाज या जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार का कोई राजनीतिक हस्तक्षेप नहीं होता. लेकिन पक्ष और विपक्ष के सांसदों ने सम्मिलित तौर पर कॉलेजियम व्यवस्था की आलोचना की. सांसदों के अनुसार जजों की वर्तमान नियुक्ति की कॉलेजियम व्यवस्था पारदर्शी और जवाबदेह नहीं है.
क़ानून मंत्री ने कहा की कॉलेजियम में बदलाव के लिए कई पूर्व जजों और बार एसोसिएशन ने भी सुझाव दिए हैं. संसद के बाहर भी न्यायपालिका को उपनिवेशवाद से मुक्त कराने के लिए सुधारों के कई मुद्दों पर बहस हो रही है. पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की किताब 'जस्टिस फॉर द जजेज' के विमोचन के मौके पर जजों की नियुक्तियों और ट्रांसफर में विवादों पर सरगर्मी से बहस हुई. कॉलेजियम और एनजेएसी विवाद को समझने के लिए जजों की नियुक्ति से जुड़े अनेक संवैधानिक पहलुओं को समझने की जरूरत है.
सन 1861 से 1950 के दौर में जजों की नियुक्ति- सन 1857 में आजादी के युद्ध के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी से हिंदुस्तान का शासन ब्रिटिश संसद के अधीन आ गया और भारत में आधुनिक कानूनी व्यवस्था की शुरुआत हुई. 1861 में इंडियन हाईकोर्ट एक्ट पारित होने के बाद सन 1862 में कोलकाता, बॉम्बे और मद्रास में हाईकोर्ट की स्थापना हुई. उस समय जजों की नियुक्ति ब्रिटिश सम्राट द्वारा की जाती थी और उनका कार्यकाल राजा या महारानी की मनमर्जी पर निर्भर होता था.
उसके पश्चात 1935 में गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट से जजों के कार्यकाल को सुनिश्चित करने के साथ उनके रिटायरमेंट की उम्र 65 वर्ष निर्धारित की गई. आज़ादी के बाद संविधान के अनुच्छेद 124 के तहत सुप्रीम कोर्ट और अनुच्छेद 217 के तहत हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति के लिए प्रावधान बने. सुप्रीम कोर्ट में सन 1950 में कुल 8 जज थे. संसद से क़ानून में बदलाव करके सन् 1956 में 11, सन 1960 में 14, सन 1978 में 18, सन 1986 में 26, सन 2009 में 31 और 2019 में 34 जजों का प्रावधान किया गया.
कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट में 9 जजों की रिकॉर्ड नियुक्ति हुई. उसके बाद एक जज के रिटायरमेंट की वजह से सुप्रीम कोर्ट में फिलहाल सिर्फ 1 जज की वैकेंसी है. लेकिन राज्यों के हाईकोर्ट में 30 फीसदी से ज्यादा की वैकेंसी है.
तीन अदालती फैसलों से कॉलेजियम सिस्टम का विकास- संविधान के अनुसार जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति के पास है, जो मंत्रिमंडल की अनुशंसा पर फैसलों पर मोहर लगाते हैं. कई दशकों तक सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस से सलाह के बाद जजों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती रही. आपातकाल के पहले तो इंदिरा गांधी सरकार ने जजों की सीनियरिटी को दरकिनार करके मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कर डाली. उसके बाद न्यायिक आदेशों से जजों ने नियुक्ति व्यवस्था में अपने वर्चस्व को बढाने की शुरुआत की.
सन 1981 में सुप्रीम कोर्ट से 'फर्स्ट जज केस' का फैसला हुआ. इसके अनुसार राष्ट्रपति को सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ सार्थक परामर्श करना जरूरी बना दिया गया. उसके बाद सन् 1993 में 'सेकंड जज केस' के अनुसार सलाह मशवरा का मतलब सहमति माना गया. इसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सलाह को संस्थागत रूप देने के लिए, उनके साथ दो वरिष्ठ जजों को जोड़ दिया गया. उसके बाद सन 1998 में ' थर्ड जज केस' के अनुसार पांच जजों के कॉलेजियम सिस्टम का आगमन हुआ.
कॉलेजियम का संविधान में कोई उल्लेख नहीं है. न्यायशास्त्रियों के अनुसार यह एक अजब स्थिति है, जिसमें जजों ने न्यायिक आदेश से से जजों की नियुक्ति के लिए पूरे अधिकार हासिल कर लिए, जिनके लिए संविधान में कोई व्यवस्था नहीं है.
