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- सेब बिक्री का तराजू
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By: divyahimachal
किसी भी फल और उपज का वजन बागबान और किसान की ख्वाहिशों से हल्का रह जाए, तो आर्थिकी का यह हिसाब निराश करता है। एक सेब उगाने तक हजारों पापड़ बेलने पड़ते हैं, क्योंकि मौसम से लेकर बिक्री केंद्र तक बागबानी का अर्थगणित लगातार दौड़ रहा होता है। बहरहाल, हर बार सरकार की पैरवी में कहीं भिन्न इस बार विपणन की नई गुंजाइश में यह सोचा गया कि बिक्री का तोल ठीक किया जाए ताकि जब मंडी से पावती रसीद बने तो हर सेब अपने वजन की कीमत वसूल ले। सरकार के बागबानी मंत्री के सामने पराला मंडी में बागबानों की चिंता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन बिक्री प्रक्रिया में ऐसा क्या झोल हो गया कि प्रति किलो के हिसाब से बिकने का वादा ही भ्रमित हो गया। दरअसल 24 किलो की पेटी का आढ़तियों की दृष्टि में होते मूल्यांकन ने दो किलो की कटौती कर दी और इस तरह वजन तो घटा, खर्चा बढ़ गया। बेशक यह फैसला आढ़तियों और सेब उत्पादकों के बीच एक नए सेतु के निर्माण करने की गर्ज से आपसी सहमति का परचम फहरा रहा था, लेकिन इसकी पहली मंजिल पर अविश्वास का ढेर क्यों लगा। किलो के दाम पर बिकते थोक भाव के सेब के साथ ऐसा क्या हो गया कि पराला मंडी में शोर सुना गया। दरअसल सेब जितना हिमाचली बाजार में दखल रखता है, उतना ही राजनीति को भी माप लेता है। इसलिए पराला के आक्रोश में सियासत नहीं हुई होगी, यह एक असंभव सी बात है, फिर भी इस विवाद की जड़ में बागबानी का कुछ तो हिसाब गड्डमड्ड हुआ होगा।
एक कुशल बिक्री नीति के अर्थों में अगर उत्पादक के लाभ किन्हीं कारणो ंसे असुरक्षित समझे जा रहे हैं, तो कहीं प्रक्रिया के कार्यान्वयन में खामी है। इस मामले में 24 किलोग्राम की पेटी के पेट से दो किलो की कटौती से जो सेब घट रहा है, उसके पीछे की कहानी को समझना होगा। यह बागबान का धन है जिसे फलमंडी अगर पूरी तरह तोल नहीं पा रही है, तो ग्रामीण आर्थिकी के रोड़े कैसे दूर होंगे। भले ही सरकार ने एक पहल करते हुए परिपाटी बदली, लेकिन कार्यान्वयन की दिक्कतों में तराजू गुनहगार निकल आया। यहां घर के तोल, कार्टन के बोझ से कहीं भिन्न आढ़ती का बोल यह बता रहा है कि उसे चौबीस किलो से दो किलो छीनने का हक इसलिए मिल गया क्योंकि किसी बागबान ने शिद्दत से सेब उगाया, उसे मौसम और प्रतिकूल परिस्थितियों से बचा कर तथा निरंतर बढ़ती लागत में ढोकर मंडी तक पहुंचाया है। वह अब मंडी के व्यापारिक रहमो कर्म पर है, इसलिए सरकार से दखल की मांग कर रहा है। किसी एक बागबान को भी यदि मंडी व्यवस्था से मुकाबला करना पड़े तो यह बागबानी के लिए शुभ नहीं हो सकता।
यहां फलोत्पादकों के बीच भी दो अलग-अलग संप्रदाय नजर आते हैं। निचले क्षेत्रों की बागबानी से कहीं भिन्न ऊपरी क्षेत्रों की जागरूकता फिर भी असर रखती है, वरना इस बार आम, किन्नू व गलगल उत्पादकों के टूटे बदन की तो किसी ने भी खबर नहीं ली। हिमाचल को न तो हम पूरी क्षमता के साथ सेब राज्य बना पाए, जबकि फलोत्पादक राज्य के रूप में गतिविधियां कहीं सरकारी फाइलों की परिक्रमा में ही गुम हो जाती हंै। ग्रामीण आर्थिकी की समग्रता में नित नई फसलें और उपजों की नस्लें अभी गुणात्मक प्रभाव नहीं छोड़ पा रही हैं। अगर सेब उत्पादन को पराला मंडी के परिसर में निराश होना पड़ रहा है, तो खेत और बागीचों को विश्वविद्यालयों के शोध और विभागीय बोध के आगे निराश होना पड़ रहा है। बेशक सुक्खू सरकार ने व्यवस्था परिवर्तन की भावना में सेब बिक्री को एक उदार फार्मूला दिया, लेकिन पूरे तंत्र की बाहों में जो उदासीनता भरी है, उसने ठीक से यह सुनिश्चित ही नहीं किया कि कैसे बागीचे से चला एक सेब भी पूरी तरह और पूरी कीमत से मंडी की ईमानदारी में बिक कर बागबान का भाग्य विधाता बन सकता है।
Rani Sahu
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