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बांध-विरोध के लंबे इतिहास में संभवत: दुनिया का पहला बांध-विरोधी आंदोलन, पुणे शहर के पास मुला-मुठा नदी के संगम पर स्थित मुलशी बांध के खिलाफ था
नंदिनी ओझा
सोर्स- अमर उजाला
बांध-विरोध के लंबे इतिहास में संभवत: दुनिया का पहला बांध-विरोधी आंदोलन, पुणे शहर के पास मुला-मुठा नदी के संगम पर स्थित मुलशी बांध के खिलाफ था। वर्ष 1920 के दशक की शुरुआत के इस 'मुलशी सत्याग्रह' का नेतृत्व स्वतंत्रता सेनानी पांडुरंग महादेव (सेनापति) बापट और पत्रकार विनायकराव भुस्कुटे ने किया था। बांध से प्रभावित 52 गांवों में फैले इस आंदोलन की जानकारी महात्मा गांधी के सहयोगी महादेवभाई देसाई की डायरी में भी मिलती है। वर्ष 1923 में पुणे के यरवडा जेल में महादेवभाई देसाई और महात्मा गांधी के साथ आंदोलन में शामिल विस्थापितों को भी रखा गया था।
मुलशी बांध पीड़ितों के संघर्ष को आज सौ साल से ज्यादा हो गए हैं। 'मुलशी सत्याग्रह' की कहानी बताने वाली, इसी नाम की पुस्तक आंदोलन के प्रवर्तक विनायक भुस्कुटे ने लगभग 80 वर्ष पहले लिखी थी। आमतौर पर आज की पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी के लंबे संघर्षों की जानकारी नहीं होती। यह जानकारी प्राप्त करना और संघर्ष के विरोधियों की ताकत और उसे असफल बनाने में उनकी भूमिका को समझना जरूरी है। इतिहास, भविष्य का मार्गदर्शक है और इसीलिए यह पुस्तक आज भी चल रहे संघर्ष के लिए मार्गदर्शक साबित होती है।
मुलशी सत्याग्रह का पुनः प्रकाशन करके मुलशी बांध प्रभावित क्षेत्र के घर-घर पहुंचाने का सराहनीय काम 'सह्याद्री प्रतिष्ठान' के अध्यक्ष अनिल पवार और उनके साथियों का है। आज भी संघर्षरत लोगों को, विशेषतः युवाओं को, इस पुस्तक से प्रेरणा और मार्गदर्शन मिलेगा जो आंदोलन को ही मजबूत करेगा।
पुस्तक की प्रस्तावना लिखते समय भुस्कुटे जी ने दो-तीन जगह सत्याग्रह का उल्लेख 'हारी हुई लड़ाई' की तरह किया है। उनकी समझ के मुताबिक यह लड़ाई समाप्त हो चुकी थी। किसी भी आंदोलन की जीत या हार को उस आंदोलन के खत्म होने पर ही समझा जा सकता है। भले ही भुस्कुटे जी ने आंदोलन को 'हारी हुई लड़ाई' कहा हो, फिर भी यह बात पक्की है कि उन्होंने इसे पूर्ण-विराम समझकर नहीं, बल्कि अल्प-विराम समझकर देखा था।
यह पुस्तक स्वतंत्रता आंदोलन के कुछ बुनियादी पहलुओं पर भी प्रकाश डालती है। वर्ष 1921 में, जब गांधीवादी विचारों की शुरुआत ही हुई थी, लेकिन सत्य और अहिंसा का उपयोग बड़े पैमाने पर आंदोलन में नहीं हुआ था, तत्कालीन मुंबई प्रांत के अति-दुर्गम क्षेत्र के आंदोलनकारियों ने श्री भुस्कुटे के नेतृत्व में अहिंसक रास्ते से सत्याग्रह किया था। इसका विवरण पुस्तक में विस्तार से दिया गया है।
इस पुस्तक से हमें मालूम होता है कि 'मुलशी सत्याग्रह' के सफल संघर्ष के परिणामस्वरूप 'टाटा कंपनी' ने अपना काम पूरी तरह से रोक दिया था, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रीय और प्रांतीय सभा के नेतृत्व से आंदोलन को अपेक्षित साथ नहीं मिल सका था। शायद उनकी नजरों में यह आंदोलन बहुत महत्वपूर्ण नहीं था। इस दौर में राष्ट्रीय और प्रांतीय सभा को ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ संघर्ष करना ज्यादा जरूरी लगा था, बजाय 'टाटा कंपनी' समेत साहूकारों, जमींदारों और उच्चवर्णीय लोगों के विरोध के।
वर्ष 1988 से लगभग 12-13 साल हम दोनों 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' के कार्यकर्ता के रूप में काम करते रहे थे। नर्मदा नदी पर बन रहे विशाल 'सरदार सरोवर बांध' से प्रभावित लोगों का यह एक बड़ा आंदोलन था, जिसे देश भर से जर्बदस्त समर्थन प्राप्त था। इस संघर्ष से जुड़े लोगों, खासतौर से कार्यकर्ताओं के लिए 'मुलशी सत्याग्रह' एक बड़ा प्रेरणा-स्रोत था। बीसवीं सदी की शुरुआत में अंग्रेज सरकार और निजी कंपनी के खिलाफ प्रभावशाली तरीके से खड़े हुए इस 100 साल पुराने आंदोलन से नर्मदा क्षेत्र के लोगों को भरोसा मिल सकता था कि वे भी अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ सकते हैं।
इसके बावजूद 'मुलशी सत्याग्रह' की जानकारी नहीं मिल पाई। बाद में जब हम निजी कारणों से 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' की जिम्मेदारी छोड़कर, संयोग से मुलशी तहसील में, मुलशी बांध के पड़ाेसी गांव में बसे, तो धीरे-धीरे वहां के संघर्ष के संपर्क में भी आए। यहां के लोगों से और राजेंद्र व्होरा की पुस्तक से 'मुलशी सत्याग्रह' की विस्तृत जानकारी मिली, लेकिन भुस्कुटे जी की पुस्तक मिलने के बाद ही इस सत्याग्रह का सही अर्थ में परिचय हुआ।
तब समझ में आया कि नर्मदा घाटी की लड़ाई और मुलशी बांध पीड़ितों की लड़ाई में कितना साम्य है। आंदोलन की पद्धति, दांव-पेच, संगठन बनाने की प्रक्रिया और संगठन तोड़ने के विरोधियों के प्रयास, सरकार की प्रतिक्रिया, पुलिस-बल का इस्तेमाल इत्यादि बातों का जो अनुभव हम नर्मदा क्षेत्र में ले चुके थे, वे सभी बातें 'मुलशी सत्याग्रह' में साफ दिखाई दीं।
'मुलशी सत्याग्रह' हो या 'नर्मदा बचाओ आंदोलन' या दूसरा कोई भी आंदोलन, सभी आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक व्यवस्था के शिकार हैं और इसलिए इन आंदोलनों के सामने की चुनौतियां एक समान ही होंगी। ज्यादातर संघर्षों (खासकर विस्थापन विरोधी संघर्षों) में जब तक विस्थापितों के हित संकट में हैं, तब तक वे आंदोलन में सक्रिय रहते हैं। भुस्कुटे जी की यह पुस्तक पहले जितनी महत्वपूर्ण थी, आज भी उतनी ही प्रासंगिक है।

Rani Sahu
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