कॉलेजियम में जजों की नियुक्ति प्रणाली
सुप्रीम कोर्ट के नए चीफ जस्टिस की नियुक्ति का प्रस्ताव, रिटायर होने वाले चीफ जस्टिस द्वारा भेजा जाता है. इसके अनुसार वरिष्ठता क्रम में सबसे बड़े जज को अगले चीफ जस्टिस की नियुक्ति के लिए क़ानून मंत्रालय को अनुशंसा भेजी जाती है. जिसे प्रधानमंत्री के माध्यम से राष्ट्रपति को भेजा जाता है. अन्य जजों की नियुक्ति के लिए 5 जजों के कॉलेजियम द्वारा अनुशंसा के बाद राष्ट्रपति द्वारा नियुक्ति पर मोहर लगाई जाती है.
हाईकोर्ट जजों की नियुक्ति के लिए हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ दो वरिष्ठ जजों का कॉलेजियम होता है. उनकी सिफारिश मुख्यमंत्री और गवर्नर के माध्यम से केंद्रीय कानून मंत्री तक भेजी जाती है. उसके बाद सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम के अनुमोदन के पश्चात राष्ट्रपति से नियुक्ति पर ठप्पा लगता है. इसी तरीके से जजों के ट्रान्सफर के लिए कॉलेजियम द्वारा अनुशंसा भेजी जाती है. ये सारे ट्रांसफर लोकहित में और न्यायिक प्रशासन को बेहतर बनाने के नाम पर होते हैं.
संसद में कानून मंत्री के बयान के अनुसार सन 2017 से कॉलेजियम की अनुशंसा पर सरकार ने 32 जजों को सुप्रीम कोर्ट में नियुक्त किया है. इसी तरह से पिछले चार सालों में कॉलेजियम ने हाई कोर्ट जजों के लिए 532 नामों सिफारिश की थी, जिनमे से 490 लोगों की नियुक्ति के आदेश सरकार ने जारी कर दिए.
सन 2014 में संसद से एनजेएसी का नया क़ानून
कॉलेजियम में पारदर्शिता की कमी के साथ भाई भतीजावाद के आरोप लग रहे थे इसलिए एनडीए सरकार ने पहले कार्यकाल में 99वें संविधान संशोधन के माध्यम से सन 2014 में नेशनल ज्यूडिशल अपॉइंटमेंट कमिशन कानून (NJAC) बनाया. इसके अनुसार जजों की नियुक्ति के लिए 6 सदस्यीय आयोग बनाने का निर्णय लिया गया. उसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ दो वरिष्ठतम जज, कानून मंत्री और 2 गणमान्य लोगों को शामिल होना था.
उन दो गणमान्य लोगों का कार्यकाल 3 साल का होना था और उनकी नियुक्ति के बारे में चीफ जस्टिस, प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता को फैसला करना था. यह कानून अप्रैल 2015 से लागू हुआ, लेकिन पांच जजों की संविधान पीठ ने 4:1 के बहुमत से उस कानून को निरस्त कर दिया. NJAC क़ानून के लिए संसद के साथ 16 राज्यों की विधान सभाओं ने भी अनुमोदन दिया था.. लेकिन सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के फैसले के अनुसार न्यायिक प्रशासन, संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है, जिसे संसद के कानून से भी नहीं बदला जा सकता.
उस फैसले के अनुसार जजों की नियुक्ति व्यवस्था को दुरुस्त करने के लिए मेमोरेंडम आफ प्रोसीजर (एमओपी) में बदलाव होने थे. लेकिन 6 साल बाद भी MoP पर सरकार और सुप्रीम कोर्ट में पूरी सहमति नहीं बन पायी है.
देश में चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित हैं, स्मार्टफोन के विस्तार और लॉकडाउन के दौरान ऑनलाइन सुनवाई से लोगों की जल्द न्याय के लिए अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. राष्ट्रपति कोविंद और मुख्य न्यायाधीश रमना ने कहा है कि आम लोग अदालतों में जाने से डरते हैं. जल्द न्याय और जनहितकारी अदालती सिस्टम के लिए जजों के अभिजात्य सिस्टम में बदलाव करना ही होगा. कॉलेजियम सिस्टम को बदलकर एनजेएसी की तर्ज पर संसद को फिर से नया कानून बनाना चाहिए. इससे संविधान के संरक्षक के साथ जनता के हितों का संवर्धन के लिए, न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारियों का ज्यादा मुस्तैदी से पालन कर सकेगी.


(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)

विराग गुप्ता एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट
लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील और संविधान तथा साइबर कानून के जानकार हैं. राष्ट्रीय समाचार पत्र और पत्रिकाओं में नियमित लेखन के साथ टीवी डिबेट्स का भी नियमित हिस्सा रहते हैं. कानून, साहित्य, इतिहास और बच्चों से संबंधित इनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं. पिछले 4 वर्ष से लगातार विधि लेखन हेतु सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा संविधान दिवस पर सम्मानित हो चुके हैं. ट्विटर- @viraggupta.
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