सम्पादकीय

महाथिर मुहम्मद को एक हिन्दू का उत्तर – 1

Gulabi
2 Nov 2020 3:47 PM GMT
महाथिर मुहम्मद को एक हिन्दू का उत्तर – 1
x
मलेशिया के पूर्व PM ने फ्रांस के प्रसंग में 29 अक्तूबर 2020 को ट्वीटर पर विस्तार से तेरह बिन्दुओं में अपने विचार प्रकट किए

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। मलेशिया के पूर्व प्रधान मंत्री महाथिर मुहम्मद ने फ्रांस के प्रसंग में 29 अक्तूबर 2020 को ट्वीटर पर विस्तार से तेरह बिन्दुओं में अपने विचार प्रकट किए हैं। चूकि वे विश्व के सब से उम्रदराज, वरिष्ठतम मुस्लिम राजनेता हैं, इसलिए उन की बातें ध्यान से विचारने, परखने योग्य हैं। अतः हम उन की बातों को हू-बू-हू उद्धृत करते हुए, उस का उत्तर दे रहे हैं। सुधी पाठक इस पर तुलनात्मक विचार कर सकते हैं। पहले, उद्धरण चिन्ह के साथ, महाथिर मुहम्मद महोदय का बिन्दुवार कथन है। फिर उस बिन्दु पर एक हिन्दू की प्रतिक्रिया है।

"फ्रांस में एक शिक्षक ने एक 18 वर्षीय चेचेन लड़के के द्वारा अपना गला कटवा लिया। उसे मारने वाला प्रोफेट मुहम्मद का कर्टून दिखाए जाने से गुस्से में था। वह शिक्षक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दिखाना चाहता था।" यहाँ महाथिर मूल बात पर पर्दा डालते हैं कि वह मुस्लिम अपनी शिकायत लेकर कोर्ट या पुलिस के पास नहीं गया। शिक्षक ने तो अपने देश के कानून की सीमा में अभिव्यक्ति स्वतंत्रता का पाठ पढ़ाया था, जबकि उस मुस्लिम ने कानून को अगूँठा दिखाते हुए कत्ल किया।

"मैं एक मुस्लिम के रूप में हत्या करने की अनुशंसा नहीं करूँगा। किन्तु अभिव्यक्ति स्वतंत्रता में विश्वास करते हुए भी, मुझे नहीं लगता कि इस में दूसरों का अपमान करना भी शामिल है।" महाथिर झूठ कह रहे हैं, क्योंकि उन्होंने यहीं आगे बारहवें बिन्दु पर मुसलमानों को लाखों फ्रांसीसियों को मार डालने का अधिकार जताया है। महाथिर सब के ऊपर शरीयत थोपना चाहते हैं, मानो गैर-मुसलमानों को अपने देशों में अपनी मान्यताओं से चलने का अधिकार नहीं है। जबकि सब से बड़ा सच यह है कि मुसलमान प्रति दिन बीस बार दूसरे धर्मों को 'कुफ्र', 'झूठा' कहकर नियमित अपमान करते हैं! कुरान (9:28) में लिखा है कि गैर-मुस्लिम 'गंदे' होते हैं। कुरान (7:166) में यहूदियों और क्रिश्चियनों को 'बंदर' और 'घृणित' भी कहा गया है। तब कौन किस का अपमान कर रहा है, महाथिर महोदय? मुसलमान इन बातों से बखूबी परिचित हैं। ऐसी सीखों से ही कुछ मुस्लिम गैर-मुस्लिमों को मारना अपना कर्तव्य समझ लेते हैं।

"मलेशिया में विभिन्न नस्लों और धर्मों के लोग रहते हैं, जिन के बीच गंभीर लड़ाइयाँ न हों इस के लिए हम दूसरों की संवेदना के प्रति संवेदनशील रहने की जरूरत से अवगत हैं। यदि ऐसा न रहे तो यह देश कभी शान्तिपूर्ण और स्थिर नहीं रहेगा।" यह कथन भी अर्द्ध-सत्य या द्वि-अर्थी है। सर्वविदित है कि मलेशिया में भारतीय और चीनी मूल के नागरिकों के विरुद्ध संवैधानिक रूप से भेद-भाव स्थापित किया हुआ है, जो अधिकांश बौद्ध और हिन्दू हैं। मलेशियाई संविधान की धारा 153 की आड़ में मुसलमानों को दूसरे धर्मवालों की तुलना में विशेषाधिकार मिला हुआ है। चूँकि वहाँ हिन्दू-बौद्ध अल्पसंख्या हैं, इसलिए उन के विरोध की सीमा स्वतः तय है। इसे महाथिर 'दूसरों के प्रति संवेदनशील होना' कहकर गैर-मुस्लिम मलेशियाइयों के जले पर नमक ही छिड़क रहे हैं। वरना, उन के कथन का दूसरा अर्थ यह है कि मुसलमान हिंसा न करें, इसलिए दूसरों ने उन्हें विशेषाधिकार देना मान लिया है।

"हम अक्सर पश्चिम की नकल करते हैं। हम उन की तरह पोशाक पहनते हैं। यहाँ तक कि उन की कुछ अजीब चीजें भी अपनाते हैं। मगर हमारे अपने मूल्य हैं, जिन्हें हमें बचाए रखना जरूरी है।" इस से साफ नहीं होता कि वे किन मूल्यों की बात कर रहे हैं, जिन्हें 'बचाना' जरूरी है? इस्लामी पंरपरा में जिहाद, गैर-मुस्लिमों से घृणा और हिंसा, विध्वंस का उपयोग सब से बुनियादी आधार रहे हैं। स्वयं इस्लामी इतिहास की किताबों में दूसरों को खत्म करने, लूटने, और जबरन अपने मजहब में मिलाने का ही गर्व रहा है। अतः महाथिर जैसे आधुनिक धनी मुस्लिम यदि पश्चिमी मशीनें, पोशाक, आरामदेह चीजें, जीवन-शैली न अपनाएं तो उन की पूरी इस्लामी परंपरा में रचनात्मक, उत्पादक, वैज्ञानिक, ज्ञानपरक, या कलात्मक है ही क्या?

