सम्पादकीय

सांस्कृतिक जागरण और भव्‍य होते आस्‍था के केंद्र, श्री महाकाल लोक के लोकार्पण से जुड़ा एक और अध्‍याय

Rani Sahu
11 Oct 2022 5:23 PM GMT
सांस्कृतिक जागरण और भव्‍य होते आस्‍था के केंद्र, श्री महाकाल लोक के लोकार्पण से जुड़ा एक और अध्‍याय
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सोर्स - Jagran
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण का शिलान्यास और फिर वाराणसी में काशी विश्वनाथ धाम का लोकार्पण करने के उपरांत प्रधानमंत्री ने जिस तरह उज्जैन में श्री महाकाल लोक को देश की जनता को समर्पित किया, उससे यही पता चल रहा है कि वह देश की आस्था और सांस्कृतिक चेतना के केंद्रों को भव्य रूप देने के आवश्यक अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। इसकी पुष्टि केदारनाथ धाम का नवनिर्माण और गुजरात के पावागढ़ में कालिका मंदिर के शिखर का पुर्ननिर्माण कराकर वहां ध्वजारोहण कराने से भी होती है।
इस मंदिर के शिखर को नष्ट करके वहां एक मजार बना दी गई थी, जिस कारण पांच सदियों से अधिक समय से वहां ध्वजारोहण नहीं हो रहा था। भारत सांस्कृतिक रूप से जितना समृद्ध है, उतना ही आस्था के उन प्रमुख केंद्रों से भी, जो देश के हर हिस्से में हैं। इनमें से कुछ सदियों पुराने हैं और शिल्पकला का अद्भुत नमूना भी। ये केंद्र भारतीय सभ्यता के वैभव को रेखांकित करने के साथ अपनी धार्मिक महत्ता के लिए भी जाने जाते हैं और भारतीय संस्कृति के गौरवगान के लिए भी।
ऐसे सभी केंद्र भव्य होने भी चाहिए और दिखने भी चाहिए, ताकि वहां जाने वाले श्रद्धालुओं को किसी प्रकार की असुविधा न हो। तीर्थाटन बढ़ने से देशवासी केवल सांस्कृतिक रूप से एक-दूसरे क्षेत्रों और लोगों से ही परिचित नहीं होते, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी बल मिलता है। आस्था के हमारे केंद्र अर्थव्यवस्था को गति देते हैं, अब यह कोई नई-अनोखी बात नहीं। वाराणसी में काशी विश्वनाथ धाम बनने के बाद वहां बढ़ता धार्मिक पर्यटन इसका प्रमाण है।
जन-जन की आस्था के केंद्र न केवल भारतीयता की झलक देते हैं, बल्कि यह भी बताते हैं कि हम सांस्कृतिक रूप से कितने विशिष्ट हैं। अच्छा होता कि आस्था के केंद्रों को संवारने और उन्हें श्रद्धालुओं के लिए सुविधाजनक बनाने का अभियान स्वतंत्रता के बाद सोमनाथ मंदिर के जीर्णोद्धार के बाद भी जारी रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदा-कदा आस्था के कुछ केंद्रों को तो निखारा गया, जैसे कि वैष्णो देवी मंदिर और तिरुपति बालाजी मंदिर, लेकिन हमारे अन्य अनेक मंदिर और उनके परिसर उपेक्षित ही पड़े रहे। इसके चलते वहां जाने वाले श्रद्धालुओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता था और प्रायः वे सुखद स्मृतियां लेकर नहीं लौटते थे।
इन स्थितियों में जैसे सरकारों के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे आस्था स्थलों को संवारने और वहां तक लोगों की पहुंच सुगम बनाने पर ध्यान दें, वैसे ही श्रद्धालुओं का भी यह दायित्व बनता है कि ऐसे स्थलों की गरिमा और सांस्कृतिक स्वरूप बनाए रखने के लिए सजग रहें। निःसंदेह सभी को इसके लिए भी प्रयत्नशील रहना चाहिए कि आस्था के हमारे केंद्र देश में सकारात्मक ऊर्जा का संचार करें।
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