"नए विचारों के साथ समस्या यह है कि नए लोग नई व्याख्याएं जोड़ने की कोशिश करते हैं। यह संस्थापकों ने नहीं चाहा था। इस प्रकार, औरतों की आजादी का मतलब केवल उन्हें चुनाव में वोट देने का अधिकार था। आज, हम मर्द और औरत के बीच हर भिन्नता को हटाना चाहते हैं।" यहाँ महाथिर स्वयं दिखा रहे हैं कि वे स्त्रियों को वोट देने के सिवा कोई आजादी देने के पक्ष में नहीं। क्योंकि इस्लाम के 'संस्थापक' ने औरतों को मर्दों की खेतियाँ बताया है, जिसे वह जैसे चाहें जोतें (कुरान, 2:223)। बीवियों के अलावा गुलाम औरतें, लौंडियाँ भी अतिरिक्त भोग्या बताई गई हैं। कुरान में मर्दों द्वारा तलाक देना मामूली, मनमाने काम जैसा वर्णित है। गर्भवती बीवी समेत किसी को आसानी से छोड़ा जा सकता है (65:1,4,6)। मानो कोई चीज पुरानी या नापसंद होते ही फेंक कर दूसरी लाते हैं, उसी तरह एक बीवी छोड़ दूसरी लाई जा सकती है (4:20)। हदीसों में औरतों को जानवरों के समकक्ष, और 'अपशुकन' जैसा भी बताया गया है (बुखारी, 7-62-31)। तब इस्लाम के संस्थापकों की चाह के अनुरूप महाथिर किन मूल भावनाओं की पैरवी कर रहे हैं?

"हमारी मूल्य प्रणाली मानव अधिकारों का एक भाग है।" वह साफ-साफ झूठ है। क्योंकि इस्लाम में ऐसे मानव की धारणा ही नहीं, जिसे धर्म की भिन्नता से हटकर देखा जा सके। उस में पूरी मानवता को मोमिन-काफिर में बाँट कर देखा गया है। इसलिए उस में केवल मुस्लिमों और काफिरों के अधिकार, कर्तव्य, आदि की बात है। ऐसी एक भी बात इस्लाम में नहीं जिसे मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों के भेद से ऊपर उठकर रखा गया हो। बल्कि कुरान (8: 12, 9: 29) में गैर-मुस्लिमों को 'आतंकित' और 'अपमानित' करने की बातें साफ-साफ लिखी हैं। इसीलिए, मुस्लिम देश संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत मानवाधिकार घोषणापत्र नहीं मानते। 57 मुस्लिम देशों ने अपना अलग 'इस्लाम में मानवाधिकार का घोषणा-पत्र' (1990) घोषित किया था, जिस की अंतिम, 25वीं धारा साफ कहती है कि उन के घोषणा-पत्र की सारी बातें शरीयत पर आधारित हैं। अतः महाथिर द्वारा इस्लामी मूल्यों को मानव अधिकारों का अंग बताना एक छल है।

"हाँ, कुछ मूल्य अमानवीय प्रतीत होते हैं। उस से कुछ लोगों को पीड़ा होती है। हमें उन की पीड़ा कम करने की जरूरत है। किन्तु बल पूर्वक नहीं, यदि विरोध तीव्र हो।" यहाँ उत्पीड़कों के विरुद्ध ही बल-प्रयोग रोकने की सिफारिश है। उत्पीड़कों की स्वेच्छा पर है कि जब वे विरोध न करें, तभी उन के द्वारा उत्पीड़ितों की पीड़ा कम की जाए। महाथिर उत्पीड़न खत्म करने की बात भी नहीं कहते, केवल 'कम करने' की सोचते हैं। उन में किसी 'अमानवीय' इस्लामी मूल्य को छोड़ने की इच्छा नहीं है चाहे वह कितनी ही अनुचित, और जुल्मी क्यों न हों। यह इस्लाम के दोहरेपन के सिद्धांत के अनुरूप ही है। छल, बल, बात-बदल, तकिया, आदि।

"यूरोपीय औरतों की पोशाक में उन के शरीर के अधिकाधिक भाग खुले दिखाई पड़ते हैं।" यदि महाथिर दूसरों पर टिप्पणी कर सकते हैं, तो दूसरों को भी उन के बुरके और शरीयत के संपूर्ण कायदों पर उसी तरह नकारात्मक टिप्पणियाँ करने का अधिकार है। जहाँ तक यूरोपीय महिलाओं की पोशाकों की बात है, तो क्या तुलना में इस्लाम में औरतों को पुरुष के मनमाने भोग की 'अच्छी चीजें' (कुरान, 5:87) बताना, मर्दों को अपनी वीवियों को पीटने का अबाध अधिकार देना, काफिर स्त्रियों को मनमाने भोग की वस्तु सझना, आदि अधिक सम्मानजनक है? यूरोपियनों का मजाक उड़ाने के बजाए महाथिर को अपनी इस्लामी मान्यताओं पर नजर डालनी चाहिए, जिन्हें वे 'अल्लाह के शब्द' मानकर 'अपरिवर्तनीय' भी कहते हैं।

Next Story